सुप्रीम कोर्ट ने एक शारीरिक रूप से दिव्यांग उम्मीदवार की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक (DGHS) को व्यक्तिगत रूप से अदालत में उपस्थित होने का आदेश दिया है। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में आरोप लगाया कि उन्होंने NEET (राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा) में अर्हता प्राप्त कर ली थी और न्यूनतम योग्यता मानकों को पूरा किया, लेकिन उन्हें MBBS पाठ्यक्रम में प्रवेश से वंचित कर दिया गया। याचिका में यह तर्क दिया गया कि यह न केवल विकलांग अधिकार अधिनियम, 2016 का उल्लंघन है, बल्कि उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन भी है।
बिना किसी कारण दिव्यांगों के साथ हुआ भेदभाव
याचिकाकर्ता का कहना है कि मेडिकल काउंसलिंग कमेटी (MCC) और DGHS ने बिना किसी वैध कारण के उन्हें प्रवेश देने से इनकार कर दिया। यह फैसला उनके अधिकारों और कानून में उल्लेख किये गए विशेष प्रावधानों के खिलाफ है। विकलांग अधिकार अधिनियम, 2016, विशेष रूप से विकलांग व्यक्तियों को समान अवसर और गैर-भेदभाव के आधार पर शिक्षा एवं रोजगार में अधिकार प्रदान करता है। इसके बावजूद, याचिकाकर्ता को उनके विकलांगता प्रमाणपत्र को आधार बनाकर प्रवेश से वंचित किया गया।
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सुप्रीम कोर्ट ने जताई कड़ी आपत्ति
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस पंकज मित्तल की पीठ ने मामले में DGHS और MCC के "सामान्य दृष्टिकोण" को लेकर कड़ी आपत्ति जताई। अदालत ने कहा कि मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में विकलांग छात्रों के लिए पारदर्शिता और निष्पक्षता होना बहुत जरूरी है। कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की है कि यह मामला दिखाता है कि कैसे प्रशासनिक स्तर पर लापरवाही और भेदभावपूर्ण रवैया विकलांग उम्मीदवारों को उनके अधिकारों से वंचित करता है।
DGHS को तलब करने का जारी हुआ आदेश
कोर्ट ने स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक को निर्देश दिया है कि वे 15 दिसंबर, 2024 को व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश हों और मामले पर स्पष्टीकरण दें। अदालत ने कहा कि इस प्रकार की घटनाएं न केवल मेडिकल प्रवेश प्रणाली की खामियों को उजागर करती हैं, बल्कि विकलांग छात्रों के अधिकारों और उनकी गरिमा का भी उल्लंघन करती हैं। यह निर्देश अदालत की इस धारणा को दर्शाता है कि इस मुद्दे को उच्चतम स्तर पर गंभीरता से लिया जाना चाहिए। यह मामला दिव्यांग अभ्यर्थियों के व अधिकारों और उनके लिए अवसर सुनिश्चित करने की जरूरत को भी जाता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विकलांग उम्मीदवारों के लिए समान अवसर प्रदान करना और भेदभाव को समाप्त करना संवैधानिक जिम्मेदारी है। यह मामला इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि प्रशासनिक निकायों को अपने निर्णय लेने में अधिक जवाबदेही और पारदर्शिता लानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का यह कदम दिव्यांग अभ्यर्थियों के अधिकारों को सशक्त बनाने और उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की दिशा में एक बेहद अहम संदेश देता है। इस मामले की सुनवाई और DGHS की प्रतिक्रिया से यह तय होगा कि मेडिकल प्रवेश प्रक्रिया में विकलांग उम्मीदवारों के लिए किस प्रकार के सुधार लागू किए जाएंगे।
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