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अब से ठीक दो महीने बाद 5 जून को दुनियाभर के नेता, अभिनेता और तथाकथित चिंतक पर्यावरण दिवस पर सोशल मीडिया की दीवारों को हरे रंग में रंग देंगे। कोई पौधा लगाते दिखेगा, कोई फोटो खिंचवाकर पोस्ट करेगा कि पृथ्वी हमारी मां है, इसकी रक्षा करें। लेकिन हकीकत ये है कि जैसे ही मोबाइल का कैमरा बंद होता है, वैसे ही पर्यावरण की फिक्र भी लॉक हो जाती है। ...और जंगल? वे कट रहे हैं...खुलेआम, बेरहमी से और सब तमाशबीन बने हुए हैं। जंगलों में शेर और बाघ तो बस नाम के राजा बचे हैं, असली हुकम तो सरकारों, नेताओं, अफसरों का चल रहा है और प्रकृति के लिए ये किसी हिटलर से कम नहीं हैं।
अब ताजा जंगल कांड तेलंगाना का है। यहां विकास के नाम पर हरियाली का जनाजा निकाला जा रहा है। हैदराबाद की सेंट्रल यूनिवर्सिटी से सटे 400 एकड़ घने जंगल पर तेलंगाना की रेवंत रेड्डी सरकार ने विकास के नाम पर कुल्हाड़ी चला दी है। रात के अंधेरे में झीलों, चट्टानों और मोरों के घर उजाड़े जा रहे हैं। अब यहां सवाल यह है कि विकास चाहिए, लेकिन उस विकास की कीमत कितनी? लाखों जीव-जंतुओं का बसेरा छीनकर आप क्या तरक्की का ताज पहनेंगे?
इस मामले में हैदराबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को बीच में कूदना पड़ा, ताकि पेड़ों की हत्या रुक सके। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, तेलंगाना सरकार का रवैया बेहद गंभीर चिंता का विषय है। मगर सवाल ये भी है कि यदि कोर्ट न होता तो क्या ये जंगल बच पाते?
आंध्रप्रदेश का महाबंगला: जब पहाड़ कटे तो बंगला खड़ा हुआ
विशाखापट्टनम की रुशिकोंडा हिल, जिसे कभी प्राकृतिक सौंदर्य की मिसाल माना जाता था, वहां अब जगन मोहन रेड्डी का महाबंगला खड़ा है। एक ऐसा बंगला, जो पहाड़ को काटकर समुद्र के भाल पर बनाया गया है। सत्ता का घमंड और विकास की लूट का इससे बड़ा प्रतीक और क्या होगा?
मध्यप्रदेश: हर साल घट रहे जंगल
सरकार दावा करती है, हम हर साल 10 से 15 करोड़ पौधे लगा रहे हैं, लेकिन फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट कहती है कि 2021 की तुलना में मध्यप्रदेश के जंगल 371.54 वर्ग किलोमीटर घट गए हैं। तो सवाल ये है कि पौधे कहां गए? क्या वे सिर्फ प्रेस रिलील और ट्विटर थ्रेड में लगते हैं?
MP के जंगलों की हकीकत
- बहुत घना जंगल: 7,021.31 वर्ग किमी
- सामान्य घना जंगल: 33,508.64 वर्ग किमी
- खुला जंगल: 36,543.49 वर्ग किमी
- कुल वन क्षेत्र: 77,073.44 वर्ग किमी
- लेकिन ये क्षेत्र हर साल सिमट रहा है, खत्म हो रहा है, दम तोड़ रहा है।
हसदेव अरण्य: मध्य भारत के फेफड़े पर चला रहे आरी
छत्तीसगढ़ के हसदेव जंगल को जानबूझकर कोयले की कब्रगाह बना दिया गया है। जैव विविधता से भरे इस जंगल में हजारों पेड़ काटे जा चुके हैं और यह काम पुलिस की निगरानी में हुआ है। अलग अलग मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो हसदेव में अब तक पहले चरण में 762 हेक्टेयर जंगल उजड़ा। सितंबर 2022 में 8 हजार पेड़ कटे। दिसंबर 2023 में 12 हजार से ज्यादा पेड़ उखाड़े गए। मार्च 2024 में 11 हजार और पेड़ साफ किए गए। सवाल ये है कि हसदेव जंगल को बचाने की लड़ाई आदिवासी लड़ रहे हैं, पर्यावरण कार्यकर्ता लड़ रहे हैं, लेकिन क्या बाकी देश को इस पर गुस्सा नहीं आता? क्या इन पेड़ों की चीखें सिर्फ जंगल में गूंजेंगी और बाकी देश कानों में ईयरफोन लगाकर बैठा रहेगा?
भारत की वन नीति क्या है?
भारत की वन नीति कहती है कि 33 फीसदी भूभाग पर जंगल होने चाहिए, पर FSI की रिपोर्ट दावा करती है कि अभी ये आंकड़ा 25.17 फीसदी तक ही पहुंचा है। इसमें भी केवल 2 फीसदी की बढ़ोतरी तीन दशकों में हुई है। अब आप खुद सोचिए कि यदि इतने धीमे कदमों से हम चलेंगे तो आने वाली पीढ़ी को जंगलों की कहानियां सिर्फ किताबों में मिलेंगी।
कितना कुछ तो देते हैं हमें जंगल
दूसरे शब्दों में कहें तो पर्यावरण का अर्थ सिर्फ ग्रीन डे कभी नहीं हो सकता। यह जीवन रेखा हैं। जंगल सिर्फ पिकनिक स्पॉट नहीं, ये जीवनदायिनी इकाइयां हैं... क्योंकि 85 फीसदी शहरों को पीने का पानी जंगलों की वजह से ही मिल पाता है। लाखों ग्रामीण परिवारों को भोजन, दवा और ईंधन जंगलों से मिलता है। जैव विविधता, जलवायु नियंत्रण और मिट्टी की उर्वरता इन्हीं से है, पर क्या आपने कभी सुना है कि किसी नेता, मंत्री, अफसर ने जंगल कटने की वजह से इस्तीफा दिया हो? नहीं। क्योंकि सत्ता की भूख, जंगलों की शांति को निगल रही है।
यह एक अलार्म है...
हमारी यह पड़ताल कोई रिपोर्ट नहीं है। यह एक अलार्म है। एक चेतावनी है कि अगर हम अब भी नहीं चेते तो अगली बार पौधारोपण की फोटो खिंचवाने के लिए कैमरे के पीछे हरियाली नहीं मिलेगी। पेड़ होंगे ही नहीं। मोर अलापेंगे नहीं। नदियां सूख जाएंगी। हवाओं में जहर होगा और तब, नेताओं के भाषण और सरकारों के दावे हमारे फेफड़ों को ऑक्सीजन नहीं दे पाएंगे। तो अब कहिए, आपको विकास चाहिए या विनाश?
अब जंगल बचाने का समय है।
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