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Photograph: (THESOOTR)
BHOPAL. देवी अहिल्या बाई होलकर का जीवन समाज, संस्कृति और राष्ट्र के लिए समर्पित रहा। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व अनमोल है। उन्हें समाज ने पुण्य-श्लोका, लोकमाता, मातोश्री, न्यायप्रिया, प्रजावत्सला, राजमाता से संबोधित किया। यह संबोधन समाज का उनके प्रति सम्मान था। उनकी कार्य शैली, व्यवहार, कर्म-कर्तव्य का पालन, मुश्किल स्थिति में भी स्थिर रहने का हुनर...सब कुछ अद्भुत था। वक्त आने पर वे सही फैसला लेती थीं। संकल्प की दृढ़ता के साथ प्रशासनिक कौशल मानो उन्हें वरदान में मिला।
रानी अहिल्या बाई ने जिस तरह सिंहासन संभाला, वह अद्भुत है। जिस तरह शंकराचार्य जी ने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना कर सनातन संस्कृति को पुनर्स्थापित किया। वैसे ही देवी अहिल्या बाई ने पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक विखंडित मान बिंदुओं को स्थापित किया। देशभर में सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठा की।
अब उनकी 300वीं जयंती पर 31 मई को बीजेपी सरकार मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में मेगा शो करने जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं इसमें शामिल होंगे। वे प्रदेश को कई सौगातें देंगे।
पढ़िए मां अहिल्या के कृतित्व और व्यक्तित्व की दास्तां...!
देवी अहिल्या बाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के तत्कालीन अहमदनगर (अब अहिल्या नगर) जिले के चौंडी गांव में हुआ था। ग्रामीण पृष्ठभूमि में साधारण परिवार में जन्मी अहिल्या बाई अपनी प्रतिभा और क्षमता से विशेष बनीं। मात्र आठ वर्ष की उम्र में वे राजवधु बनकर इंदौर आ गईं। अहिल्या बाई को दोनों परिवारों से स्नेह, संबल और संस्कार मिले, लेकिन उनका पूरा जीवन विषमता से भरा रहा। वे केवल 29 वर्ष की थीं, तभी पति महाराज खांडेराव वीरगति को प्राप्त हो गए।
1766 में पितृवत स्नेह देने वाले मल्हार राव होलकर का निधन हो गया। इसके बाद पुत्र मालेराव का निधन और फिर दोहित्र का निधन। फिर दामाद का निधन और बेटी का सती होना। उन पर मानो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। उन्होंने किसी तरह अपने आप को संभाला और इंदौर (मालवा) रियासत को को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया।
राजमुद्रा पर श्रीशंकर
मां अहिल्या बाई ने राज्य को भगवान शिव को अर्पित कर दिया। स्वयं को केवल निमित्त माना। वे कहती थीं कर्ता भी शिव, कर्म भी शिव, क्रिया भी शिव और कर्मफल भी शिव। वे राज्य के आदेश पर अपने हस्ताक्षर नहीं करती थीं। केवल राजमुद्रा लगाती थीं, जिस पर श्रीशंकर अंकित था।
महाराज मल्हार राव होलकर के निधन के बाद अहिल्या बाई ने कुशल राजनीतिक सूझबूझ से राज्य को युद्ध के संकट में जाने से बचा लिया। दरअसल, वे कुशल सैन्य संचालक थीं। वे तलवार, भाला और तीर कमान चलाने में निपुण थी। वे हाथी पर बैठकर युद्ध करती थीं।
योग्यता देखकर की बेटी की शादी
अहिल्याबाई की नजर में जन्म, जाति, वर्ग या वर्ण से परे योग्यता सबसे अहम थी। सामाजिक समरसता के इस सिद्धांत की झलक उनके मंत्रि-परिषद, उनके द्वारा बसाई गईं बस्तियों में, सुरक्षा टोलियों के गठन और खेती की जमीन के आवंटन में दिखती है। उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह भी जन्म या जाति देखकर नहीं, बल्कि योग्यता देखकर किया।
इस तरह चुना अपना दामाद
दरअसल, इसके पीछे रोचक दास्तां है। अहिल्या बाई ने जब शासन संभाला, तब राज्य में अराजकता का माहौल था। उन्होंने घोषणा की कि जो भी नायक आंतरिक अपराधों को नियंत्रित करके शांति स्थापित करेगा, उससे वे अपनी बेटी की शादी करेंगी। नायक यशवंत राव फणसे ने यह चुनौती स्वीकार की और अपराधों पर लगाम लगाई।
इसके बाद रानी ने सैन्य भर्ती अभियान चलाया। एक आंतरिक सुरक्षा के लिए और दूसरा बाहरी युद्ध के लिए। उन्होंने घुमंतू समाज के लोगों और भीलों को सेना में भर्ती किया। इस तरह कल तक जो दल अपराध समूह में थे, वे अब गांवों की सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रहे थे। इससे शांति व्यवस्था बनी।
ऐसे दिया कारोबार को विस्तार
रानी अहिल्या बाई ने खेती, कुटीर और हस्तकला को प्रोत्साहित किया। गांवों में तालाब और छोटी नहरें बनवाईं। कपास और मसालों की खेती को प्रोत्साहित किया। उन्होंने भील वनवासियों और घुमन्तु टोलियों के सुरक्षा दस्ते बनाने के साथ खाली पड़ी जमीन पर खेती करने की योजना लागू की। इस योजना से अनाज, कपास, मसालों की खेती का विस्तार हुआ। उन्होंने विश्व प्रसिद्ध महेश्वरी साड़ी उद्योग स्थापित किया। इससे देशभर के व्यापारी आकर्षित हुए और इंदौर आने लगे। इस उद्योग में युद्ध में बलिदान सैनिकों की पत्नियों और कैदियों की पत्नियों को लगाया, ताकि उनका परिवार पल सके।
महिलाओं का जीवन संवारने क्रांतिकारी फैसले
देवी अहिल्या बाई नारी सम्मान और सुरक्षा को लेकर संवेदनशील थीं। उन्होंने महिलाओं की एक सैन्य टुकड़ी बनाई। महिलाओं के सम्मान और आत्मनिर्भरता के लिए क्रांतिकारी फैसले लिए। महिलाओं को संपत्ति में अधिकार, विधवा को दत्तक पुत्र लेने का अधिकार और विधवा पुनर्विवाह के अधिकार दिए।
यही नहीं, वे पर्यावरण प्रेमी भी थीं। महेश्वर में किले के निर्माण के लिए उन्होंने पर्वत को तोड़ने नहीं दिया। इसके लिए उन्होंने नर्मदा किनारे मैदान में पड़े पत्थरों का उपयोग किया। महेश्वर किले के निर्माण में जितने पेड़ हटे, उतने पेड़ लगाए गए। नर्मदा क्षेत्र में नींबू, कटहल, आम, बरगद आदि वृक्ष लगाये, इससे भूमि का जलस्तर बढ़ा और फसलों को फायदा हुआ।
मंदिरों को सजाया और संवारा
अहिल्या बाई ने अपने राज्य के साथ देश के सांस्कृतिक गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा की। उन्होंने तीर्थ स्थलों को संवारा। देश के करीब 130 तीर्थ स्थलों और नदियों के घाट बनवाए। मंदिरों में शिक्षा केन्द्र, व्यायाम शालाएं और अन्न क्षेत्र शुरू किए। 30 मंदिरों में संत निवास, प्रवचन कक्ष और ग्राउंड बनवाए। यह काम इतनी मजबूती से किए गए थे कि आज भी ज्यों के त्यों हैं। उन्होंने गुजरात का सोमनाथ मंदिर, सभी ज्योतिर्लिंग, बद्रीनाथ धाम, दक्षिण में रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी, द्वारिका, मथुरा श्रीकृष्ण मंदिर, वाराणसी में विश्वनाथ विष्णु धाम मंदिर और मणिकर्णिका घाट बनवाया।
इस तरह अहिल्या बाई ने कभी आराम नहीं किया। जीवन के अंतिम क्षण तक वे भगवान शिव और समाज के प्रति समर्पित रहीं। अंततः राजयोगिनी, कर्मयोगिनी देवी अहिल्या बाई ने 13 अगस्त 1795 को अपने जीवन की अंतिम श्वास ली। अंतिम क्षण तक उनके हाथ में शिव स्मरण की माला ही थी।
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