पंकज शुक्ला @ भोपाल
एक तरह से उल्टी गिनती शुरू हो गई है... जल्द ही मोहन सरकार को एक साल पूरा हो जाएगा। आमतौर पर हर सरकार एक वर्ष पर अपनी उपलब्धियों के साथ जनता के बीच जाती है और उनका बखान करती है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के पास अभी मौका है कि साल भर के कामकाज का लेखाजोखा तैयार करने के पहले पिछले कामकाज पर एक नजर डालें और अगले तीन माह में फर्राटेदार मगर मजबूत कदम उठाकर वर्षभर की उपलब्धियों का आकर्षक गुलदस्ता बना लें। अभी का दृश्य कुछ यूं है कि मोहन की मनमोहनी मुरली तो बज रही है, लेकिन सुशासन के सुदर्शन का इंतजार है।
गर्भकाल …मोहन यादव सरकार के नौ माह और आपका आंकलन…
कैसी रही सरकार की दशा और दिशा…
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वर्ष 2023 के दिसंबर महीने का वक्त था। बीजेपी एक बार फिर मध्य प्रदेश में भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौट आई थी। तमाम चुनावी उतार-चढ़ावों के बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के हिस्से में एक सफलता और दर्ज हुई, क्योंकि बीजेपी की ऐतिहासिक जीत का श्रेय अंतत: शिवराज सिंह चौहान की बहुप्रशंसित लाड़ली बहना योजना के खाते में ही गया। इस योजना के कारण शिवराज सिंह चौहान ने सत्ता विरोधी सभी लहरों को धो दिया था। केंद्रीय संगठन के बर्ताव से पहले ही समझा जा चुका था कि बीजेपी सत्ता में आई तो भी शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे। हुआ भी ऐसा ही। बेहद अप्रत्याशित रूप से शिवराज सरकार में उच्च शिक्षा मंत्री रहे उज्जैन के डॉ. मोहन यादव नए मुख्यमंत्री चुन लिए गए।
डॉ. मोहन यादव ही क्यों, कोई और भी नेता मुख्यमंत्री बनाया जाता तो उसके सामने अपने पूर्ववर्ती सीएम शिवराज सिंह चौहान की छवि से सामना करना पड़ता। पांव-पांव वाले भैया से अखिल प्रदेश के पहले मामा और फिर भईया बने शिवराज सिंह चौहान ने लोकप्रियता के मामले में मानो अपने से पहले के सभी सीएम को पीछे छोड़ दिया था। शिवराज ने लोकप्रियता, जनता के बीच पहुंच और सादगीपूर्ण व्यवहार की ऐसी रेखा खींची थी कि किसी भी मुख्यमंत्री के लिए खुद को साबित करना सबसे बड़ी चुनौती थी। डॉ. मोहन यादव जब मुख्यमंत्री के रूप में चुने गए तो आम जनता तो ठीक स्वयं बीजेपी के नेता भी भौंचक थे। दबे छिपे नहीं, खुले स्वर में यह भय जाहिर किया गया कि क्या डॉ. मोहन यादव वाकई में शिवराज के आभा मंडल को तोड़ कर स्वयं को सिद्ध कर पाएंगे।
हम इसी भय के आसपास अब सरकार के काम की पड़ताल करते हैं। डॉ. मोहन यादव के लिए यह जरूरी था कि वे शिवराज की चमक के मुकाबले की अपनी छवि गढ़ें। सो, उन्होंने कुछ लोकप्रिय और थोड़े सख्त फैसले लिए। मुख्यमंत्री की शपथ लेने के तुरंत बाद डॉ. मोहन यादव का पहला फैसला मध्यप्रदेश में धार्मिक स्थानों पर जोर से लाउड स्पीकर बजाने और खुले में मांस और अंडे की बिक्री पर सख्ती से रोक का लिया। इस फैसले का व्यापक स्वागत हुआ। प्रशासनिक सख्ती दिखाते हुए उन्होंने शिवराज सरकार में ताकतवर रहे अफसरों को सबसे पहले बदल कर लूप लाइन में भेज दिया। प्रदेश में हो रही घटनाओं पर दोषी अफसरों पर सख्त कार्रवाई कही नहीं, बल्कि की गई। गुना बस हादसे में 13 लोगों की मौत के बाद सीएम मोहन यादव ने आमूलचूल बदलाव कर सख्त प्रशासक का संदेश दिया।
इन कदमों से मोहन सरकार की छवि बननी शुरू हुई। तब भी माना गया कि डॉ. मोहन यादव का राजनीतिक कद फिर भी छोटा है। ऐसे में लोकप्रियता के लिए कुछ और बड़े कदमों की आवश्यकता थी। लोकसभा चुनाव के बाद सरकार के स्थायित्व की दृष्टि से मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की परिवीक्षा अवधि खत्म हो गई। ये कयास भी खत्म हो गए हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद नेतृत्व परिवर्तन हो सकता है। इस अवधि में कामकाज समझ कर मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव अपने रंग में आ गए। अब जरूरत थी कि वे अपनी लाइन लंबी करें। ऐसे में शिवराज सिंह चौहान के टेस्टेड फॉर्मूले पर ही मोहन सरकार चल पड़ी। रक्षाबंधन तथा सावन उत्सव के जरिए डॉ. मोहन यादव हर क्षेत्र में पहुंचे और महिलाओं के नए भैया के रूप में पहचाने जाने लगे। हर आयोजन में बड़ी घोषणाएं, गीत गाना, मंच से अफसरों को हिदायत शिवराज शैली की ही याद दिलाती हैं।
सावन सोमवार पर महाकाल सवारी में डमरू वादन का रिकार्ड हो या इंवेस्टर्स समिट का बदला हुआ क्षेत्रीय रूप; मोहन सरकार भी ‘इवेंट’ की राह पर चल पड़ी। शिवराज सरकार जहां ‘राम वन गमन पथ’ को लेकर प्रतिबद्ध थी तो सीएम मोहन यादव ने कृष्ण को चुना। वे जब पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष थे, तब भी सांदिपनी आश्रम तथा कृष्ण को लेकर योजनाएं लेकर आए थे। अब जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने कृष्ण पाथेय, बरसाना ग्राम जैसी योजनओं को प्रस्तुत कर दिया। वे यादव हैं और उनका उपयोग पार्टी ने उत्तर प्रदेश, बिहार में यादव मतदाताओं को लुभाने के लिए किया है। इस लिहाज से भी कृष्ण से जुड़ी योजनाओं को बनाना उनके लिए मुफीद है।
अपने राजनीतिक कद को बढ़ाने के लिए उन्होंने कट्टर हिंदुत्व वाली छवि गढ़ी। उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ के साथ एमपी के सीएम मोहन यादव के बयान समान रूप से सुर्खियां बने। इस तरह मुख्यमंत्री मोहन यादव ने लोकप्रिय तथा लुभावनी सरकार के मानदंडों पर अपनी वजनदार उपस्थिति दर्ज करवाई है। लेकिन इसी समय में वे अपने प्रशासनिक निर्णयों के कारण विपक्ष के निशाने पर भी आए हैं। प्रशासनिक जमावट करना किसी भी सरकार का अधिकार है, लेकिन सवाल उठे कि क्या मोहन सरकार में बिना जांच-पड़ताल, अध्ययन और होम वर्क के प्रशासनिक कामकाज हो रहा है? या सरकार अधिकारियों के बीच जारी वर्चस्व के संघर्ष के जाल में उलझ गई है? अफसरों को पहले लूप लाइन में भेजना फिर महत्वपूर्ण पद देने जैसे निर्णय बदले की कार्रवाई प्रतीत हुए। वरिष्ठ आईएएस संजय दुबे को छोटे विभाग में भेजा गया। फिर सरकार ने अपना यह निर्णय 10 दिन बाद ही बदल दिया। इस बार आईएएस संजय दुबे अधिक ताकतवर हो कर लौट आए। प्रमुख सचिव वित्त बनाए गए अमित राठौर को 24 घंटे में ही हटा दिया गया। उनकी प्रमुख सचिव सामान्य प्रशासन रहे मनीष रस्तोगी को यह जिम्मा सौंपा गया है। शिवराज सरकार में सबसे पावरफुल रहे मनीष रस्तोगी को पूरी वित्तीय व्यवस्था की कमान दे दी गई।
अफसरों की जमावट कुछ इस तरह की गई कि मंत्री स्वयं को स्वतंत्र महसूस न करें। ऐसे कई मौके आए जब लगा कि सत्ता और संगठन तथा स्वयं मंत्रियों के बीच तालमेल नहीं है। जैसे, प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा के एक पत्र ने सरकार की पोल खोल दी है। हुआ यूं कि पन्ना में महर्षि अगस्त्य की तपोस्थली कही जाने वाली सिद्धनाथ तीर्थ स्थल में राम पथ गमन मार्ग और पुलिया पहली बारिश में ही क्षतिग्रस्त हो गई। इसे भ्रष्टाचार का असर मानते हुए क्षेत्रीय सांसद और भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष विष्णु शर्मा ने पन्ना कलेक्टर को पत्र लिख दिया। सवाल तो उठना ही था कि जब प्रदेश अध्यक्ष के क्षेत्र में राम वन गमन पथ जैसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट में यूं भ्रष्टाचार दिखाई दे रहा है तो प्रदेश के हाल समझे जा सकते हैं। बात इतनी ही नहीं थी। इसके पहले पर्यटन मंत्री धर्मेंद्र लोधी ने लोक निर्माण मंत्री राकेश सिंह को पत्र लिख कर खराब सड़क सुधारने का आग्रह किया था। सतना के सांसद गणेश सिंह ने भी पत्र लिख कर स्मार्ट सिटी के कार्यों की गुणवत्ता पर सवाल उठाए थे।
यह मोहन सरकार की एक तस्वीर है। मुख्यमंत्री तो हर तरह से सफल सिद्ध हो रहे हैं, एक तरफ जनता के बीच प्रिय नेता तो दूसरी तरफ कट्टर हिंदुत्व की छवि वाले मुखिया। मगर उनकी राजनीतिक और प्रशासनिक टीम में सबकुछ ठीक प्रतीत नहीं होता है। सुशासन के कई पैमानों पर सरकार निचले पायदान पर है। बहरहाल, अभी एक वर्ष भी नहीं हुआ है। मोहन सरकार के पास काफी समय है। उम्मीद की जाती है कि वह छोटे असर रचने वाले गिमिक करने की जगह स्थायी प्रभाव छोड़ने वाले निर्णयों वाली सरकार बनने की ओर कदम बढ़ाएगी। आखिर उन्हें शिव ‘राज’ की छवि के बरअक्स मोहन रूप गढ़ना है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इस लेख में उनके निजी विचार हैं।
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