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मध्यप्रदेश हाइकोर्ट की जबलपुर पीठ ने एक अहम आदेश पारित करते हुए लोकायुक्त मध्यप्रदेश को यह निर्देशित किया है कि वह नरेन्द्र कुमार राकेशिया द्वारा दायर शिकायत की गहन जांच करें।
साथ ही इसके अनुसार आवश्यक विधिक कार्रवाई करें। जस्टिस विशाल धगत की एकल पीठ के द्वारा पारित आदेश में यह भी स्पष्ट किया कि पूरी जांच प्रक्रिया को 45 दिनों की समयसीमा में पूर्ण कर लिया जाए और जांच के परिणामों से याचिकाकर्ता को विधिवत रूप से अवगत कराया जाए।
कार्रवाई नहीं हुई, तो कोर्ट पहुंचे राकेशिया
नरेन्द्र कुमार राकेशिया द्वारा इस मामले में की गई शिकायत में कोर्ट को दिए गए दस्तावेजों से यह पता चलता है कि यह कोई आकस्मिक या भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि यह याचिका दस्तावेजी साक्ष्यों पर आधारित है।
उन्होंने पहली बार दिनांक 16 जुलाई 2024 को लोकायुक्त कार्यालय में शिकायत दर्ज की थी, जिसमें आरोप थे कि डॉ. संजय मिश्रा द्वारा म.प्र. सिविल सेवा आचरण नियमों का घोर उल्लंघन किया गया है।
जब पहली शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो उन्होंने दिनांक 30 अगस्त 2024 को दोबारा विस्तृत साक्ष्यों के साथ वही शिकायत दोहराई।
इसके बाद भी जब कोई प्रत्यक्ष परिणाम नहीं आया, तो याचिकाकर्ता ने आखिरकार न्यायालय की शरण ली।
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डॉ. संजय मिश्रा पर दो विवाह के आरोप
शिकायत का सबसे प्रमुख और संवेदनशील हिस्सा डॉ. संजय मिश्रा द्वारा कथित रूप से दो विवाह किए जाने का है।
याचिकाकर्ता का आरोप है कि डॉ. मिश्रा ने शासन की पूर्व अनुमति के बिना दूसरा विवाह किया, जो म.प्र. सिविल सेवा आचरण नियम 22 के तहत स्पष्ट रूप से वर्जित है।
शिकायत में कहा गया है कि उनकी पहली पत्नी तृप्ति मिश्रा का नाम उनकी शासकीय सेवा पुस्तिका में दर्ज है, जबकि दूसरी पत्नी इप्षिता मिश्रा का नाम पेंशन से संबंधित विभागीय सॉफ्टवेयर में उल्लेखित किया गया है।
यदि यह सत्य पाया जाता है, तो यह नियमों के उल्लंघन के साथ-साथ विभागीय धोखाधड़ी का भी मामला बन सकता है।
नियमों की अनदेखी का आरोप
शिकायत में एक अन्य गंभीर पहलू यह भी उठाया गया है कि डॉ. संजय मिश्रा की शासकीय सेवा में नियुक्ति और पदोन्नति की प्रक्रियाएं भी संदेह के घेरे में हैं।
याचिकाकर्ता ने यह आरोप लगाया कि उन्होंने गलत जानकारी और संभवतः फर्जी प्रमाणों के आधार पर पदोन्नति प्राप्त की, जिससे अन्य पात्र अभ्यर्थियों के अधिकारों का हनन हुआ।
यदि इस आरोप की जांच गंभीरता से की जाती है, तो यह न केवल व्यक्तिगत अनियमितता होगी बल्कि चिकित्सा प्रशासनिक तंत्र की पारदर्शिता पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न उत्पन्न करेगा।
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निजी पैथोलॉजी संचालन के आरोप
म.प्र. सिविल सेवा आचरण नियम 16 के अनुसार, प्रशासनिक पदों पर कार्यरत अधिकारियों को निजी व्यावसायिक गतिविधियों से दूर रहना अनिवार्य है, विशेषतः चिकित्सा क्षेत्र में कार्यरत सिविल सर्जनों को निजी प्रैक्टिस करने की मनाही है।
इसके बावजूद शिकायत में यह आरोप लगाया गया है कि डॉ. मिश्रा, जबलपुर में एप्पल पैथोलॉजी, परफेट एंडोकेयर लेब सहित अनेक निजी पैथोलॉजी केंद्रों का संचालन कर रहे थे।
यदि यह आरोप सही पाए जाते हैं, तो यह केवल अनुशासनात्मक ही नहीं बल्कि आपराधिक प्रकृति का मामला भी बन सकता है, क्योंकि इससे राज्य सरकार के आदेशों की खुली अवहेलना सिद्ध होती है।
राजस्व रिकॉर्ड में पत्नी के नाम से खरीदा फ्लैट
शिकायत में यह भी कहा गया है कि डॉ. मिश्रा ने उक्त पैथोलॉजी केंद्रों से अर्जित आय से ‘ओजस इंपीरिया’ नामक हाई-राइज़ सोसाइटी में लाखों रुपए मूल्य का फ्लैट खरीदा और उसे अपनी कथित दूसरी पत्नी इप्षिता मिश्रा के साथ संयुक्त रूप से खसरा रिकॉर्ड में दर्ज कराया।
आरोप है कि इस संपत्ति की खरीद के लिए शासन से कोई अनुमति नहीं ली गई, जबकि सरकारी सेवकों के लिए यह अनिवार्य है।
आय के स्रोत, संपत्ति की घोषणा, और अनुमति की प्रक्रिया से जुड़ा यह मामला पूरी तरह सेवा नियमों के दायरे से बाहर जाकर भ्रष्टाचार की आशंका को पुष्ट करता है।
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पूर्व याचिका में भी न्यायालय ने जताई थी चिंता
आपको बता दें कि यह प्रकरण पहले भी कोर्ट के संज्ञान में आ चुका है। याचिकाकर्ता ने पहले भी इसी विषय पर याचिका दायर की थी।
जिस पर न्यायालय ने यह कहते हुए उस समय निर्णय नहीं दिया था कि यदि अगले तीन महीनों में लोकायुक्त द्वारा कोई कार्यवाही नहीं होती है, तो याचिकाकर्ता पुनः याचिका प्रस्तुत कर सकते हैं।
अब जब यह दोबारा याचिका दायर की गई, और तथ्यों को मजबूती से रखा गया, तो कोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए स्पष्ट आदेश जारी कर दिए हैं।
लोकायुक्त के लिए तय की जांच की समय सीमा
न्यायालय द्वारा तय की गई 45 दिनों की समयसीमा न केवल एक प्रशासनिक निर्देश है, बल्कि लोकायुक्त संगठन के लिए एक ‘अग्निपरीक्षा’ भी है।
यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या लोकायुक्त संगठन इस संवेदनशील और हाइप्रोफ़ाइल मामले में निष्पक्ष, पारदर्शी और समयबद्ध जांच कर पाएगा या नहीं।
यदि आदेश की अवहेलना होती है, तो यह न केवल संस्था की साख पर प्रश्नचिह्न लगाएगा, बल्कि न्यायालय के समक्ष पुनः अवमानना की स्थिति भी उत्पन्न कर सकता है।
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