अनूप शाह @ उज्जैन
बीते साल 13 दिसंबर को जब डॉ. यादव ने प्रदेश के 19 वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी, तब से आज तक के लगभग नौ माह में बहुत कुछ गुजर और बहुत कुछ बदल गया। अपनी हिंदुत्ववादी छवि, प्रशासनिक सख्ती, संगठन व सरकार में वरिष्ठ साथियों से समन्वय, निर्णयों में नवाचार के प्रयास और शिक्षा-संस्कृति के क्षेत्रों में अपने इरादें जाहिर कर डॉ. यादव ने इन नौ माहों में इतना तो स्पष्ट कर दिया है कि वे प्रदेश में लंबी पारी खेलने के लिए कटिबद्ध है।
राजनीति के कुशल खिलाड़ी और कर्मठ तो हैं ही भाग्य के भी धनी हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण लोकसभा चुनाव में प्रदेश की सभी 29 सीटों पर भाजपा का परचम लहराना, जिसे देश देख चुका है। डॉ. यादव की सरकार के 'गर्भकाल' यानी नौ माह के कार्यकाल को इन बिंदुओं के आधार पर समझा जा सकता है।
- गर्भकाल …
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हिंदुत्व
मोहन यादव ने शपथ लेने के बाद ही हिंदुत्व के मामले में दो बड़े निर्णय लिए गए थे- एक खुले में मांस की बिक्री पर रोक, दूसरा लाउडस्पीकर पर नियंत्रण। दोनों ही निर्णय संकेत देने के लिए स्पष्ट थे कि सरकार आगामी 5 साल का सफर कैसे तय करने वाली है। अभी भी नारा यही गूंजता है कि ' सबका साथ सबका विकास' पर इस गूंज में एक धुन हिंदुत्व की सुनी जा सकती है। यह अलग बात है कि इसके अमल पर अभी बहुत से 'सवाल' है।
विकास का नया-विजन
डॉ.मोहन यादव के कार्यकाल के बारे में एक बात निष्पक्ष रूप से जरूर कही जा सकती है कि उन्होंने अपने सारे निर्णयों में पिछली सरकार की 'छाप' से इतर बहुत कुछ नया करने का प्रयास किया। इसकी एक बानगी 19 साल से बंद राज्य परिवहन निगम को फिर से शुरू करने का फैसला है। सड़कों पर फिर से रोडवेज की बसें दौड़ने लगेंगी तो निजी बस ऑपरेटर की मनमानी कुछ तो अंकुश लगेगा ही।
कई वर्षों से प्रदेशभर के थानों के बीच सीमांकन को लेकर अक्सर विवाद होते रहे हैं। सरकार ने आते ही नए सिरे से थानों का सीमांकन करा दिया। इसके जरिए जनता की रोजमर्रा आने वाली तकलीफ को दूर करने का प्रयास किया गया। इसी तर्ज पर संभाग से लेकर ब्लॉक स्तर की सीमाएं फिर से खींची जा रही हैं। प्रदेश के 55 जिलों में पीएम एक्सीलेंस कॉलेज के साथ मध्य प्रदेश उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नई सोच के साथ आगे कदम बढ़ा चुका है।
संस्कृति- नव विचार
उज्जैन में डॉ. मोहन यादव के राजनीतिक सफर को बहुत बारीकी से देखने व समझने वालों की एक जमात है, जिन्होंने उनके छात्र राजनीति/ संगठन क्षमता और फिर उच्च शिक्षा मंत्री के कार्यकाल तक को देखा है। यह लोग बिना किंतु-परंतु लगाए स्वीकार कर सकते हैं कि डॉ. यादव का अपना 'विजन' है। समय-समय पर डॉ.यादव ने इसको सिद्ध भी किया। इसका एक उदाहरण राजा विक्रम के जीवन पर आधारित विक्रमोत्सव है। प्रदेश के सबसे लंबे उत्सव में इसकी गिनती होती है। यह उज्जैन के इतिहास और संस्कृति के संवाहक का रूप ले चुका है।
प्रशासनिक सख्ती
गुना का बस हादसा या हरदा की पटाखा फैक्ट्री में धमाका। वह सभी बारी-बारी से नाप दिए गए, जो इसके लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार थे। पहली बार गुना हादसे में परिवहन आयुक्त की कुर्सी भी खिसक गई। सचिवालय से लेकर मंत्रालय तक की प्रशासनिक सर्जरी में ज्यादा वक्त नहीं लगा। अब कम से कम यह जुमला सुनाई नहीं देता सरकार अफसर के भरोसे या इशारों पर चल रही है।
अब उज्जैन में धर्मस्व ...
नौ माह के कार्यकाल में कोई एक दर्जन निर्णय तो ऐसे कहे जा सकते हैं जो डॉ.मोहन यादव की उपलब्धियां का हिस्सा बन सकते हैं। सिंहस्थ जैसा सनातनी महापर्व - 2028 में आने वाला है। सरकार के सामने इसकी चुनौतियां भी कम नहीं हैं। बशर्ते समय पर सरकार चौकन्नी हो जाए। मोहन सरकार के सिंहस्थ को लेकर सजग होने का प्रमाण अब तक के फैसलों में नजर आता दिख रहा हैं। कुंभ के लिए सरकार और प्रशासन एक रोडमैप और हाईटेक प्लान बनाने में जुट गया है। इसी कड़ी में लिया गया एक बड़ा निर्णय धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व विभाग का मुख्यालय भोपाल की जगह अब उज्जैन में स्थापित किया जाना है।
इन्वेस्टर सबमिट के साथ चुनौती रोजगार की...
इन्वेस्टर सबमिट का सिलसिला उज्जैन से शुरू होकर जबलपुर, ग्वालियर जैसे शहरों में औद्योगिक संभावनाओं को तलाश चुका है। इससे पूर्व तक यह सिर्फ इंदौर तक की सीमित होकर रह जाता था। अब उन शहरों में औद्योगिक विकास की सुगबुगाहट होने लगी, जहां की जमीन अब तक उद्योग विहीन थी। इसी दिशा में मुख्यमंत्री बेंगलुरु-मुंबई जैसे शहरों में प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिए उद्योगपतियों से रूबरू हो चुके हैं। मुख्यमंत्री के इन सभी प्रयासों से बेरोजगारी का ग्राफ कितना गिरता है। इसकी समीक्षा का वक्त जरूर आएगा।
जनता सब जानती है
उद्देश्य सिर्फ उपलब्धियां का बखान करने का नहीं है। अब तक सरकार कितना ठीक-ठीक कर पाई है या नहीं। प्रदेश का विकास नए विजन और संकल्प के साथ कितनी ऊंचाइयों पर पहुंचा है, यह सब जनता की पैनी नजर से बच नहीं सकता। समीक्षा के लिए 4 साल 3 माह का समय है। जनता सब जानती है, वक्त आने पर सबक सीखा ही देती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इस लेख में उनके निजी विचार हैं।)
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