अवधेश बजाज @ भोपाल
यह कहना निश्चित ही अतिशयोक्ति होगी कि मध्यप्रदेश में सरकार के स्तर पर वह असरकारी व्यवस्था दिख रही है, जो न भूतो, न भविष्यति वाला विषय है, लेकिन यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि जैसी व्यवस्था दिख रही है, वह काफी हद तक अभूतपूर्व और कहीं-कहीं अकल्पनीय वाला मामला भी है। मुख्यमंत्री के रूप में डॉ. मोहन यादव ने खरामा-खरामा रूप में अनेक ऐसे खास कदम सफलतापूर्वक उठाए हैं, जो अपने आप में नयापन समेटे हुए हैं। इन परिवर्तनों के बदलाव की वर्तनी को कुछ उदाहरणों के माध्यम से सुभीते के साथ समझा जा सकता है। मामला स्वाभाविक रूप से कुछ तुलनात्मक अध्ययन वाला भी है। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के लिए कहा गया कि उनका चश्मा ऊपर-नीचे होते ही अफसरशाही में उथल पुथल मच जाती थी। ऐसा काफी हद तक सच भी रहा, लेकिन यह भी सच था कि ये चश्मा बहुधा तब ही ऊपर या नीचे होता था, जब विषय मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से जुड़ा हुआ हो।
गर्भकाल …
मोहन यादव सरकार के नौ माह और आपका आंकलन…
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इधर अफसरों पर डॉ. यादव के अंकुश की फितरत इससे अलग है। डॉ. मोहन यादव ने इस मामले से जुड़े खुद के एक भी निर्णय को अपने अनेक पूर्ववर्तियों से इतर स्वयं की मार्केटिंग का माध्यम बनाने का काम नहीं किया। उन्होंने बहुत कठोर, किंतु सहज तरीके से यह सन्देश प्रसारित कर दिया है कि अफसर अब सरकार के मुताबिक चलेंगे, उनके लिए सरकार को अपने मुआफिक चलाने के अवसर बीते कल की बात हो चुके हैं। दिग्विजय सिंह तो खैर अफसरों की माध्यम से चुनाव जीतने वाली ‘मैनेजमेंट थ्योरी’ के लिए कुछ यूं आसक्त हुए थे कि उन्होंने कमोबेश इस वर्ग को ही सरकार की कमान सौंप दी थी।
सिंह से अलग डॉ. यादव का नौकरशाहों के लिए ऐसा कोई रुख नजर नहीं आता है। कमलनाथ इस बात के लिए कुख्यात होने की हद तक चर्चित रहे कि उन्होंने अफसरों को ताश के पत्तों की तरह बार-बार फेंटने का ही काम किया है, मगर यादव का इस मामले में भी अलग हिसाब रहा। उन्होंने पूरी तैयारी और धैर्य के साथ अफसरों की जमावट की। उन्हें निजी छवि की बजाय परफॉर्मेंस के आधार पर जिम्मेदारियां दीं और अब सरकार इस मामले में भी गुण-दोष वाली कसौटी पर खरी दिखाई दे रही है।
जहां तक शिवराज सिंह चौहान की बात है तो यह कहा जा सकता है कि डॉ. मोहन यादव ‘कोई माई का लाल’ से लेकर ‘उलटा लटका दूंगा’ वाले दंभ से परे निर्लिप्त भाव से धीरे-धीरे लेकिन सही तरीके से आगे बढ़ रहे हैं। कुछ इस तरह कि उनका उद्देश्य प्रदेश की धरती मां का लाल बनकर पूरे उलट-पलट सिस्टम को सीधा कर देना है।
सबसे बड़ी बात यह कि डॉ. यादव के कार्यकाल में अफसरशाही अब काफी हद तक नौकरशाही के अपने मूल खोल में सिमटती नजर आने लगी है। किसी बेलगाम आला अफसर से लेकर इसी बिरादरी के बदजुबान चेहरों पर सही मायनों में नकेल कसी जा रही है। उनके कार्यकाल से पहले जो हुआ और अब जो हो रहा है, उसके बीच का महीन अंतर पूरे महान स्वरूप में सबके सामने स्पष्ट है।
आज वल्लभ भवन के गलियारों में मात्र मुख्यमंत्री ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मात्रा में सरकार का सकारात्मक असर साफ दिखता है। क्योंकि गए साल की 13 दिसंबर के बाद से राज्य ने कई ऐसे निर्णय देखे हैं, जो शासकीय तंत्र को चंद अफसरों द्वारा पहनाई गई परतंत्रता की बेड़ी को बड़ी कुशलता के साथ काट चुके हैं।
खास बात यह कि बेड़ियों के टूटने का कोई शोर नहीं है। उनकी गूंज भर मौजूद है। कहे और किए का श्रेय लेने की कोई होड़ ही नहीं है। एक खामोशी है, ‘कह रहा है शोरे-दरिया से समंदर का सुकूत, जिसमें जितना जर्फ है, उतना वो खामोश है’ वाली शैली में। डॉ. मोहन यादव की खामोशी वाला यही जर्फ वह बड़ा फर्क स्थापित करता है, जो बता रहा है कि राज्य में मुख्यमंत्री के स्तर पर स्वयं की पीठ थपथपाने वाले राग दरबारी/सरकारी की जगह प्रदेश की पीठ पर विश्वास और साहस देते हुए यहां की रग-रग में आशा का संचार करने वाले राग असरकारी का नया दौर स्थापित हो चुका है।
अमर कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने लिखा है, ना निरापद कोई नहीं है। यही बात डॉ. मोहन यादव पर भी लागू होती है। उन्हें भी अभी बहुत इम्तेहान और चुनौतियों से जूझना है। इस अवधारणा को तोड़ना है कि प्रदेश में वर्ष 2023 से पहले वाले 18 वर्ष जैसी सत्ता के प्रति आम जनता के विश्वास वाली स्थिति फिर नहीं बन सकेगी। डॉ. यादव को अपने और भी निर्णयों से यह स्थापित करना है कि वह बाय चांस की जगह राज्य के लिए सही अर्थ में ‘बाय चॉइस’ वाले मापदंड पर खरे उतर सके हैं।
व्यवस्था में पूरी तरह और स्थाई सुधार दुरूह तथा लंबी प्रक्रिया है। इतनी कठिन तथा दीर्घ अवधि वाली कि 77 साल से अधिक की वयस्क वाला मध्यप्रदेश इस बुजुर्गियत में भी कई विडंबनाओं से अब तक पूरी तरह मुक्त नहीं हो सका है। फिर भी डॉ.यादव के अब तक के कामकाज और अंदाज से यह उम्मीद बंध रही है कि प्रदेश में बदलाव की बयार यथार्थ के धरातल पर उस वसंत का उद्घाटन अवश्य करेगी, जो इससे पहले तक बहुधा खोखले वादों और दावों में ही सिमट कर रह गया। इसके लिए निश्चित ही मोहन के तरकश में कई तीर बाकी हैं और शांति के टापू के तीर पर परिवर्तन की यह इबारत साफ दिखने लगी है।
- लेखक बिच्छू डॉट काम के संपादक हैं। वे दैनिक जागरण, राज एक्सप्रेस और पीपुल्स समाचार जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में भी संपादक रहे हैं। इस लेख में उनके निजी विचार हैं।
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