रविकांत दीक्षित @ भोपाल
आज यानी 13 सितंबर 2024 को मध्यप्रदेश की मोहन यादव सरकार का 'गर्भकाल' पूरा हो गया है। नौ महीने पहले (13 दिसंबर 2023) आज ही के दिन डॉ.मोहन यादव सूबे की सत्ता के शीर्ष पर बैठे थे। मतलब, नायक बने थे। उनके पोस्टर लगे। टीजर आए। फिर प्रोमो दिखे। उन्होंने किसी एक्शन फिल्म के नायक के जैसे जोरदार एंट्री मारी। ताबड़तोड़ फैसले लिए। दर्शक रूपी जनता ने तालियां बजाईं। अब मौजूदा परिदृश्य देखें तो लगता है, मानो 'नायक' की फिल्म पर पकड़ तनिक ढीली पड़ गई है। इसके तमाम कारण हैं।
हां, लेकिन उनकी एंट्री से यह भी कहा जा सकता है कि फिल्म की पटकथा जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, नायक और मजबूत होकर उभरेगा। दर्शकों के मन में हमेशा की तरह नायक की उजली छवि ही रहेगी, पर अभी सवाल फिल्म के शुरुआत नौ मिनट (नौ माह) का ही है।
दिल्ली में बैठे सियासी कास्ट डायरेक्टर्स ने डॉ.मोहन यादव को अंतिम पंक्ति से पहली कतार में तो ला खड़ा किया, पर क्या वे शुरुआती नौ महीने में हरफनमौला कलाकार बनने की ओर बढ़े हैं? क्या अब तक जनता को मोहन के एक्शन सीन्स, डॉयलॉग डिलेवरी और अभिनय रास आया है? क्या वे निकट भविष्य में मध्यप्रदेश की 20 बरस की सियासत में 'महानायक' के तौर पर उभरे शिवराज सिंह चौहान के बगल में आ खड़े होंगे?
इसकी समीक्षा करने के लिए 'द सूत्र' ने देशभर के पत्रकारों, राजनीतिक विश्लेषकों और समालोचकों से बात की। सरकार के गर्भकाल का एनालिसिस कराया। इसमें यही निचोड़ निकलकर सामने आया कि मोहन की एंट्री तो सधे कदमों से हुई है, पर अब वक्त है कि वे अपनी लकीर लंबी करें। हरफनमौला कलाकार बनें, ताकि दर्शक उनकी हर अदा पर तालियां बजा सकें।
वैसे भी कहते हैं, किसी भी फिल्म में नए हीरो के लिए यह सबसे जरूरी होता है कि आते ही वह अपने आने का इशारा करे। इस लिहाज से मध्यप्रदेश की सियासी फिल्म के नायक डॉ.मोहन यादव ने शुरुआती फैसलों से तो यह इशारा किया है। बात चाहे लाउड स्पीकर की हो या अफसरशाही पर नकेल कसने की। यहां मुझे याद आता है 'द सूत्र' का स्थापना दिवस...जिसमें मोहन ने धर्म, दर्शन, अध्यात्म, योग, रामायण, महाभारत और गीता पर गूढ़ बातें कर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। वे इसी राह पर आगे बढ़ रहे हैं। धर्म में उनकी गहरी आस्था है। उनके फैसलों में दर्शन झलकता है। मंच से वे अध्यात्म की बातें करते हैं। योग उनकी जीवन शैली का हिस्सा है। रामायण की सीख उन्हें राम वनगमन पथ पर बढ़ाती है। महाभारत और गीता 'श्रीकृष्ण पाथेय' की प्रेरणा देती है।
मामा बनाम भैया क्यों?
डॉ.मोहन यादव ने अफसरों की ट्रांसफर और पोस्टिंग से नया संदेश दिया है। मुख्य सचिव की कुर्सी 'दूर' करना भी इसी का हिस्सा माना जा रहा है। टोल नाकों को बंद कर उन्होंने अपनी धमक बताई है। उन्हें अब अपने पूर्ववर्ती नायक से आगे बढ़ना होगा। विकास का अपना मॉडल विकसित करना होगा... क्योंकि जमीं पर दर्शकों में जो एक टीस नजर आती है, वह यह कि मोहन चाहकर भी उज्जैन को विकसित शहर बनाने के संकल्प और सपने से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। उनके 'अपने' उन्हें मामा बनाम भैया की राह पर ले जा रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक इसे उचित नहीं मानते। हालांकि अभी मोहन के पास वक्त है। इसी में उनकी कार्य शैली, कार्य व्यवहार, राजनीतिक योग्यता-दक्षता, बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता की परीक्षा होगी।
सत्ता और संगठन में तालमेल
हां, रीजनल इंडस्ट्री कॉन्क्लेव उम्दा पहल है, इसमें छोटे-छोटे संभागों में देश के बड़े-बड़े उद्योगपति पहुंच रहे हैं। उद्यम लगाने रुचि दिखा रहे हैं। ग्वालियर के कॉन्क्लेव में अडानी का आना इस बात का संकेत है। सियासी तौर पर देखें तो सत्ता और संगठन के बीच तालमेल में भी मोहन ने बाजी मारी है। क्योंकि दिग्गजों की फेहरिस्त के बीच पहले शीर्ष पर पहुंचना और फिर उनके साथ काम करना और काम लेना आसान नहीं था, पर मोहन इसमें नायक रहे। प्रभारी मंत्रियों की सूची ने भी बता दिया कि प्राथमिकता के मामले में मोहन यादव के अलग मायने हैं। संगठन से तालमेल के साथ लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप के बाद अमरवाड़ा उपचुनाव में बीजेपी की जीत के साथ राजनीतिक तौर पर उनका कद बढ़ा है।
अब उनके सामने चुनौती है...
अब डॉ.मोहन यादव के सामने संसाधनों को जुटाने और एक बड़े वर्ग को संतुष्ट करने की चुनौती है। अब उन्हें जरूरत है रोजगार पर बात करने की। अब उन्हें चाहिए कि शिक्षा को शिखर पर पहुंचाएं। अब उन्हें लगाना चाहिए भ्रष्टाचार अंकुश। अब नायक को अफसरों के आंकड़ों के जाल में फंसने के बजाय नेक इरादों और बड़े सपनों को साकार करना होगा। अब उन्हें आवश्यकता है खराब सड़कें ठीक करने की। आवारा मवेशियों से निपटने की। बेतरतीब शहरों का व्यवस्थित विकास करने की... क्योंकि इनके बिना वे मध्यप्रदेश की करीब 9 करोड़ जनता के अच्छे नायक नहीं बन पाएंगे।
(लेखक 'द सूत्र' के एडिटर हैं।)
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