BHOPAL. कंगना रानौट ने सुभाष चंद्र बोस को देश का पहला पीएम क्या बोल दिया, हिमाचल प्रदेश की मंडी लोकसभा सीट अचानक सुर्खियों में आ गई है। भई कंगना रनौत हैं, कुछ भी बोल सकती हैं। उनके चक्कर में कमलनाथ जैसे मंझे हुए, राजनीति की जानकारी रखने वाले नेता को नहीं भुलाना चाहिए। जिनका सियासी तजुर्बा ही कंगना रानौट की उम्र से ज्यादा है। देखा जाए तो सियासी तजुर्बे के मामले में तो कांग्रेस ( Congress ) पार्टी भी कंगना रनौत की उम्र से कहीं ज्यादा साल पुरानी है, लेकिन इन दिनों जिस तरह से सियासी आकलन कर रही है। उसे देखकर लगता है कि उसकी समझ भी कंगना जितनी ही हो गई है, कैसे चलिए मैं बताता हूं।
विधानसभा चुनाव जैसी ही सुस्त दिख रही कांग्रेस
अब अपना फोकस कंगना रानौट से शिफ्ट करके मध्यप्रदेश पर ही लेकर आते हैं। जहां बीजेपी की गले की हड्डी बनी है एक सीट, वो है छिंदवाड़ा। ये बात बहुत बार हो चुकी है। बीजेपी एक तरफ इस कोशिश में है कि इस बार वो सारी की सारी सीटें हथिया ले और कांग्रेस। कांग्रेस कोशिश तो कुछ करती नजर नहीं आ रही। सिवाय इसके कि राहुल गांधी ने हर साल गरीब महिलाओं को एक लाख रुपये सालाना देने की घोषणा कर दी है। इसके अलावा प्रयास के नाम पर कांग्रेस उतनी ही सुस्त दिख रही है जितनी विधानसभा चुनाव के दौरान थी। उस बार भी कांग्रेस इस इत्मीनान में थी बीजेपी के खिलाफ एंटीइंकंबेंसी और उसकी गुटबाजी ही उसकी हार का कारण बनेगी।
कांग्रेस को कुछ सीटों को लेकर ओवरकॉन्फिडेंस है
लेकिन इस बार, इस बार तो न एंटी इंकंबेंसी है। न गुटबाजी है न बीजेपी के पास चेहरों की कमी है। इसके बावजूद कांग्रेस कुछ सीटों को लेकर जबरदस्त इत्मीनान में है। या उसे ओवरकॉन्फिडेंस कह लीजिए। ये शब्द ज्यादा बेहतर होगा। एक तरफ जब हर चुनावी सर्वे चिल्ला चिल्ला कर कह रहा है कि बीजेपी एमपी में आसानी से जीत रही है। तब कांग्रेस को ये भरोसा है कि कुछ सीटें तो उसकी झोली में आकर गिरने ही वाली हैं। अब मोदी लहर के बीच घर बैठकर ये भरोसा करना ठीक वैसा ही है जैसे समुद्र की सुनामी के बीच चप्पू वाली नाव लेकर निकल जाना और ये सोचना कि किनारे तो आसानी से लग ही जाएंगे। अब आपको कांग्रेस की इस सोच का कारण भी बताता हूं। और, ये भी बताता हूं कि कांग्रेस अपनी इसी सोच में कहां गलत है। सबसे पहले बात करते हैं सोच के कारण की। वो कौन सी ऐसी जादुई छड़ी है जो कांग्रेस के हाथ लगी है और कांग्रेस बस ये सोच रही है कि छड़ी घूमेगी और चंद सीटें अपने आप उसकी झोली में गिर पड़ेंगी। भई जीतू पटवारीजी ऐसा तो तब भी नहीं हुआ जब प्रदेश में आपकी अपनी यानी कि कांग्रेस की सरकार थी। दिग्विजय सिंह के शासनकाल में भी लोकसभा चुनाव में बीजेपी की हालत कोई खास बुरी नहीं थी। खैर अभी हिस्ट्री पर नहीं जाते। अभी बात करते हैं उस चुनावी फेक्ट की जिसने कांग्रेस को फिर ओवर कॉन्फिडेंट कर दिया है।
कांग्रेस नेता इन सीटों पर पार्टी को बढ़त के रूप में देख रहे हैं
विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव दोनों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं, प्रत्याशी तो खेर अलग होने ही हैं और साथ ही वोट देने की थॉट प्रोसेस भी अलग होती है। ये बात नया-नया सियासी खिलाड़ी या जानकार भी बता सकता है, लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ये खुशफहमी पाले हुए है कि चार माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में जिन विधानसभा सीटों पर कांग्रेस को मतों के हिसाब से बढ़त मिली है, उन सीटों पर पार्टी को जीत मिल सकती है। कांग्रेस नेता इन सीटों पर पार्टी को बढ़त के रूप में देख रहे हैं। यह सीटें प्रदेश के अलग-अलग इलाकों की हैं।
- मतों के अंतर के हिसाब से मुरैना लोकसभा सीट के तहत आने वाले विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस को 21,024 मतों की बढ़त मिली थी।
- इसी तरह से भिंड में 6,904 और ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र में 23,250 मतों की बढ़त मिली थी।
- कांग्रेस ने इन तीनों सीटों पर नए चेहरे दिए हैं।
- इसी तरह छिंदवाड़ा में 96,646 और मंडला लोकसभा क्षेत्र में 16,082 मतों से कांग्रेस आगे रही थी।
कांग्रेस नेताओं का बीजेपी में आने का असर भी पड़ेगा
छिंदवाड़ा में कांग्रेस ने सभी सात विधानसभा सीटें जीती थीं। हालांकि, अमरवाड़ा से विधायक कमलेश शाह विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर बीजेपी की सदस्यता ले चुके हैं। इसके अलावा कई अन्य जनप्रतिनिधि भी बीजेपी में आ चुके हैं। इसका असर पड़ना तय माना जा रहा है। यही वजह है कि इस बार कमलनाथ को बेटे नकुल के लिए कमलनाथ को परिवार के साथ अधिक मेहनत करनी पड़ रही है। मंडला में बीजेपी ने आठ में से पांच सीटें और खरगोन में तीन सीटें ही जीतीं। यहां कांग्रेस ने पांच विधानसभा सीटें जीती थीं। बालाघाट में बीजेपी और कांग्रेस बराबरी पर रहीं। यहां दोनों ने चार-चार विधानसभा क्षेत्रों में जीत हासिल की।
विधानसभा में बढ़त वाली 24 सीटों पर भी बीजेपी कसर नहीं रख रही
कांग्रेस को जहां-जहां फायदा मिला, उन सीटों पर अपनी जीत को तय मानकर, कांग्रेस फिर कंफर्ट जोन में जा चुकी है, जबकि बीजेपी उल्टी दिशा में चल रही है। जब बीजेपी की जीत बेहद आसान नजर आ रही है। तब भी पार्टी कांग्रेस को मिली बढ़त को लेकर बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में बेहद गंभीरता से लिया है। यही वजह है बीजेपी इन सीटों पर खास फोकस कर रही है। यही नहीं बीजेपी उन 24 सीटों पर भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है जिन पर उसे विधानसभा चुनाव में बढ़त मिली थी। कांग्रेस ने बहुत उम्मीदों के साथ नए चेहरों को प्रदेश की कमान सौंपी है। वैसे तो जीतू पटवारी फायर ब्रांड नेता हैं, लेकिन अब तक चुनावी आग उनके भीतर सुलगती नजर नहीं आ रही। उल्टे जीत को तय मानने वाले यकीन के साथ चुनावी आग के बचे खुचे कोयले भी ठंडे पड़ते नजर आ रहे हैं। खैर पटवारीजी सहित कांग्रेस के बाकी नेता भी इसी फेक्ट को सही मान चुके हैं तो उनकी आंखे खोलने के लिए कुछ पुराने लोकसभा चुनाव के नतीजे देखने होंगे। चलिए उन पर भी एक नजर डाल ही लेते हैं।
बात शुरू करते हैं 1996 के लोकसभा चुनाव से...
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हो सकता है पिछले कुछ लोकसभा चुनाव के आंकड़े आपको मुंह जुबानी याद हों। इसलिए हम थोड़ी पुरानी बात करते हैं। उस समय की बात करते हैं जब मप्र और छग एक हुआ करते थे और प्रदेश में कुल 40 लोकसभा सीटें थीं। बात शुरू करते हैं 1996 के लोकसभा चुनाव से। मैं 1996 को इसलिए चुन रहा हूं। क्योंकि इस समय में प्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार थी। यानी कि कांग्रेस की सरकार थी। हां, एक बात और याद आई। जब 1984 के लोकसभा चुनाव हुए तब कांग्रेस ने प्रदेश की सारी चालीस की चालीस लोकसभा सीटें जीती थीं। इसके बाद कांग्रेस के हाथ से सीटें धूल की तरह फिसलती चली गईं।
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अब सीधे 1996 पर आते हैं। वैसे इस साल लोकसभा में भी थोड़ी अस्थिरता बनी हुई थी। प्रधानमंत्री बदल रहे थे, वो अलग इतिहास है। उस पर जाएंगे तो मुद्दा भटक जाएगा इसलिए प्रदेश की ही बात करते हैं। इस साल बीजेपी के खाते में आईं थी 27 सीटें, कांग्रेस को मिली थी महज 8 सीटें। दो सीटें बसपा ले गई थीं। बाकी सीटें अन्य के पास थीं। इसके बाद 1998 में फिर चुनाव हुए। केंद्र में अटल जी की सरकार बनी। तब बीजेपी ने जीती थीं 30 सीटें और कांग्रेस को मिली थीं बस 11 सीटें। 1999 में फिर चुनाव हुए। शायद कांग्रेस की थोड़ी नींद उड़ी, थोड़ी मेहनत की और पार्टी ने एक सीट की बढ़त ले ली। इस चुनाव में बीजेपी को मिली थीं 29 सीटें और कांग्रेस को 11 सीटें मिलीं।
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इसके बाद 2000 में प्रदेश का विभाजन हुआ और बची रह गईं सिर्फ 29 सीटें। इसके तीन साल बात सत्ता परिवर्तन हुआ और तब से आज तक बीजेपी ही प्रदेश में काबिज है। इसके बाद कांग्रेस ने सिर्फ 2009 के लोकसभा चुनाव में दम मारा है और 12 सीटें हासिल की हैं। बाकी चुनाव में कभी चार, कभी दो, कभी एक सीट ही हासिल कर सकी है। इस बार कहीं ये आंकड़ा जीरो पर आकर न टिक जाए। इसका भी डर है। इसके बाद भी खुशफहमी है तो उसे क्या कहा जा सकता है। इस खुशफहमी से बाहर पहले तो खुद जीतू पटवारी को निकलना होगा और फिर अपने कार्यकर्ताओं को जगाना होगा। तब जाकर सीटों की संख्या बढ़ाना तो दूर एक सीट बचाने की कुछ गुंजाइश नजर आएगी।