News Strike : मध्यप्रदेश की सियासत में सोमवार से लेकर आज तक में दो अहम घटनाएं हुई हैं। पहली कांग्रेस से आए रामनिवास रावत ने मंत्री पद की शपथ ली और दूसरी अमरवाड़ा उपचुनाव में आज कांग्रेस से भाजपाई हुए कमलेश शाह की चुनावी तकदीर ईवीएम में कैद हो गई। दोनों में एक समानता तो है कि दोनों ही दल बदलू हैं। दबाव में आए या मर्जी से ये अलग बात है, लेकिन दोनों में जो अंतर है वो बहुत गहरा अंतर है। कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक होते हुए भी रामनिवास रावत बहुत डरपोक निकले, जबकि कमलेश शाह हिम्मत वाले नेता साबित हुए। गाहे बगाहे वो भी मोहन मंत्रिमंडल में नजर आ सकते हैं, लेकिन आज हम बात करते हैं कि राम निवास रावत किस बात को लेकर डरे हुए थे।
विधानसभा सत्र के दौरान उड़ा कानून का मजाक
दल बदल राजनीति की एक हेल्दी परंपरा है या नहीं। इस पर हमेशा से ही विवाद रहा है। यही वजह है कि देश में सख्त दल बदल विरोधी कानून भी बना है, लेकिन ये कानून मध्यप्रदेश में पूरी तरह से बेमानी नजर आता है। या यूं कहें कि मध्यप्रदेश के नेताओं ने इस कानून का तोड़ ढूंढ लिया है। इस कानून को दरकिनार करने की परंपरा कांग्रेस विधायक सचिन बिरला से शुरू हुई और राम निवास रावत तक जा पहुंची है। कानून कैसे टूटा, विधानसभा सत्र के दौरान कैसे उस कानून का माखौल उड़ा। इस पर कुछ देर से चर्चा करते हैं। पहले ये बता दूं कि मैं क्यों मान रहा हूं कि रामनिवास रावत अब तक डरे हुए थे, जबकि उनके मुकाबले राजनीति के मैदान के जूनियर खिलाड़ी कमलेश शाह उनसे ज्यादा बहादुर निकले।
शपथ होते ही साफ कर दिया कि रावत ने इस्तीफा दे दिया है
ये समझने के लिए आपको मध्यप्रदेश की राजनीति के दो अहम घटनाक्रम देखने होंगे। जो अभी हाल में घटे हैं। या यूं कह लीजिए कि सोमवार लेकर आज तक यानी कि बुधवार तक में घटे हैं। हफ्ते की शुरुआत होती है कांग्रेसी विधायक रामनिवास रावत के मंत्री पद की शपथ लेने से कांग्रेसी इसलिए बोल रहा हूं क्योंकि मंत्रीपद की शपथ लेने तक ये साफ नहीं हुआ था कि रावत ने कांग्रेस से इस्तीफा दिया या नहीं। खुद कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी ने भी इस बात पर ऑब्जेक्शन भी किया। हालांकि, शपथ होते ही ये साफ कर दिया गया कि रावत ने इस्तीफा दे दिया है, लेकिन सवाल ये है कि आखिर इतने ड्रामे की जरूरत क्यों पड़ी। भई कमलेश शाह ने भी तो अमरवाड़ा विधानसभा सीट से कांग्रेस के टिकट से ही चुनाव जीता था। लोकसभा चुनाव से पहले जब वो बीजेपी का हिस्सा बने तब बकायदा उन्होंने अपनी सीट से इस्तीफा दे दिया। अगर रावत भी समय रहते इस्तीफा दे देते तो ये भी संभव है कि उनकी सीट पर भी उपचुनाव की तारीख मुकर्रर हो चुकी होती, लेकिन इतने तजुर्बेकार नेता होते हुए भी रामनिवास रावत ने नियमों का पालन करना क्यों जरूरी नहीं समझा। इस्तीफे से बचने के लिए राम निवास रावत ने कितने जतन भी किए और उन्हें विधानसभा में मान्य भी किया गया।
बीजेपी ने दलबदलू की आवभगत में कोई कसर नहीं छोड़ी
सदन शुरू होने से पहले ही कांग्रेस ये आग्रह किया था कि राम निवास रावत और निर्मला सप्रे दोनों को अलग सीट दी जाए क्योंकि दोनों ही कांग्रेस का हिस्सा नहीं हैं। ये बात मानी भी गई और दोनों को अलग सीट भी आवंटित कर दी गई। मजेदार बात ये है कि दल बदल का ढिंढोरा पीटने के बाद भी इस्तीफा न देने वाले ये दोनों नेता पांच दिन विधानसभा ही नहीं गए। क्योंकि वो जानते थे कि अगर सदन में जाएंगे तो कांग्रेस हंगामा कर सकती है और इस्तीफे का दबाव बढ़ सकता है। पर सवाल ये है कि जब दल बदल कर ही लिया था तो इस्तीफा देने में डर कैसा था। क्या रामनिवास रावत को इस बात का डर था कि बीजेपी उन्हें मंत्री नहीं बनाएगी। 2020 से लेकर अब तक जितने भी दल बदल हुए हैं उसमें कांग्रेस से आए बड़े नेताओं को बीजेपी ने भरपूर नवाजा है। फिर चाहें बात ज्योतिरादित्य सिंधिया की हो या उनके बाद आए दूसरे नेताओं की हो। बीजेपी ने किसी भी दलबदलू नेता की आवभगत में कोई कसर नहीं छोड़ी। जो खुद चुनाव नहीं जीत सके पार्टी उनके लिए जवाबदेह नहीं हो सकती। जब बीजेपी अपने वादों पर खरी उतरती रही है तो रामनिवास रावत को किस बात का डर था। क्या बीजेपी उन्हें मंत्री पद नहीं देती तो क्या रामनिवास रावत वापस कांग्रेस में लौट जाते। अगर वो वापस जाते भी तो क्या घर वापसी इतनी आसान होती। बेशक वो दिग्विजय सिंह के करीबी हो सकते हैं, लेकिन दल बदलने वाले नेताओं पर खुद राहुल गांधी सख्त रुख जाहिर कर चुके हैं। ऐसे में दिग्विजय सिंह क्या उनके फेवर में फैसला ले पाते, शायद नहीं।
शपथ लेने में गलती प्रक्रिया के तहत हुई थी या कुछ और
तो, फिर रावत अब तक इस्तीफे से क्यों बच रहे थे। क्या वो बीजेपी पर कोई मनोवैज्ञानिक दबाव डाल रहे थे। अगर इस सवाल का जवाब हां में है तो ये कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि उनका दबाव काम भी कर गया। बीजेपी ने उन्हें मंत्री पद से नवाजा और शपथ ग्रहण एक बार नहीं बल्कि, दो-दो बार हुआ। पहले ये खबर आई कि रावत को राज्य मंत्री बनाया गया है। बाद में अधिकारियों के हवाले से कहा गया कि रावत ने गलत शपथ ले ली है इसलिए पहली शपथ को रिकॉर्डस में नहीं लिया गया है। वो फिर से शपथ लेंगे। उसके बाद उन्होंने दोबारा मंत्री पद की शपथ ली। ये प्रक्रिया के तहत हुई गलती थी या पहले रावत को राज्य मंत्री की ही शपथ लेनी पड़ी थी और बाद में उसे मंत्री पद की शपथ में तब्दील कर दिया गया।
रावत वाले मामले में दल बदल की प्रक्रिया को ताक पर रखा
एक और अहम सवाल ये है कि अगर जब रावत मंत्रीपद की शपथ ले रहे थे, तब राज्यपाल के स्तर पर ये जानने की कोशिश क्यों नहीं की गई कि दल बदल कर आए विधायक ने अपनी पुरानी पार्टी से इस्तीफा दिया या नहीं। इस मामले में दल बदल की प्रक्रिया को पूरी तरह से ताक पर रख दिया गया। दल बदल विरोधी कानून के तहत अगर कोई नेता विधायक रहते हुए पार्टी बदलता है तो उसे विधायक का पद भी गंवाना पड़ता है और उसकी सीट पर उपचुनाव होते हैं। अगर पार्टी किसी भी कारण से विधायक या सांसद को बाहर करती है तो पद बरकरार रहता है और नेता किसी भी पार्टी में जाने कि लिए स्वतंत्र होता है। आसान भाषा में आप इस कानून को इसी तरह समझ सकते हैं। जिसका पालन कमलेश शाह ने किया, लेकिन रावत और सप्रे बचते रहे। विधायक सचिन बिरला के केस में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। विधायक रहते हुए 2021 में सचिन बिरला कांग्रेस से बीजेपी में शामिल हुए, लेकिन अपनी पार्टी से इस्तीफा नहीं दिया। इस मामले में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह ने विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम के सामने याचिका लगाई थी। जिसके जवाब में ये कहा गया कि बिरला की तरफ से न तो दल छोड़ने का पत्र मिला है न सदन में उन्होंने दल बदल जैसा कोई आचरण किया है। बदले में इसे कांग्रेस का ही मामला बताकर रफा दफा कर दिया गया। इसका नतीजा ये हुआ कि बिरला कांग्रेस में रहते हुए भाजपाई विधायक बने रहे और साल 2023 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के टिकट से चुनाव लड़े।
रावत के इस्तीफे का ऐलान भी तब ही हुआ जब उन्हें मंत्री बना दिया गया। तो इसे क्या कहा जाए। क्या ये कहना गलत नहीं होगा कि मध्यप्रदेश में खुलेआम दलबदल विरोधी कानून को तोड़ा जा रहा है। अपने डर के चलते या स्वार्थ पूरा होने तक राजनेता इसका गलत उपयोग नहीं कर रहे। अगर कर रहे हैं तो वो किस तरह की कार्रवाई के दायरे में आते हैं।
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