मध्य प्रदेश में इस साल मानसून समय पर आया है। किसान एक महीने से खेत तैयार करने में जुटे हैं। हालांकि, खाद और बीज समय पर नहीं मिल रहे हैं। कृषि विभाग अब तक बोवनी के लिए योजना नहीं बना सका है। सरकार की यह देरी किसानों के लिए परेशानी का कारण बन रही है।
प्रदेश के केवल पांच संभागों में हुई बैठकें
हर वर्ष खरीफ या रबी सीजन की बोवनी से पहले संभाग स्तर पर कृषि आयुक्त की देखरेख में बैठक कर योजना बनाई जाती है। इन बैठकों में क्षेत्र में कुल रकबे में बोवनी की संभावना, खाद और बीज की मांग और आपूर्ति के उपाय, आवश्यक संसाधनों की पूर्ति जैसे उपायों पर चर्चा की जाती है।
इस बार मानसून तो समय पर आया, लेकिन कृषि विभाग और सरकार अपनी ओर से लेट हो गई। 22 जून तक प्रदेश के केवल पांच संभागों में ही इस प्रकार की बैठकें हो पाई हैं। आधे प्रदेश में अब तक किसानों को बैठकों का इंतजार है।
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महंगे दामों पर खाद-बीज खरीदने को मजबूर किसान
प्रदेश सरकार और कृषि विभाग की लेटलतीफी का खामियाजा किसानों को उठाना पड़ रहा है। सरकारी स्तर से खाद-बीज नहीं मिल पाने के कारण किसानों को खुले बाजार से मुहंमांगे दामों पर खाद-बीज खरीदने को विवश होना पड़ रहा है।
खुले बाजार में एक क्विंटल सोयाबीन बीज जहां 12 हजार रुपए में मिल रहा है तो वहीं चार किलो मक्का बीज 11 सौ रुपए में बेचा जा रहा है। इधर कृषि विभाग के अनुसार सहकारी व मार्कपफेड केंद्रोें पर पर्याप्त खाद-बीज उपलब्ध है, लेकिन किसान इससे इंकार करते है।
उज्जैन-नर्मदापुरम जैसे संभाग भी पिछडे़
प्रदेश में कृषि उत्पादन में अग्रणी माने जाने वाले कई संभाग भी इस बार बोवनी पूर्व तैयारियों और बैठक में पिछड़ गए है। प्रदेश के उज्जैन, नर्मदापुरम सहित पांच संभागों में अब तक बैठक नहीं हो सकी है।
जानकारी के अनुसार कृषि उत्पादन आयुक्त की आगामी बैठकें 25,26 और 27 जून को होने वाली है। इन बैठकों के दौरान किसानों की समस्याओं का समाधान करने की कोशिशें की जाएगी, लेकिन सवाल यह है कि किसानों को इतनी देर से योजना का लाभ क्यों नहीं मिला।
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प्रदेश के कई हिस्सों में हो चुकी है बोवनी
एक ओर जहां प्रदेश के आधे संभागों में अब तक खरीफ सीजन को लेकर बैठक तक नहीं हो सकी है, दूसरी ओर प्रदेश के कई हिस्सों में 50 से 60 फीसदी तक बोवनी कार्य भी निपट चुका है। नर्मदातटीय नर्मदापुरम संभाग के कई गांवों में इस समय 75 फीसदी तक बोवनी हो चुकी है। इसी प्रकार उज्जैन संभाग के कई गांवों में भी यह आंकड़ा 50 फीसदी से ज्यादा हो चुका है।
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