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इंदौर में एमजीएम मेडिकल कॉलेज से संबद्ध स्कूल ऑफ एक्सीलेंस फॉर आई में चार डॉक्टरों की नियुक्ति को लेकर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने सख्त रुख अपनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि किसी अयोग्य व्यक्ति को डॉक्टर पद पर नियुक्त किया गया है, तो उसे आम जनता के इलाज की अनुमति नहीं दी जा सकती। यह टिप्पणी हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच जस्टिस विवेक रूसिया और जस्टिस विनोद कुमार द्विवेदी ने उस याचिका पर की, जिसमें स्कूल ऑफ एक्सीलेंस फॉर आई में नियुक्त मीता जोशी, टीना अग्रवाल, ऋषि गुप्ता और प्रदीप व्यास की योग्यता पर सवाल उठाया गया था।
सरकार और कॉलेज डीन समेत सभी को नोटिस
इंदौर हाई कोर्ट ने स्कूल ऑफ एक्सीलेंस फॉर आई में नियुक्ति के मामले में मध्यप्रदेश सरकार, एमजीएम मेडिकल कॉलेज के डीन सहित चारों डॉक्टरों को नोटिस जारी कर 4 सप्ताह में जवाब मांगा है। याचिकाकर्ता की तरफ से एडवोकेट अभिनव धनोतकर ने हाईकोर्ट में पक्ष रखा। याचिका में कहा गया है कि इन नियुक्तियों में योग्य उम्मीदवारों की अनदेखी करते हुए नियमों की अवहेलना की गई है।
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जनहित याचिका पर भी उठा सवाल
सुनवाई के दौरान अतिरिक्त महाधिवक्ता ने याचिकाकर्ता की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि याचिकाकर्ता सिर्फ सामाजिक कार्यकर्ता हैं, वे स्वयं इन पदों के लिए इच्छुक नहीं हैं, इसलिए यह याचिका जनहित याचिका (PIL) के रूप में स्वीकार नहीं की जानी चाहिए। हालांकि, अदालत ने इस आपत्ति को खारिज करते हुए कहा कि यह मामला सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर्स की नियुक्ति से जुड़ा हुआ है और इसमें जनहित स्वतः निहित है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वह इस याचिका को क्वा-वारंटो (quo warranto) की प्रकृति में मानकर विचार कर सकता है, जिसमें यह पूछा जा सकता है कि आरोपित डॉक्टर किस अधिकार से उस पद पर नियुक्त हैं, जबकि उनकी योग्यता संदेह के घेरे में है।
नोटिस के बाद डॉ.व्यास ने दिया रिजाइन
हाईकोर्ट के नोटिस जारी करने के बाद स्कूल ऑफ आई एक्सीलेंस के डायरेक्टर डॉ. प्रतीप व्यास और उनकी पत्नी डॉ. शरदिनि व्यास ने इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने अपना इस्तीफा कॉलेज प्रबंधन को ई–मेल के जरिए भेजा है। इसको लेकर उन्होंने स्टाफ की कमी और संसाधनों का नहीं मिलने की बात कही है। जबकि डॉ. व्यास को भी कोर्ट से गलत नियुक्ति को लेकर नोटिस गया है। बता दें कि डॉ. व्यास ने तो नियुक्ति पत्र मिलने के कई वर्ष बाद अस्पताल में ज्वाइनिंग ली थी। इसको लेकर तो उनकी शिकायत स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा विभाग के भोपाल के अफसरों को भी की जा चुकी है और वे भी इसकी जांच कर रहे हैं।
क्या है क्वा-वारंटो?
क्वा-वारंटो एक संवैधानिक रिट है जिसके जरिए अदालत किसी व्यक्ति से यह सवाल कर सकती है कि वह किस अधिकार से किसी सार्वजनिक पद पर आसीन है। इस रिट का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि केवल योग्य और वैध रूप से नियुक्त लोग ही सार्वजनिक पदों पर रहें।
अब यह होना है आगे
इस मामले में अगली सुनवाई 4 हफ्ते बाद होनी है। तब तक सभी प्रतिवादी पक्षों को कोर्ट के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी। यदि अदालत को यह प्रतीत होता है कि नियुक्त डॉक्टर योग्यता के मानकों पर खरे नहीं उतरते, तो उनकी नियुक्तियां रद्द भी की जा सकती हैं।
यह है पूरा मामला
याचिका दायरकर्ता कमलगिरि गोस्वामी ने बताया कि पीएम नरेंद्र मोदी ने बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अलग-अलग शहरों में स्पेशियलिटी हॉस्पिटल बनवाए थे। मप्र को 5 ऐसे ही अस्पताल दिए गए थे, जिसमें इंदौर को आंखों के इलाज के लिए अस्पताल दिया गया था। इसके चलते सुपर स्पेशियलिटी आई हॉस्पिटल बनाया गया था।
6 साल पहले जारी किया था विज्ञापन
वर्ष 2019 में इनमें डॉक्टर्स की नियुक्ति का विज्ञापन जारी किया गया था। इसके आधार पर मीता जोशी, टीना अग्रवाल, ऋषि गुप्ता और प्रदीप व्यास की नियुक्ति की गई थी, लेकिन ये लोग पात्रता नहीं रखते थे। विज्ञापन में सभी से शास. महाविद्यालय में पढ़ाने का अनुभव आवश्यक रूप से मांगा गया था। चारों के पास ये अनुभव नहीं था।
विज्ञापन की आर्हता भी पूरी नहीं की
विज्ञापन के मुताबिक एमएस डॉक्टर्स ही नियुक्त हो सकते थे, लेकिन मीता जोशी को डीएनबी की डिग्री पर ही नियुक्त कर दिया गया। नियुक्ति के लिए बनाई गई टीम की सदस्य डॉ. वंदना वर्मा ने अपनी टीप में ही उन्हें अयोग्य घोषित किया था। बताया गया कि जगदीश नामक मरीज की आंखों का इलाज किया था, उसकी एक आंख की रोशनी चली गई। उसने उपभोक्ता फोरम में उनके खिलाफ 25 लाख रुपए का दावा लगा रखा है।
नौकरी के लिए आवेदन तक नहीं किया था
एक अन्य उम्मीदवार टीना अग्रवाल का तो नौकरी के लिए आवेदन ही नहीं था। उनके पास शासकीय महाविद्यालय में टीचिंग का भी अनुभव नहीं है। इसी तरह से अन्य डॉक्टर्स भी मांगी गई योग्यता नहीं रखते हैं। तत्कालीन डीन ने भी इन नियुक्तियों को लेकर 3 सदस्यीय कमेटी बनाई थी। उस कमेटी ने भी इन्हें पद के लिए योग्य नहीं बताते हुए इनकी नियुक्ति को गलत माना था। उसके बाद भी इन्हें नहीं हटाया गया, जिसके चलते उन्होंने कोर्ट में याचिका दायर की।