दिनेश निगम ‘त्यागी’ @ भोपाल
मुख्यमंत्री बनते ही डॉ मोहन यादव ने लोगों को अपमानित करने वाले कई अफसरों को नाप दिया था। जघन्य अपराध होने पर कलेक्टर-एसी से लेकर मंत्रालय में पदस्थ पीएस तक को हटा दिया गया था। मांस-मदिरा की दुकानों के साथ धार्मिक स्थलों के ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर अंकुश का फैसला हुआ था। ऐसे कई निर्णय देख कर लगा था कि डॉ यादव कुछ अलग करेंगे और उनके नेतृत्व में प्रदेश में साफ-सुथरी व्यवस्था देखने को मिलेगी। अराजकता खत्म होगी, भ्रष्टाचार और अपराधों पर अंकुश लगेगा। लेकिन 8 माह से ज्यादा के कार्यकाल में मोहन सरकार उम्मीदों पर पूरी तरह खरी नहीं उतरी। इस कार्यकाल को मिला-जुला कह सकते हैं। न ज्यादा सफल और न ही बिल्कुल असफल। उनके सामने अब भी चुनौतियों का अंबार है। भ्रष्टाचार पर अंकुश और विकास की रफ्तार को तेज करना बड़ी चुनौतियां हैं।
गर्भकाल …
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यह सच है कि अब तक के कार्यकाल के दौरान डॉ यादव न किसी नेता के पिछलग्गू दिखाई पड़े, न ही किसी को आदर्श मान कर उसके बताए रास्ते चलते नजर आए। इसके विपरीत डॉ यादव अपनी लकीर लंबी खींचने की कोशिश करते नजर आए। ‘लाड़ली बहना योजना’ को छोड़ दें तो उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से अलग राह चुनी है। ‘लाड़लियों’ पर वे भी खजाने के साथ लाड़-दुलार लुटा रहे हैं। योजना है शिवराज द्वारा तैयार इस पूंजी को अपनी बनाना। मोहन की कोशिश है कि लाड़ली बहनें शिवराज को भूल कर उन्हें अपना भाई मानें। मुख्यमंत्री को मालूम है कि शिवराज ने इनके बीच अपनी पैठ और पहुंच बनाई है। प्रदेश की अधिकांश लाड़लियां और बच्चे शिवराज को अपना भाई-मामा मानते हैं। ये भाजपा की भी पूंजी हैं।
आखिर, इनके समर्थन की बदौलत ही भाजपा ने पहले विधानसभा और इसके बाद लोकसभा के चुनाव में बंपर जीत हासिल की है। मोहन की कोशिश है कि लाड़लियां और भांजे-भांजियां अब भाजपा के साथ उन्हें याद रखें, शिवराज को नहीं। इसके लिए हर सभंव प्रयास हो रहे हैं। रक्षाबंधन का पर्व पूरे एक माह मनाया गया। प्रदेश के विभिन्न शहरों में जाकर रक्षाबंधन और श्रावण पर्व कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री ने हिस्सा लिया, बहनों से राखियां बंधवाईं। लाड़ली बहना योजना की रािश के अलावा ढाई सौ रुपए रक्षाबंधन मनाने अलग से दिए। लाड़लियों के लिए गैस सिलेंडर साढ़े चार सौ रुपए में देने का निर्णय जारी रखा। इस एक मामले को छोड़ दें तो मोहन सरकार शिवराज के फैसलों को उलटने-पलटने में लगी है। अवैध कालोनियों को वैध न करने और राजधानी परियोजना को पुनर्जीवित करने जैसे निर्णय इसके उदाहरण हैं।
भ्रष्टाचार पर वरिष्ठ नेता को दिखाना पड़ा आइना
हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकना मुख्यमंत्री डॉ यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। बारिश के मौसम में सार्वनजिक तौर पर इसके दर्शन मिलते हैं। बनाई गई सड़कें एक बारिश भी नहीं झेल पातीं। सड़कों पर बड़े-बड़े गड्ढे और उनकी वजह से होने वाली दुर्घटनाएं इसका उदाहरण हैं। कमाल यह है कि सरकार के निर्देश पर इन गड्ढों को भरने का काम होता है लेकिन बारिश होते ही, ये गड्ढे फिर जैसे के तैसे सामने होते हैं। लोगों की जुबान से निकलता है कि भ्रष्टाचार के चलते सड़कें ऐसी बन रही हैं जो एक बारिश भी नहीं झेल पातीं। इसके अलावा एयरपोर्ट, पुल सहित कई शासकीय निमार्ण लोकार्पण के वर्ष में ही भर-भराकर गिर जाते हैं। कई का तो लोकार्पण ही नहीं हो पाता।
जहां तक रोज मर्रा के काम के लिए सरकारी दफ्तरों में जाने वालों का हाल है, तो भाजपा के वरिष्ठ नेता रघुनंदन शर्मा एक कार्यक्रम में मंच से मुख्यमंत्री के सामने ही आइना दिखा चुके हैं। उन्होंने कहा था कि किसी सरकारी दफ्तर में बिना रिश्वत लिए कोई काम नहीं होता। विधायक एवं अन्य जनप्रतिनिधि भी पैसा लिए बिना काम नहीं करते। लोग आकर यह स्थिति बताते हैं तो शर्म आती है कि हमारी सरकार में ऐसा हो रहा है। रघुजी ने मुख्यमंत्री से आग्रह किया था कि जिस तरह वे पर्यावरण को शुद्ध करने को लेकर अभियान चला रहे हैं, उसी तरह भ्रष्टाचार की इस गंदगी के खिलाफ भी अभियान चलाएं। हालात ये है कि बीडीए के एक बाबू के यहां 80 करोड़ की संपत्ति का पता चल गया। ऐसे मगरमच्छों को लोकायुक्त पुलिस, सीबीआई, ईडी, ईओडब्ल्यू सहित तमाम एजेंसियां छापा डाल कर पकड़ रही हैं, करोड़ों-अरबों की बेनामी संपत्ति उजागर हो रही है। फिर भी भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है।
रेवड़ी कल्चर से विकास की रफ्तार थमी
भाजपा के शीर्ष नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेवड़ी कल्चर पर सार्वजनिक तौर पर सवाल उठा चुके हैं लेकिन इस पर न उन्होंने खुद अमल किया, न ही किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री कर रहा है। इस रेवड़ी कल्चर से विकास की रफ्तार थम गई है। मप्र में भी लाड़ली बहना सहित रेवड़ी बांटने वाली अन्य योजनाओं में बजट का बड़ा हिस्सा खर्च हो रहा है। इनके साथ वेतन- भत्ते देने के लए हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री घोषणा करते हैं कि हर जिले में मेडिकल कालेज खोला जाएगा।
प्रदेश के पीएमश्री एक्सिलेंस कालेजों का स्तर आईआईएम जैसा किया जाएगा। जहां भी दौरा होता है कुछ घोषणाएं हो जाती हैं। ये कैसे संभव है जब इन पर अमल के लिए सरकार के पास पैसा ही नहीं है? अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह डॉ मोहन यादव भी कहते हैं कि सरकार के पास पैसे की कमी नहीं है लेकिन कोई योजना पूरी होती दिखाई नहीं पड़ती। सिंचाई सहित तमाम योजनाएं केबिनेट बैठक में मंजूर होती हैं। टोकन के तौर पर कुछ बजट का प्रावधान किया जाता है लेकिन वे पूरी कब होंगी, कोई नहीं जानता। मुख्यमंत्री ने प्रदेश के विकास को ध्यान में रखकर रीजनल इंडस्ट्री कान्क्लेव के आयोजन का सिलसिला शुरू किया है। यह अच्छा प्रयास है।
उज्जैन, जबलपुर के बाद ग्वालियर में इनका आयोजन हो चुका है। इनके जरिए अलग-अलग अंचल में औद्योगिक निवेश लाने की कोशिश हो रही है। मुख्यमंत्री जानते हैं कि सरकारी खजाने के भरोसे विकास संभव नहीं है, शायद उद्योगपति इस कमी को दूर कर दें और प्रदेश के विकास की गति तेज हो जाए। पर इन्वेस्टर्स समिट का अब तक अनुभव ठीक नहीं रहा। इन समिट में पहले भी लाखों करोंड़ के एमओयू साइन हुए लेकिन धरातल पर 10 फीसदी भी नहीं उतरे। डॉ मोहन यादव के प्रयास कितने सार्थक होते हैं, इस पर नजर रहेगी।
भाजपा का वोट बैंक बढ़ाने पर फोकस
प्रदेश में अपराधों पर भले अंकुश नहीं लग पा रहा, भ्रष्टाचार का खुला खेल चल रहा है और विकास की रफ्तार मंद है लेकिन मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव भाजपा के वोट बैंक में आंच न आने देने के लिए संकल्पित नजर आते हैं। उनकी कोशिश है कि विधानसभा और लोकसभाा चुनाव में जो सफलता मिली है वह आगे भी बरकरार रहे। प्रदेश की लाड़लियों को महत्व इस योजना का ही नतीजा है। कर्ज भले बढ़े लेकिन ‘लाड़ली बहना योजना’ में कोई कटौती नहीं की जा रही है।
मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि आने वाले समय में योजना की रािश में बढ़ोत्तरी की जाएगी। वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही मोहन ने राम वन गमन पथ के स्थान पर ‘कृष्णेय पथ’ विकसित करने का निर्णय लिया है। कृष्ण से जुड़े स्थानों को तीर्थ स्थल के रूप में विकसित करने की घोषणा की गई है। उन्होंने यह भी कहा है कि उत्तर प्रदेश में एक वृंदावन है लेकिन मप्र के हर ब्लाक में एक वृंदावन होगा। केिबनेट ने योजना को मंजूरी दे दी है। भगवान कृष्ण के प्रति श्रद्धा को ध्यान में रखकर पहली बार सरकार ने स्कूलों, कालेजों में जन्माष्टमी मनाने के लिए विधिवत सरकुलर जारी किया। मुख्यमंत्री खुद यदुवंशी हैं। उन्होंने ‘कृष्णम शरणम मम:’ को अपना मूल मंत्र बना लिया है।
वे लगभग हर कार्यक्रम में भगवान कृष्ण से जुड़े प्रसंगों का जिक्र जरूर करते हैं। वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही मुख्यमंत्री हिंदू-मुस्लिम मुद्दे को हवा देने से नहीं चूकते। हाल ही में एक कार्यक्रम में उन्होंन कहा कि ‘जो यहां का खाता है, कहीं और की बजाता है, यह नहीं चलेगा। भारत में रहना है तो राम-कृष्ण की जय कहना होगा।’ इनकी वजह से विकास की रफ्तार भले तेज न हो लेकिन भाजपा का वोट बैंक बरकरार रह सकता है।
बहाल करनी होगी लोकतंत्र के मंदिर की साख
विधानसभा की कार्रवाई के संदर्भ में मुख्यमंत्री डॉ यादव पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की राह पर हैं। शिवराज विधानसभा सत्र को कम से कम चलाने के पक्ष में रहते थे, मोहन सरकार भी ऐसा ही कर रही है। संभवत: इसीलिए विधानसभा के इतिहास में इस बार बजट सत्र सबसे छोटा सिर्फ 5 दिन का रहा। डॉ यादव को यह रास्ता छोड़ना चाहिए। विपक्ष से डरने की बजाय उन्हें उनका मुकाबला करना चाहिए। प्रदेश में लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर विधानसभा ही है। मुख्यमंत्री को इसकी साख बहाल करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि विधानसभा के सत्र निर्धारित अवधि तक चलें। सदन की कार्रवाई बीच में अनिश्चितकाल के स्थगित कर देने की परंपरा खत्म हो। सरकार हंगामे के बीच भले आनन-फानन अपने काम करा लेती है लेकिन जनता के मुद्दे दम तोड़ देते हैं। उन पर चर्चा नहीं हो पाती।
मुख्यमंत्री डॉ यादव को इस ओर ध्यान देना चाहिए। आर्थिक कारणों से सरकार और जनसंपर्क का मीडिया के साथ संपर्क समाप्त जैसा होता जा रहा है। इसकी बहाली की दिशा में भी ध्यान देने की जरूरत है। इसके लिए मुख्यमंत्री के पास तो समय है ही नहीं, अफसरों की भी मीडिया के साथ तालमेल में कोई रुचि नहीं है। मुख्यमंत्री और उनकी सरकार को मीडिया की आलोचना को सकारात्मक तरीके से लेने की आदत डालना चाहिए। इससे सरकार को ही लाभ होगा।
भाजपा के कांग्रेसीकरण से मुसीबत
चुनाव में लाभ की दृष्टि से कांग्रेस नेताओं को बड़ी तादाद में भाजपा में ले तो आया गया लेकिन वे अब सरकार और संगठन के लिए मुसीबत बन रहे हैं। निष्ठावान भाजपा कार्यकर्ताओं-नेताओं का उनके साथ तालमेल नहीं बैठ पा रहा है। इसीलिए कांग्रेस से आए रामनिवास रावत को मंत्री बनाया गया तो भाजपा के गोपाल भार्गव और अजय विश्नोई जैसे वरिष्ठ नेताओं का दर्द उभर आया। सरकार के एक मंत्री नागर सिंह की भोपाल से दिल्ली तक क्लास हो गई। इसके कारण आश्वासन देने के बावजूद छिंदवाड़ा जिले के अमरवाड़ा से विधायक कमलेश शाह को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जा सका। बीना की निर्मला सप्रे बीना को जिला बनाने के आश्वासन पर भाजपा में आई थीं।
मुख्यमंत्री ने बीना को जिला बनाने का निर्णय लगभग ले लिया था लेकिन पूर्व मंत्री भूपेंद्र सिंह के विरोध के कारण इसे टालना पड़ गया। ये तो कुछ उदाहरण हैं, सच यह है कि कांग्रेस से आए नेताओं और भाजपा के निष्ठावान भाजपाईयों के बीच हर स्तर पर तनातनी है। इस पर काबू पाना मुख्यमंत्री डॉ यादव के लिए बड़ी चुनौती है। वैसे भी मोहन सरकार में चूंकि कांग्रेस से आए कई नेता मंत्री हैं इसलिए इस सरकार में किसी कांग्रेसी का काम नहीं रुकता।
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