BHOPAL. चुनावी चंदे के नए और परिष्कृत स्वरूप पर हल्ला जमकर मचा है। जिसे इलेक्टोरल बॉन्ड (Electoral Bond) का नाम दिया गया है। ये बॉन्ड कैसे बड़े बिजनेस हाउस और कॉरपोरेट सेक्टर के लिए सिरदर्द बन सकता है और कैसे विपक्षी दलों की मुश्किल बढ़ाएगा ये मैं आपको समझाता हूं और ये भी समझेंगे कि क्या वाकई चुनावी बाजार से ब्लैक मनी यानी कि काला धन पूरी तरह से गायब हो जाएगा।
ये चर्चा है इलेक्टोरल बॉन्ड की
चंद घंटे बाद लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो जाएगा। उससे पहले देश की सियासी फिजाओं में एक शब्द बड़ा चर्चाओं में है। ये चर्चा है इलेक्टोरल बॉन्ड की। जब से ये बॉन्ड सुर्खियों में आया है तब से इसका हल्ला जबरदस्त है। विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं। एसबीआई से लेकर इलेक्शन कमीशन तक इसके फेर में उलझा है। सुप्रीम कोर्ट ने सख्त फैसला सुना दिया है। इस बॉन्ड के सुर्खियां बनते ही बहुत सारे सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर ये समझाने की कोशिश में जुट गए हैं कि ये बॉन्ड हैं क्या और इसका फायदा नुकसान क्या है। तो आप जरूर ये सोचेंगे कि अब इस पर मैं क्यों चर्चा कर रहा हूं। चर्चा का कारण खास है। क्योंकि मैं आपका ध्यान कुछ ऐसे फैक्ट्स की तरफ खींचने वाला हूं जिस पर अब तक कहीं कोई खास बातचीत नहीं हो सकी है।
ये इलेक्टॉरल बॉन्ड हैं क्या?
बहुत जल्दी से आपको बता देता हूं ये इलेक्टॉरल बॉन्ड हैं क्या। आपने अक्सर राजनीति की दुनिया में एक शब्द सुना होगा चुनावी चंदा या राजनीतिक दलों को दिया जाने वाला चंदा। ये चंदा आमतौर पर गुपचुप तरीके से दिया जाता रहा है और कोई नई बात भी नहीं है। कभी राजनीतिक पार्टीयों से लगाव के चलते या फिर दबाव के चलते या फिर किसी तरह का हित साधने के लिए लोग या संस्थान उन्हें चंदा देते हैं। अब ये चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए दिया जा सकता है जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पहले सीबीआई हर तीन महीने में जारी करता था। इस बॉन्ड को चंदा देने में इंटरेस्ट लोग या संस्थान 1,000, 10,000, 1,00,000 और 1,00,00,000 रुपए के मल्टीपल में कितनी भी राशि में खरीद सकते हैं। जो भी इस बॉन्ड को इसे खरीदता है, उसे अपनी पसंद के किसी भी योग्य राजनीतिक दल को दान करने के लिए 15 दिनों का समय मिलता है। शर्त ये है कि वो राजनीतिक दल चुनाव आयोग में रजिस्टर्ड होना चाहिए। इस बॉन्ड को राजनीतिक दल नियमों के अनुसार कैश करा सकते हैं। ये बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10-10 दिनों के लिए ही जारी होते थे। इसका फायदा ये है कि जो भी इलेक्टोरल बॉन्ड लेता है वो टैक्स में बेनिफिट हासिल कर सकता है। चुनावी बॉन्ड के जरिए किए गए दान आयकर अधिनियम की धारा 80 जीसी और धारा 80 जीजीबी के तहत कर-मुक्त हैं। इसका मतलब साफ है कि जो भी चुनावी चंदा दे रहा है वो अपनी व्हाइट मनी से ही चंदा दे रहा है। इसी वजह से इसे ब्लैक मनी को रोकने का एक जरिया भी माना जा रहा है।
पहले तीन पायदान पर बीजेपी, टीएमसी और कांग्रेस है
जब से इस बॉन्ड की चर्चा चली है ये माना जा रहा है कि अब राजनीतिक फंडिंग से नकदी और काले धन बिलकुल गायब हो जाएगा। इस बॉन्ड की वजह से ऐसे राजनीतिक दल को खत्म हो जाएंगे जो चुनाव लड़ने के नाम चंदा इकट्ठा करते थे और अक्सर चुनाव लड़ने से या सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से चुनाव लड़ने से पैसा कमाते थे। अब फटाफट एक नजर उन आकड़ों पर भी डाल लेते हैं जो ये बता रहे हैं कि किस दल को कितना चंदा मिला है। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर ही ये जानकारी दर्ज है। जिसके मुताबिक पहले तीन पायदान पर बीजेपी, टीएमसी और कांग्रेस हैं। बीजेपी को साठ अरब से ज्यादा का चंदा मिला है। टीएमसी यानी कि ममता बनर्जी की पार्टी को मिला है 16 अरब से ज्यादा का चंदा और कांग्रेस 14 अरब से ज्यादा का चंदा हासिल कर सकी है। इसके बाद नंबर आता है भारत राष्ट्र समिति, बीजू जनता दल, डीएमके, वायएसआर कांग्रेस, तेलुगू देशम पार्टी, शिवसेना, राष्ट्रीय जनता दल और आम आदमी पार्टी का नंबर।
चुनावी बॉन्ड खरीदने वाली 14 कंपनियों पर छापेमारी हो चुकी है
ये आंकड़ें चौंकाने वाले हो सकते हैं, लेकिन इससे भी ज्यादा चौंकाने वाले हैं वो नाम जिन्होंने खूब दिल खोलकर चंदा दिया। 2019 से 2024 के बीच सबसे ज्यादा चुनावी बॉन्ड खरीदने वाली 30 कंपनियों में से 14 ऐसी हैं, जिन पर छापेमारी हो चुकी है। वो सब कंपनियां चंदा देने में आगे रही हैं। उनके बारे में भी जान लेना जरूरी है। क्योंकि बात यही हो रही है कि आम आदमी को पता होना चाहिए कि हर दल को कितना चंदा मिला है तो, ये भी जानना चाहिए कि बॉन्ड के जरिए चंदा देने वाले कौन हैं।
फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेडः चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वालों की जो लिस्ट जारी की है, उसमें सबसे ज्यादा कीमत के बॉन्ड खरीदने वालों की लिस्ट में फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड का नाम सबसे ऊपर है। कंपनी पर आरोप थे कि 2014 से 2017 के बीच कंपनी ने लॉटरी टिकट के जरिए गैरकानूनी तरीके से 400 करोड़ रुपए कमाए। सेंटियागो मार्टिन के दामाद आधव अर्जुन से जुड़े ठिकानों पर भी तमिलनाडु में ईडी ने इसी साल 9 मार्च को छापेमारी की। यह कार्रवाई राज्य में गैरकानूनी तरीके से सैंड माइनिंग केस से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में हुई थी। इसके अलावा, मई 2019 में भी कंपनी पर छापेमारी हुई थी। इसके एक साल बाद ही कंपनी ने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे। 2 अप्रैल, 2022 की छापेमारी के बाद 7 अप्रैल को कंपनी ने 100 करोड़ के चुनावी बॉन्ड खरीदे। इसी तरह तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के दौरान भी कंपनी की तरफ से कई इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे गए।
मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेडः मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड की चुनावी बॉन्ड खरीदने की भी लंबी लिस्ट है। कंपनी ने 966 करोड़ की कीमत के चुनावी बॉन्ड खरीदे हैं। अक्टूबर, 2019 में इस कंपनी पर इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने रेड मारी थी। इस कार्रवाई में हैदराबाद और दूसरी जगहों पर कंपनी से जुड़े कई कार्यालयों पर छापेमारी की गई थी।
हल्दिया इंजीनियरिंग लिमिटेडः हल्दिया इंजीनियरिंग लिमिटेड ने 377 करोड़ रुपए इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए डोनेट किए हैं। साल 2020 में कंपनी पर CBI की कार्रवाई हुई थी।
वेदांता लिमिटेडः वेदांता ग्रुप कंपनी तलवंडी साबो पावर लिमिटेड पर साल 2022 में ईडी ने छापेमारी की थी। यह छापेमारी मनी लॉन्ड्रिंग मामले में हुई थी। चुनाव आयोग की लिस्ट के मुताबिक कंपनी ने 400 करोड़ रुपए के चुनावी बॉन्ड खरीदे हैं।
यशोदा सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटलः यशोदा सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल ने 162 करोड़ रुपए चुनावी बॉन्ड के जरिए पॉलिटिकल पार्टी को चंदा दिया है। कंपनी पर भी इनकम टैक्स की छापेमारी हो चुकी है। यह छापेमारी साल 2020 में हुई थी और कंपनी ने 2021 में चुनावी बॉन्ड खरीदे।
डीएलएफ कमर्शियल डेवलपर्स लिमिटेडः डीएलएफ कमर्शियल डेवलपर्स लिमिटेड पर साल 2019 में सीबीआई की ओर से जमीन आवंटन में अनियमितता के मामले में कार्रवाई की गई थी। इसके बाद 2023 में ईडी ने कंपनी के गुरुग्राम में कार्यालयों पर भी छापेमारी की थी। यह छापेमारी रियल एस्टेट फर्म सुपरटेक से जुड़े एक मामले में जांच के दौरान हुई थी। कंपनी ने 130 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे।
इलेक्टोरल बॉन्ड से पता चलता है कौन कहां कितना दान कर रहा है
ये फेहरिस्त अभी और भी लंबी है। ब्लैक एंड व्हाइट के इस खेल में कब सफेद को ही काला कह दिया जाए और कब काले को ही क्लीन मान लिया जाए ये कहना मुश्किल है। खैर अब इससे जुड़े सबसे जरूरी पहलू को समझते हैं। जिसका जिक्र कम ही हो रहा है। इलेक्टोरल बॉन्ड के बारे में बात करते हुए आपने ये भी बार-बार सुना होगा कि विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं। ये आरोप भी लगा रहे हैं कि विपक्षी दलों की फंडिंग को रोकने के लिए ये बॉन्ड सिस्टम लागू किया गया है। फिलहाल दान के आंकड़ों को देखते हुए ये डर बेमानी लगता है, लेकिन बेबुनियाद नहीं है। इसकी खास वजह है इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए कौन कहां कितना दान कर रहा है ये जान पाना बहुत आसान है। ऐसे में जो भी बिजनेस घराना, कंपनी या व्यक्ति सत्ताधारी दल को चंदा नहीं देना चाहता। दूसरे दल को ही चंदा देना चाहता है। उसके लिए ये बॉन्ड मुश्किल बन सकता है। क्या ये संभव नहीं कि दान देने वालों पर सत्ताधारी दल अलग अलग तरह से दबाव बनाए। अगर ये संभव नहीं है तो 30 कंपनियों की लिस्ट में वो 14 कंपनियों के नाम क्या कर रहे हैं जिन्होंने कार्रवाई के बाद या दौरान चंदा दिया।
बॉन्ड से राजनीति में लग रहे काले धन पर रोक लगेगी
क्या चंदा देने के बाद इन कंपनियों पर चल रही कार्रवाई को दरकिनार कर इन्हें व्हाइट मनी का मालिक मान लिया जाएगा। और, आखिरी सवाल वो, जिसका डर विपक्षी पार्टियों को सबसे ज्यादा है। उन दलों के शुभचिंतकों और चंदा देने वालों को क्या बख्श दिया जाएगा। ऐसे में व्हाइट मनी का सवाल ही कहां उठता है। जो लोग सिर्फ एक दल को चंदा देना चाहते हैं। वो दल सत्ता में काबिज नहीं है तो ऐसे लोग क्यों कागजी कार्रवाई पूरी कर चंदा देंगे। ये चंदा तो अब भी चुपचाप ही राजनीति के बाजार में सर्कुलेट होगा। इसलिए क्या ये कहना सही होगा कि इलेक्टोरल बॉन्ड से राजनीति में लग रहे काले धन पर रोक लगेगी। इस प्रक्रिया और ट्रांसपेरेंट बनाना है तो फिलहाल कुछ और तरीके और तलाशने की गुंजाइश जरूरी नजर आती है।