MP News: मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में महिला (Women), अनुसूचित जाति (Scheduled Caste), आदिवासी (Scheduled Tribe) और अन्य वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए बने आयोग आज खुद संकट में हैं। पिछले पांच वर्षों से अधिकांश आयोगों में अध्यक्ष और सदस्यों के पद खाली पड़े हैं, जिससे कार्य ठप हो गया है।
इन आयोगों में पूरी तरह खाली हैं पद
- राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग (Tribal Commission)
- राज्य अनुसूचित जाति आयोग (SC Commission)
- राज्य अल्पसंख्यक आयोग (Minority Commission
- राज्य महिला आयोग (Women Commission)
इन आयोगों में अध्यक्ष और सभी सदस्य रिक्त हैं। नतीजतन, सुनवाई नहीं हो पा रही और शिकायतें बढ़ती जा रही हैं।
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इन 6 आयोगों में कोरम अधूरा
- सफाई कर्मचारी आयोग (Sanitation Workers Commission)
- सामान्य निर्धन वर्ग आयोग (General Poor Welfare Commission)
- वित्त आयोग (Finance Commission)
- कृषक आयोग (Farmers Commission)
- पिछड़ा वर्ग आयोग (Backward Class Commission)
- उपभोक्ता विवाद आयोग (Consumer Grievance Redressal Commission)
यहां या तो अध्यक्ष नहीं हैं या सदस्य अधूरे हैं। इससे निर्णय प्रक्रिया पूरी तरह अवरुद्ध है।
महिला अपराधों में मप्र देश में पांचवें स्थान पर
महिला आयोग (Women Commission) की स्थिति चिंताजनक है। 2020 से ही अध्यक्ष और सभी पांच सदस्य नहीं हैं। सचिव तृप्ति त्रिपाठी के अनुसार, हर साल करीब 3000 शिकायतें आती हैं, लेकिन संयुक्त बेंच की अनुपस्थिति में फैसला नहीं हो पा रहा। जबकि मप्र (MP) देश में महिला अपराध के मामले में 5वें स्थान पर है।
25 हजार से ज्यादा मामले लंबित
सरकारी आँकड़ों के अनुसार, महिला आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग सहित विभिन्न आयोगों में 25,000 से अधिक मामले पेंडिंग पड़े हैं।
इनमें कई गंभीर शिकायतें शामिल हैं— जैसे
महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले
जातीय भेदभाव और उत्पीड़न की शिकायतें
आदिवासी अधिकारों के उल्लंघन से जुड़े प्रकरण
कोरम के अभाव में नहीं लग पा रही बेंच
अध्यक्ष और सदस्यों की कमी के कारण आयोगों में नियमित बेंच नहीं लग पा रहे हैं। केवल आवेदन दर्ज हो रहे हैं लेकिन उन पर कोई सुनवाई नहीं हो रही। आयोगों का अस्तित्व मात्र औपचारिकता बन कर रह गया है।
प्रदेश के उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा ने कहा- आयोगों की रिक्तियों को भरने की प्रक्रिया शीघ्र पूरी की जाएगी। सरकार इस समस्या को गंभीरता से ले रही है। हालांकि, अभी तक आयोगों में नियुक्तियों को लेकर कोई ठोस कार्ययोजना सार्वजनिक नहीं की गई है।
पीड़ित पक्ष बार-बार आवेदन देने के बावजूद सुनवाई न होने से न्याय के लिए दर-दर भटक रहे हैं। कई मामलों में पीड़ितों को कोर्ट का सहारा लेना पड़ा है।
मध्यप्रदेश में आयोगों की यह स्थिति सवाल उठाती है कि जब पीड़ितों को न्याय देने वाली संस्थाएं ही निष्क्रिय हो जाएं, तो आम जनता के अधिकारों की रक्षा कैसे होगी? महिला सुरक्षा, दलित सम्मान और आदिवासी कल्याण जैसे मुद्दों पर केवल घोषणाएं नहीं, बल्कि सक्रिय और प्रभावी संस्थागत प्रयासों की तत्काल जरूरत है।
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