छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदाय दीपावली के अवसर पर अपने घरों को पारंपरिक चित्रकारी से सजाने की सदियों पुरानी परंपरा निभाते हैं। यह चित्रकारी न केवल सौंदर्यबोध का प्रतीक है, बल्कि इससे सांस्कृतिक धरोहरों और लोकमान्यताओं का भी जीवंत प्रदर्शन होता है। इन चित्रों के माध्यम से प्रकृति, देवी-देवताओं और दैनिक जीवन के दृश्यों का अंकन किया जाता है।
सोहराई और पिथोरा चित्रकला की प्राचीन परंपराएं
दीपावली के दौरान विशेष रूप से सोहराई और पिथोरा चित्रकला का प्रचलन होता है। सोहराई चित्रकला में दीवारों पर फूल, पत्ते, पशु-पक्षियों और धार्मिक प्रतीकों को गेरू और प्राकृतिक रंगों से उकेरा जाता है। वहीं, पिथोरा चित्रकला मुख्य रूप से देवताओं और लोककथाओं के पात्रों का चित्रण करती है। इन कलाओं में प्रयोग किए जाने वाले रंग भी प्राकृतिक स्रोतों जैसे मिट्टी, पत्थर और पौधों से तैयार किए जाते हैं, जो पर्यावरण के प्रति आदिवासियों की गहरी संवेदनशीलता को दर्शाते हैं।
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सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व
आदिवासी समुदायों के अनुसार, दीपावली पर घरों को सजाने से न केवल देवताओं की कृपा प्राप्त होती है, बल्कि बुरी शक्तियों का भी नाश होता है। यह चित्रकारी घर-परिवार में खुशहाली लाने और समृद्धि की कामना का प्रतीक है। इसके अलावा, इस समय समुदायों में सामूहिकता और पारस्परिक सहयोग का भी वातावरण देखने को मिलता है, क्योंकि चित्रकारी के कार्य में सभी परिवारजनों का योगदान होता है।
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