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Photograph: (The Sootr)
रायपुर.छत्तीसगढ़ की आत्मा उसकी आदिवासी संस्कृति में बसती है। जनजातीय परंपराएं, कला और जीवनशैली इस राज्य को अलग पहचान देती हैं। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की सरकार ने इस सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने और आने वाली पीढ़ियों तक जीवंत रूप में पहुंचाने की बड़ी पहल की है। नवा रायपुर स्थित 'ट्राइबल म्यूजियम' यानी 'आदिवासी संग्रहालय' इसका जीवंत उदाहरण है। यह म्यूजियम आदिवासी इतिहास और विरासत को संजोने वाला देश का अनूठा केंद्र बन गया है।
करीब 10 एकड़ जमीन में फैले इस आधुनिक म्यूजियम का निर्माण 9 करोड़ 27 लाख की लागत से किया गया है। मुख्यमंत्री साय ने मई में खुद इसका उद्घाटन किया था, तब से यह म्यूजियम नवा रायपुर के सबसे बड़े आकर्षणों में शुमार हो गया है। यहां रोज बड़ी संख्या में बच्चे, रिसर्चर, आम पर्यटक और संस्कृति प्रेमी पहुंचते हैं। यहां ये लोग आदिवासी जीवन को करीब से देखने का मौका पाते हैं।
जनजातियों की जीवंत झलक
म्यूजियम की सबसे खास बात इसकी 14 अलग-अलग गैलरियां हैं, जिनमें छत्तीसगढ़ की 43 जनजातियों की संस्कृति को संजीदगी और जीवंतता के साथ पेश किया गया है। हर गैलरी नई दुनिया की झलक देती है। कहीं पारंपरिक वेशभूषा तो कहीं घर-आंगन, कहीं वाद्य यंत्र तो कहीं कृषि के उपकरण और कहीं पूजा-पद्धतियों से लेकर खानपान तक की परंपराएं नजर आती हैं।
इन गैलरियों में जनजातीय समुदायों की भौगोलिक स्थिति, तीज-त्योहार, नृत्य, आवास, घरेलू उपकरण, शिकार के औजार, परिधान और आभूषण, खेती-किसानी से जुड़ी तकनीक, रस्सी, तेल, कत्था निर्माण जैसे रोजमर्रा के जीवन में उपयोग होने वाली चीजों को जीवंत रूप में दिखाया गया है।
म्यूजियम की डिजाइन और मूर्तियां इतनी रियलिस्टिक हैं कि ऐसा लगता है जैसे वे अभी चलकर हमारे सामने आ जाएंगी। हर समुदाय की विशेषताएं जैसे कंवर, गोंड, भतरा, हलबा, भुंजिया, कमार, पंडो आदि की अलग-अलग गैलरियां उनके विशिष्ट रंग, रूप और संस्कृति को बयान करती हैं।
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लाल बंगला भुंजिया जनजाति की रसोई
म्यूजियम में एक खास आकर्षण है लाल बंगला। यह भुंजिया जनजाति की रसोई का प्रतिरूप है, जिसे वे रंधनी कुरिया भी कहते हैं। यह लाल मिट्टी से बनी अलग रसोई होती है, जिसे घर से बाहर बनाया जाता है। खास बात यह है कि इसमें सिर्फ भुंजिया समुदाय के सदस्य ही प्रवेश कर सकते हैं। अगर कोई बाहरी व्यक्ति गलती से भी इसमें घुस जाए, तो पूरी रसोई को तोड़कर या जलाकर नया बनाया जाता है।
इस रसोई में खाना बनाने के लिए पारंपरिक बर्तन जैसे हांडी, हंसिया, कांसे की थाली, बाटलोई, गिलास, लोटा आदि का उपयोग होता है। इसे बनाने की प्रक्रिया में भी स्त्री और पुरुष की भूमिकाएं स्पष्ट होती हैं। पुरुष जंगल से लकड़ी लाते हैं, मिट्टी तैयार करते हैं, छत बनाते हैं। वहीं महिलाएं फर्श पर लिपाई, दीवारों पर पुताई और चूल्हा बनाती हैं।
आत्मरक्षा के कंगन
आदिवासी युवतियों के नुकीले कंगन भी यहां प्रदर्शित हैं। ये सिर्फ श्रृंगार की चीज नहीं, बल्कि आत्मरक्षा के औजार भी हैं। आदिवासी युवतियां जंगल में अकेले काम करने जाती हैं और जंगली जानवरों या हमलावरों से खुद को बचाने के लिए इन नुकीले कंगनों का इस्तेमाल करती हैं। ऐसे कंगनों को म्यूजियम की आभूषण गैलरी में खास जगह दी गई है।
यह म्यूजियम सिर्फ बीते वक्त को दिखाने तक सीमित नहीं, बल्कि भविष्य की तकनीकों को भी जोड़कर अनुभव को और मजेदार बनाया गया है। यहां आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी AI से आप खुद की तस्वीर खिंचवा सकते हैं, वो भी पारंपरिक बस्तर की वेशभूषा में।
बस एक खास पॉइंट पर खड़े हों, स्क्रीन पर दिखें और कुछ सेकंड में आपको अपनी फोटो मिल जाएगी, जिसमें आप बस्तर की पारंपरिक पोशाक पहने होंगे और पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ नृत्य कर रहे होंगे। इसका प्रिंट भी आप तुरंत साथ ले जा सकते हैं।
हर जानकारी एक टच पर
म्यूजियम में हर गैलरी के साथ टच स्क्रीन डिस्प्ले भी लगाए गए हैं, जिनके जरिए हर जनजाति की जानकारी, उनका त्यौहार, परिधान, औजार, जीवनशैली और परंपराएं विस्तार से बताई गई हैं। इससे न केवल देखने का अनुभव बेहतर होता है, बल्कि जानने और समझने की प्रक्रिया भी आसान बनती है।
यहां दिखाया गया है कि कैसे आदिवासी समुदाय अपने पारंपरिक औजारों से कृषि करते थे, लकड़ी और पत्थरों से कैसे उपकरण बनाते थे, फसल को कैसे साफ और सहेजते थे, तेल निकालने और रस्सी बनाने की परंपरागत विधियां क्या थीं और चिवड़ा-लाई या कत्था कैसे तैयार किया जाता था।
सांस्कृतिक विरासत और विलुप्त होती जनजातियां
म्यूजियम की आखिरी गैलरी में राज्य की विशेष रूप से कमजोर जनजातियां जैसे अबूझमाड़िया, बैगा, कमार, पहाड़ी कोरवा, बिरहोर, भुंजिया और पंडो के जीवन के विभिन्न पहलुओं को दिखाया गया है। इन जनजातियों की संस्कृति, बोलियां, सामाजिक व्यवहार, रहन-सहन और कला कौशल को सहेजना, दस्तावेज करना और प्रचारित करना इस म्यूजियम का प्रमुख उद्देश्य है।
इसी श्रंखला में गोटुल जैसे परंपरागत सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थान को भी चित्रित किया गया है, जो अबूझमाड़ क्षेत्र में युवाओं की सामाजिक शिक्षा का केंद्र हुआ करता था।
इतिहास, परंपरा और तकनीक का मिलन
ट्राइबल म्यूजियम दर्शनीय स्थल के साथ संवेदनशील और वैज्ञानिक पहल है, जो छत्तीसगढ़ की आत्मा को आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने का जरिया बन रही है। इस तरह मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की सरकार ने यह साबित किया है कि विकास का मतलब सिर्फ सड़कें और इमारतें नहीं, बल्कि संस्कृति को सहेजना, समुदायों की पहचान को संरक्षित करना और आधुनिक तकनीक के साथ परंपराओं को जोड़ना भी उतना ही जरूरी है। ट्राइबल म्यूजियम में आने वाला हर व्यक्ति सिर्फ कुछ तस्वीरें नहीं ले जाता, वह छत्तीसगढ़ की आत्मा को महसूस करके लौटता है। जनजातीय समुदाय स्वयं इस पहल के लिए सरकार का आभार प्रकट करता है।
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