मुरैना और ग्वालियर का नाम अब सिर्फ डकैतों या सिंधिया राजघराने के लिए नहीं, बल्कि अपनी खस्ता और स्वादिष्ट गजक के लिए मशहूर है। सर्दियों में इस गजक की मांग देश-विदेश तक होती है। मुरैना की गजक, जो तिल और गुड़ से बनती है, अपने खस्तापन के कारण अलग पहचान रखती है। आज हम इस गजक के खस्तापन का राज खोलेंगे और बताएंगे उस X-फेक्टर के बारे में जिसने कभी चंबल को डाकू दिए आज वही स्वादिस्ट गजब के लिए भी जिम्मेदार है…
गुड़ ने बदली चंबल की तस्वीर
इस इलाके में 100 साल पहले गजक बेचना एक कठिन काम था। बुजुर्ग सिर पर टोकरी रखकर गजक बेचते थे। जौरा से गुड़ लाया जाता और उसमें तिल मिलाकर पपड़ी गजक बनाई जाती थी। जैसे-जैसे गजक की लोकप्रियता बढ़ी, इसकी पैकेजिंग और बिक्री के तरीके में बदलाव आए। 1970 के दशक में गजक को पॉलीथीन और बाद में डिब्बों में पैक किया जाने लगा, जिससे इसका स्वाद और खस्तापन लंबे समय तक बरकरार रहता है। दरअसल इस क्षेत्र में गन्ना उत्पादन के कारण बनने वाले गुड़ ने गजक उद्योग को संवारा, जो आज करोड़ों का कारोबार बन गया है।
खस्तापन का रहस्य
किसी जमान में डाकुओं की समस्या का सबसे बड़ा कारण चंबल नदी के पानी को माना जाता था। कहा जाता था कि चंबल का पानी है खराब है, जिसके कारण लोगों के मन में हिंसा और बदले की भावना इस कदर घर कर जाती है कि वे बंदूक उठाकर चंबल के बीहड़ों में उतर जाते हैं। आज मुरैना-ग्वालियर की गजक का खस्तापन उसी चंबल नदी के मीठे पानी और उच्च गुणवत्ता वाले तिल की वजह से है। तिल का अनुपात जितना अधिक होता है, गजक उतनी ही खस्ता बनती है। यही कारण है कि उत्तर भारत की अन्य गजक की तुलना में मुरैना की गजक अधिक पसंद की जाती है।
गजक का कारोबार और रोजगार
मुरैना और ग्वालियर में लगभग 350-400 गजक कारोबारी हैं, जो सालाना ₹150-200 करोड़ का व्यापार करते हैं। यह उद्योग करीब 5-6 हजार लोगों को रोजगार देता है। हालांकि तिल की बढ़ती कीमतों के कारण गजक के दाम भी बढ़ गए हैं। इस साल खस्ता गजक ₹350-₹400 प्रति किलो तक बिक रही है।
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