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आज (13 अगस्त 2025) लोकमाता देवी अहिल्याबाई होल्कर की 230वीं पुण्यतिथि मनाई जा रही है। इतिहास में ऐसे बहुत कम उदाहरण मिलते हैं जहां किसी शासक को इतने लंबे समय बाद भी इतने सम्मान के साथ याद किया जाता हो।
उनका जीवन और शासनकाल न केवल होलकर वंश के लिए बल्कि पूरे भारत के लिए प्रेरणा का स्रोत है। ब्रिटिश प्रशासक सर जॉन मालकम ने अपने शोध में उन्हें होलकर राजवंश की श्रेष्ठतम शासिका के रूप में वर्णित किया है। उनके शासनकाल में राज्य ने अनोखा समृद्धि और शांति का अनुभव किया।
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रानी अहिल्याबाई का जीवन
रानी अहिल्याबाई होलकर (Rani Ahilyabai Holkar) का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के जामखेड कस्बे के ग्राम चांडी में हुआ था। उनके पिता मनकोजी राव शिंदे एक मराठा सैनिक थे।
8 साल की उम्र में उनका विवाह मल्हार राव होलकर के पुत्र खांडेराव से हुआ। जीवन में कई व्यक्तिगत दुखों का सामना करने के बावजूद उन्होंने अपने कर्तव्यों से कभी मुंह नहीं मोड़ा।
29 वर्ष की आयु में उनके पति का निधन हो गया और बाद में उन्हें अपने पिता, पुत्र, दामाद और बेटी को भी खोना पड़ा। उस समय मराठा परिवारों में महिलाओं को आत्मरक्षा के लिए हथियार चलाने की शिक्षा दी जाती थी।
अहिल्याबाई ने भी अपनी मां के साथ शस्त्र चलाना सीखा था। वह शिव भक्त थीं और उनकी दिनचर्या में नर्मदा दर्शन, मछलियों को दाना खिलाना और गरीबों की सेवा करना शामिल था।
8527 धार्मिक स्थलों का निर्माण
अहिल्याबाई ने अपने 28 वर्षों के शासनकाल में पूरे देश में महत्वपूर्ण निर्माण कार्य करवाए, जिनकी लिस्ट बहुत लंबी है। उन्होंने 8527 धार्मिक स्थल, 920 मस्जिदें और दरगाह और 39 राजकीय अनाथालय बनवाए।
इसके अलावा उन्होंने धर्मशालाओं, नर्मदा नदी के तटों पर घाटों, कुओं, तालाबों, बावड़ियों और गौशालाओं (जिन्हें उस समय पिंजरापोल कहा जाता था) के निर्माण के लिए भी आर्थिक सहायता दी।
उनके ये कार्य केवल इंदौर या मालवा तक सीमित नहीं थे, बल्कि पूरे भारत में फैले हुए थे। इन कार्यों के लिए आर्थिक प्रबंधन खासगी नामक एक विशेष व्यवस्था के माध्यम से होता था, जो उनकी व्यक्तिगत संपत्ति थी।
महेश्वर: ज्ञान और धर्म का केंद्र
अहिल्याबाई ने महेश्वर को अपनी राजधानी बनाया और उसे ज्ञान और धर्म के केंद्र के रूप में विकसित किया। उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर कई सुंदर घाटों का निर्माण कराया।
अपने आध्यात्मिक जीवन और शिव के प्रति असीम श्रद्धा के कारण, उन्होंने देश भर के विद्वानों को महेश्वर में स्थायी रूप से बसने के लिए आमंत्रित किया और उन्हें वंशानुगत जागीरें भी प्रदान कीं।
उन्होंने नर्मदा तट पर विद्वानों को संरक्षण दिया, जिनमें मल्हार भट्ट मुल्ये, जानोबा पुराणिक, रामचंद्र रानाडे, काशीनाथ शास्त्री, दामोदर शास्त्री, निहिल भट्ट, भैया शास्त्री, मनोहर बर्वे, गणेश भट्ट, त्रियम्बक भट्ट, महंत सुजान गिरी गोसाबी, और हरिदास आनंद राम जैसे कई प्रमुख नाम शामिल थे। इन विद्वानों ने उनके शासनकाल में धर्म, संस्कृति और साहित्य को समृद्ध किया।
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कठिन परिस्थितियों में राज्य का संचालन
जब अहिल्याबाई ने अपने पति के निधन के बाद राज्य का कार्यभार संभाला, तो उस समय राज्य की स्थिति काफी नाजुक थी। चोरों और डाकुओं का आतंक था, और कानून व्यवस्था कमजोर थी।
उनके लिए पहला और सबसे महत्वपूर्ण कार्य राज्य में शांति और व्यवस्था स्थापित करना था। उन्होंने कानून व्यवस्था को मजबूत किया और राज्य की आय को बढ़ाने के लिए भी काम किया।
हालांकि उन्होंने महेश्वर को अपना मुख्यालय बनाया, लेकिन वह इंदौर को कभी नहीं भूलीं। इंदौर का उपयोग एक महत्वपूर्ण सैनिक छावनी के रूप में होता था।
होल्कर इतिहास के प्रमुख ग्रंथ 'महेश्वर दरवारंची बातमीपत्रे' में इंदौर से जुड़ी कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं। 1779 से 1794 तक विट्ठल शामराव और भीकाजी दातार जैसे वकीलों के पत्रों में भी इंदौर के विकास का उल्लेख है।
इंदौर नगर का विकास
अहिल्याबाई होल्कर ने 26 मई 1784 को महेश्वर से मध्यप्रदेश के इंदौर की पहली यात्रा की। वह नगर के छत्रीबाग में तंबुओं में रुकी थीं। इस दौरान उन्होंने देवगुराड़िया शिव मंदिर का दौरा किया और नगर के प्रमुख सेठों, साहूकारों और नंदलालपुरा के जमींदार से मुलाकात की।
उनके इंदौर में रहते हुए एक बार सराफा में डकैती हो गई थी, जिसके बाद उन्होंने घटना की जांच और अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के आदेश दिए थे।
1785 में नगर के तत्कालीन कामविस्डर खंडो बाबूराव ने अहिल्याबाई को पत्र लिखकर बताया कि नगर का विकास तेजी से हो रहा है और आसपास के लोग इंदौर में आकर बस रहे हैं। उनकी दूरदर्शिता ने इंदौर के विकास की नींव रखी।
पूरे भारत की एक न्यायप्रिय
अहिल्याबाई होल्कर का निधन 13 अगस्त 1795 को हुआ (अहिल्याबाई होल्कर की पुण्यतिथि)। उनका जीवन न्याय, वीरता, श्रद्धा और मातृत्व का एक आदर्श है। उन्होंने अपने शासनकाल में पंचायती राज और न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ किया।
एक बार जब उनके पौत्र मालेराव ने एक निर्दोष की हत्या कर दी, तो उन्होंने प्रजा के हित में कठोर निर्णय लेते हुए उसे मृत्युदंड दिया। इस घटना ने उनकी न्यायप्रियता को सिद्ध किया, भले ही यह उनके लिए व्यक्तिगत रूप से बहुत दुखद था।
इस तरह देवी अहिल्याबाई ने अपना पूरा राज्य भगवान शिव को समर्पित कर उनकी संरक्षिका बनकर शासन किया। उनका जीवन संघर्ष और संकटों से भरा था लेकिन उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व और न्यायप्रियता से इन चुनौतियों का सामना किया।
वह केवल इंदौर या होलकर वंश की नहीं, बल्कि पूरे भारत की एक न्यायप्रिय, दानशील और कुशल प्रशासिका के रूप में जानी जाती हैं। आज भी उन्हें 'लोकमाता' और 'मातोश्री' जैसे सम्मानजनक नामों से याद किया जाता है।
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