कांग्रेस नेता लक्ष्मण सिंह ने बताई राजनीति की सच्चाई...आपने पढ़ा क्या उनका आर्टिकल ?

क्यों भ्रष्ट नेताओं को चुनाव में उम्मीदवार बनाया जाता है? ध्वस्त हो सकता है 'जनतंत्र का स्टॉक मार्केट' यह शीर्षक सुनने अथवा पढ़ने में अजीब लगता है, लेकिन यह सत्य है।

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Ravi Kant Dixit
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भोपाल.

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के भाई व पूर्व सांसद, पूर्व विधायक लक्ष्मण सिंह ने आर्टिकल के जरिए राजनीति की सच्चाई बयां की है। उनके बिंदुवार सब पहलुओं की ओर ध्यान खींचा है। इस आर्टिकल की खूब चर्चा है। 

पढ़िए क्या लिखा लक्ष्मण सिंह ने...

शीर्षक: क्यों भ्रष्ट नेताओं को चुनाव में उम्मीदवार बनाया जाता है? ध्वस्त हो सकता है 'जनतंत्र का स्टॉक मार्केट'

यह शीर्षक सुनने अथवा पढ़ने में अजीब लगता है, लेकिन यह सत्य है। सरकारी योजनाओं का अथवा उनके संचालन में जो व्यावसायिक दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है, उससे हम अनभिज्ञ नहीं हैं, परन्तु हम आवाज नहीं उठाते। इस व्यवस्था के खिलाफ बहुत कम लोग हैं, जो खड़े होते है, परन्तु उनका मनोबल भी गिरा दिया जाता है, उन्हें धमकी दी जाती है, उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। जनता मूकदर्शक बनी रहती है। अगर हम सब एक साथ आवाज उठाएं तो यह 'जनतंत्र का स्टॉक मार्केट' ध्वस्त किया जा सकता है।

आइए हम सब इस शीर्षक का विश्लेषण बिन्दुवार करते हैं

  1. आप हम सब जानते हैं कि शासकीय कर्मचारी, अधिकारियों को अधिकतर सत्ता पक्ष के नेताओं को प्रतिमाह या उनसे मांगने पर राशि देना पड़ती है। यह राशि कभी-कभी लाखों में भी हो जाती है।
  2. हाल ही में एक साधारण से कलेक्ट्रेट के कर्मचारी ने एक कथा करवाई। कथा करने एक पहुंचे हुए संत पधारे, जिसमें लगभग 1 से 1.5 करोड़ रुपए खर्च किए गए, इसमें चंदा भी लिया होगा, जो भ्रष्टाचार की परिधि में नहीं आता है, परंतु जजमान ने भी लाखों में तो खर्च किया ही होगा। यह राशि कहां से आई? हमारा आयकर विभाग इसे क्यों नहीं देख रहा है?
  3. ग्रामीण विकास विभाग, बिजली, पीडब्ल्यूडी, नगर पालिका और अन्य ऐसे विभाग हैं, जिनमें एक तय राशि ऊपर देने के बाद ही पद स्थापना होती है। वही हमारा 'जनतंत्र का स्टॉक मार्केट' है, जिस प्रकार शेयर्स की कीमत ऊपर-नीचे होती है, इन पदस्थापनाओं की दर भी उतरती, चढ़ती रहती है। 
  4. हमारे देश में दो स्वतंत्रता संग्राम लड़े गए। एक 1857 और दूसरा 1947 में, इनमें देश की जनता ने और नेताओं ने बलिदान दिया, जिसके पश्चात हमने देश को लगभग 400 वर्ष की अंग्रेजों एवं मुगलों की गुलामी के बाद आजाद कराया। 1947 की आजादी की लड़ाई समूचे विश्व में एक उदहारण बनी, क्योंकि यह लड़ाई 'सत्य' और 'अहिंसा' पर लड़ी गई थी। आजादी के बाद हमें हमारा संविधान मिला, जहां सब को अधिकार मिले, ऊंच-नीच, जाति की दीवारें टूटीं, परंतु यह दीवार पूरी नहीं टूटी है। अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में कई उदाहरण देखने को मिलते हैं, जहां दलित और आदिवासी व आर्थिक रूप से कमजोर लोगों पर जुल्म और अत्याचार ढाए जाते हैं। हाल ही में गुना में एक आदिवासी महिला की जमीन पर जबरदस्ती कब्जा किया जा रहा था, जब वह रोकने गई तो उसे जला दिया गया। उसका वीडियो भी बनाया गया, कुछ दिन के उपचार के बाद उसकी मृत्यु भी हो गई। 
  5. वर्ष 1952 में देश में पहली बार आम चुनाव हुए, कहीं भी हिंसा की घटना नहीं हुई। जब प्रथम आम चुनाव में हिंसा नहीं हुई, तो आज क्यों इतनी हिंसा बढ़ी है? यह सोचने की बात है और इस पर हर स्तर पर बहस होना जरूरी है।

लक्ष्मण सिंह आगे लिखते हैं...

इन सबके पीछे मुख्य कारण है, राजनीति में शनैः शनैः कालेधन का प्रवेश और वोटरों को लुभाने वादे करना। चुनाव के बाद अभद्रता और अधिकांश वादों की अनदेखी करना। मैं जब 1971 में दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययनरत था, तब इन विषयों को लेकर सेमिनार अथवा डिबेट भी होती थी, जिनमें हम सब हिस्सा लेते थे और मेरे मित्र और सहपाठी जो एक अच्छे वक्ता भी हैं, सांसद शशि थरूर का उद्धबोधन सबके लिए प्रेरणा दायक होता था। आज इस तरह की चर्चा, डिबेट, सेमिनार कम ही देखने को मिलते हैं। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।

आज तो डिजिटल दुनिया है। फिर भ्रष्टाचार पर खुलकर बहस क्यों नहीं होती? क्यों भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं को चुनाव में उम्मीदवार बनाया जाता है? यह सारे सवाल आज नहीं तो कल का युवा जरूर उठाएगा।

आप कह सकते हैं कि जब लेखक पूर्व विधायक है तो कुछ करते क्यों नहीं है? सत्य है, चूंकि विधानसभा का सत्र बहुत कम समय के लिए बुलाया जाता है और कोरोना के कारण तो कुछ वर्षों से कम बैठकें हो रही थीं, इसलिए इन विषयों पर चर्चा नहीं हो रही थी।

आईए, हम सब मिलकर एक ऐसा भारत बनाएं, जहां कम से कम जनतंत्र का स्टॉक मार्केट तो न चले। चुनाव खर्च पर नियंत्रण के लिए चुनाव आयोग है। हर चुनाव के खर्च की सीमा तय की गई है, परंतु क्या हर चुनाव उस निर्धारित सीमा में होता है, शायद नहीं। आज सांसद का चुनाव 20 करोड़, विधायक का 2 से 5 करोड़, जिला पंचायत का 2 करोड़, पंचायतों का लाखों में होता है। यह बात जनता कहती है और चुनाव में हम देखते भी हैं, परंतु चुनाव आयोग नहीं देख पाता। यही विडम्बना है। यह रेट स्टॉक मार्केट की तरह घटता-बढ़ता रहता है। इसे हम सब को मिलकर रोकना है।

जय हिन्द, जय भारत।

(ये लेखक के अपने विचार हैं...।)

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