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News Strike : अंग्रेजी की एक बहुत मशहूर कहावत है हिस्ट्री रिपीट इटसेल्फ यानी कि इतिहास खुद को दोहराता है। और कांग्रेस के मामले में तो इतिहास खुद को बार-बार और बहुत जल्दी-जल्दी दोहरा रहा है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के साथ जो हुआ वही हरियाणा में हो गया। लेकिन कांग्रेस इस इतिहास से सीख लेने का नाम नहीं ले रही है। कांग्रेस अगर चार साल बाद मप्र में जीत हासिल करना चाहती है तो उसे आज से ही किन गलतियों से तौबा करना होगा। जो वो हरियाणा में कर चुकी है।
कांग्रेस को सीख लेने की जरूरत
हरियाणा की हार के बाद कांग्रेस को अब सीख लेने की जरूरत है। वैसे ये सीख एमपी में मिली करारी हार के बाद ही ले लेनी थी। लेकिन उस वक्त लोकसभा चुनाव सामने थे। कांग्रेस उसकी तैयारी में जुट गई। लोकसभा में भी कांग्रेस ने ठीक ठाक नंबर हासिल किए और कम से कम नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी तो बचा ही ली। उसके बाद से कांग्रेस की गाड़ी तेजी से चल निकली। चाहें सोशल मीडिया हो या फिर मीडिया ही क्यों न हो राहुल गांधी को स्पेस मिलने लगी। लेकिन हरियाणा के चुनावी नतीजों ने हवा ही बदल दी। वैसे तो कांग्रेस ने अपने अलायंस के साथ जम्मू कश्मीर में चुनाव जीता है लेकिन उसकी जीत से ज्यादा हार की चर्चा हो रही है। हार की चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि कांग्रेस एक जीती जिताई बाजी हार गई। हरियाणा का इलेक्शन कांग्रेस के लिए बहुत आसान दिख रहा था। ठीक उसी तरह जितना अब से करीब साल भर पहले एमपी का इलेक्शन कांग्रेस के लिए आसान दिख रहा था। लेकिन कांग्रेस ने यहां बुरी तरह मुंह की खाई। इसके बावजूद कांग्रेस ने एमपी की हार से सबक नहीं लिया और वही गलतियां हरियाणा के इलेक्शन में भी दोहराई। यहीं से कांग्रेस और बीजेपी का मूल अंतर शुरू होता है। बहुत तेजी से यात्राएं करने की जगह कांग्रेस को कुछ देर बैठ कर ये आकलन करना चाहिए कि चूक आखिर कहां हुई। बीजेपी न सिर्फ अपनी गलतियों पर काम करती है बल्कि उन्हें दूर करने के लिए माइक्रोमैनेजमेंट के लेवल पर जाती है।
हार की सबसे बड़ी वजह कांग्रेस में ओवर कॉन्फिडेंस
अगर कांग्रेस मध्यप्रदेश में वापसी करें तो उसे आज से ही ये कोशिश शुरू करनी होगी। ये सोचकर बैठना कि अभी चुनाव में बहुत वक्त है कांग्रेस के लिए बड़ी गलती साबित हो सकता है। कुछ गलतियां ऐसी हैं जिन्हें करने से कांग्रेस को यहां बचना भी चाहिए। कांग्रेस की वो गलतियां जो हरियाणा में पार्टी ने की और नतीजा ये हुआ कि जीत की जलेबी का स्वाद चखने की जगह हार का जहर पीने पर मजबूर हो गए। हरियाणा में हार की सबसे बड़ी वजह कांग्रेस में ओवर कॉन्फिडेंस है। लोकसभा में जीतने के कारण कांग्रेस ने मान लिया कि जनता ने उन्हें मोहब्बत की दुकान सजाने की मंजूरी दे दी है। सेम ट्रैक पर कांग्रेस हरियाणा के इलेक्शन में भी कूद गई। उसी तरह संविधान लहरा कर भाषण देना। उसी तरह राहुल गांधी की यात्राओं को बढ़ा चढ़ा कर पेश करना। ये सब लोकसभा चुनाव में खूब चला लेकिन विधानसभा में मसला घर का था। यहां संविधान बचाने के साथ-साथ घर से जुड़ी बातें होती तो शायद ज्यादा बेहतर रिजल्ट मिलते। लोकसभा के लोकल मुद्दों को विधानसभा का लोकल मुद्दा नहीं माना जा सकता। जिन मुद्दों पर लोकसभा में कॉन्फिडेंस था उन्हीं मुद्दों के साथ विधानसभा में उतरना कांग्रेस का ओवरकॉन्फिडेंस बन गया।
जमीनी नेटवर्क की कमी
हरियाणा चुनाव में हार का दूसरा बड़ा कारण जमीनी नेटवर्क की कमी है। हरियाणा में बहुत से ऐसे बूथ बताए जा रहे हैं जहां कांग्रेस के कार्यकर्ता मौजूद ही नहीं थे। आप ने कुछ दिन पहले बीजेपी के सदस्यता अभियान की खबरें जरूर सुनी होंगी। जो पार्टी लोकसभा चुनाव जीत चुकी है और कई राज्यों की विधानसभा में जो काबिज है। वो पार्टी कार्यकर्ताओं की चिंता क्यों कर रही है ये बात कांग्रेस को समझनी होगी। बीजेपी की जीत का फेस भले ही पीएम मोदी हों लेकिन बीजेपी ने कभी कार्यकर्ताओं के नेटवर्क की अनदेखी नहीं की। बल्कि खुद पीएम मोदी से लेकर पार्टी के बड़े बड़े नेता तक निचले लेवल की नेटवर्किंग को मजबूत करने में फोकस करते हैं। कार्यकर्ताओं से सीधे संवाद भी करते हैं। एमपी में विधानसभा चुनाव भले ही चार साल बाद हों लेकिन कांग्रेस को आज से एक्टिव होना होगा। इसका बड़ा उदाहरण बीजेपी को ही मान लेना चाहिए जो जीत के बाद भी सदस्यता अभियान चलाकर अपने नेटवर्क को आज से मजबूत कर रही है।
समस्याओं पर बात करना
हार का तीसरा बड़ा कारण समस्याओं पर बात करना है। हरियाणा के लिहाज से बीजेपी ने बहुत कुछ गलत किया। किसान से लेकर पहलवान तक बीजेपी से नाराज हैं। अग्नीवीर को लेकर भी नाराजगी रही। कांग्रेस इस नाराजगी पर तो ध्यान दिया लेकिन इसका कोई सॉल्यूशन नहीं दे सकी। हम एक आम मतदाता के नजरिए से देखें तो उनके सामने एक विकल्प था जो कुछ भी नहीं है और दूसरा विकल्प है जो कम से कम डबल इंजन की सरकार चलाने का दिलासा तो देता है। मतदाता ने भी उसी सरकार को चुना जहां उन्हें लगा कि सब ठीक भले ही न हो लेकिन कुछ हद तक तो हालात बेहतर होंगे। कांग्रेस को अब अगला चुनाव जीतना है तो सिर्फ समस्याओं पर खेलने से कुछ हासिल नहीं होगा। मतदाता के पास उन समस्याओं का समाधान बनकर जाना होगा। सीधी भाषा में कहें तो बीजेपी का विकल्प बनना होगा सिर्फ बीजेपी की कमियां गिनाने वाला मॉनिटर बनने से काम नहीं चलेगा।
सही फैसले लेने से कतराना
हार का चौथा बड़ा कारण सही फैसले लेने से कतराना है। कभी भी कोई फैसला लेने की बारी आती है तब कांग्रेस मंथन पर मंथन करती है। मीटिंग का दौर चलता है लेकिन जब फैसला सामने आता है तो बात ढाक के तीन पात की तरह होती है। राहुल गांधी के लिए कहा जा रहा है कि वो जान का रिस्क लेकर यात्राएं कर रहे हैं। लेकिन चेहरा बदलने का रिस्क लेने से कांग्रेस आज भी डरती हुई नजर आती है। हरियाणा की बात करें तो यहां बीजेपी ने अनिल विज जैसे नेता को दरकिनार कर एक नए चेहरे को सीएम बनाया और जीत हासिल की। ऐसे फैसले लेने से कांग्रेस हर बार पीछे हो जाती है। ये कांग्रेस को समझना होगा कि एक ही ढर्रे पर चलते हुए कुछ हासिल होने वाला नहीं है। वक्त बदला होगा सूरत और हाल दोनों बदलने होंगे। बीजेपी जब चेहरा चुनती है तो उसके पीछे सिर्फ कुछ रिपोर्ट्स ही काम नहीं करती बल्कि बीजेपी का अपना पूरा एक साइंस है जो काम करता है। कांग्रेस को भी अपनी लैब में वैसा ही कोई विज्ञान डेवलप करना होगा। इसकी जरूरत अब बहुत ज्यादा हो गई है। इस फैसले में सिर्फ प्रत्याशियों के चेहरे ही नहीं आते उन अलायंस के भी चेहरे आते हैं जो आपकी लाज बचा सकते हैं। जैसे जम्मू कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने बचाई है।
लोकसभा चुनाव के बाद वो खुद रास्ता भटक गए
कोर आइडियाज क्लियर करने की जरूरत भी अब कांग्रेस में है। ये मुद्दा किसी प्रदेश में नहीं बंधा लेकिन कांग्रेस अब तक ये साफ नहीं कर सकी कि उसकी कोर आइडियोलॉजी क्या है। मोहब्बत की दुकान के भरोसे राहुल गांधी बहुत सही रास्ते पर निकले थे। यही रास्ता उनको लोकसभा तक दमदार बता रहा था। लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद वो खुद रास्ता भटक गए और जातिगत जनगणना के मुद्दे पर आ गए। इससे वोटर कंफ्यूज हो गया कि ये मोहब्बत की दुकान है या जातियों में बांटने की दुकान है। इस पर बीजेपी के बटेंगे नहीं के नारे ने नहले पर दहला मार दिया और मोहब्बत की दुकान सजते सजते रह गई। कांग्रेस भले ही देश की सबसे पुरानी पार्टी का तमगा अपने साथ लेकर चल रही हो लेकिन कुछ कामों की शुरुआत नए सिरे से करनी ही होगी। तब ही वो उन प्रदेशों में वापसी के सपने सजा सकती है जहां वो सिमटती जा रही है। देर तो खैर बहुत पहले ही हो चुकी है लेकिन नई शुरूआत में हिचकने से पहले उस तरफ कदम बढ़ाना जरूरी है।