बुंदेलखंड की भूमि पर जन्मे वीर आल्हा की 1300वीं जयंती इस बार वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के दिन, 25 मई रविवार को मनाई जा रही है। इस दिन पूरे क्षेत्र में उनके शौर्य और समर्पण को याद किया जा रहा है। आल्हा और उनके भाई ऊदल, बुंदेलखंड की लोकगाथाओं में आज भी जीवित हैं।
किस्सों से निकलकर अमरत्व की गाथा बन गए आल्हा
उत्तर प्रदेश सरकार के महोबा जिले की अधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक वीर आल्हा और ऊदल का जन्म महोबा के दशरथपुरवा गांव में हुआ था। 12वीं सदी में जन्मे आल्हा और ऊदल बचपन से ही शस्त्र विद्या और युद्ध कौशल में निपुण थे। दोनों भाई क्षत्रिय बनाफर राजपूत वंश से थे। उनके पिता दसराज और माता देवलदे थीं। उनके पिता की हत्या के बाद, वे राजा परमाल की शरण में गए और वहीं से उनकी वीरगाथा की शुरुआत हुई।
परमाल के रक्षक, महोबा के सच्चे सिपाही
दोनों वीर योद्धाओं ने राजा परमाल के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था आल्हा ने महोबा राज्य पर हमले के समय जब भी संकट आया, आल्हा-ऊदल ने अपने पराक्रम से उसे बचाया। पृथ्वीराज चौहान जैसे शक्तिशाली सम्राट भी महोबा पर चढ़ाई करने से पहले यह देखना नहीं भूलते थे कि क्या आल्हा-ऊदल वहां हैं। बुंदेलखंड में प्रचलित कथाओं के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर तब हमला किया था जब दोनों कन्नौज गए थे।
जब पृथ्वीराज से भिड़े बुंदेली वीर
प्रचलित कथाओं और बुंदेलखंड के इतिहासकारों के अनुसार जब पृथ्वीराज की सेना ने महोबा पर हमला किया, राजा परमाल ने आल्हा-ऊदल को बुलाया। युद्ध में ऊदल सीधे पृथ्वीराज से भिड़ गए, लेकिन चामुंडा राय ने पीछे से वार कर दिया जिससे ऊदल वीरगति को प्राप्त हुए। इसके बाद आल्हा ने गुस्से में पृथ्वीराज को पीछे हटने पर मजबूर कर महोबा को बचा लिया।
मां दुर्गा के उपासक थे आल्हा
आल्हा मां दुर्गा के परम भक्त थे। उन्हें माता से पराक्रम और अमरता का वरदान मिला था। बुंदेलखंड के लोगों का मानना है कि मैहर के मां शारदा मंदिर में हर सुबह पूजा के चिह्न मिलते हैं। यहां सबसे पहले दर्शन करने वाले आज भी आल्हा और ऊदल ही हैं। बुंदेलखंड के लोग उन्हें आज भी अमर मानते हैं।
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कवि जगनिक ने रच दी थी गाथा
आल्हा-ऊदल के 52 युद्धों का वर्णन है परमालरासो यानी आल्हा खंड में मिलता है। लोककवि जगनिक ने इन वीरों की बहादुरी को अपनी कविता 'आल्हा खंड' में दर्ज लिखा है। इसमें आल्हा और ऊदल द्वारा लड़े गए 52 युद्धों का विस्तार से उल्लेख है। यह काव्य बुंदेलखंड की परंपरा में आज भी जीवंत है और पीढ़ियों से गाया जा रहा है।
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