News Strike : राहुल गांधी तैयार, जीतू पटवारी और उमंग सिंगार कब होंगे? अगर आप मध्यप्रदेश की राजनीति से जरा सा भी वास्ता रखते हैं और नेशनल लेवल की सियासत की समझ भी रखते हैं तो आप भी जरूर इस सवाल का जवाब जानना चाहेंगे। पिछले तीन चार दिन से राहुल गांधी के तेवर सुर्खियों में बने हुए हैं। वो राहुल गांधी जिसे अब तक सोशल मीडिया पर अलग-अलग नाम मिलते रहे, उसकी स्पीच अब सबसे ज्यादा हिट्स हासिल कर रही है। नेता प्रतिपक्ष बनते ही राहुल गांधी ने जैसे ऐलान ए जंग कर दिया है। कांग्रेस में नेशनल लेवल पर जो एग्रेशन दिख रहा है वो एमपी में पूरी तरह मिसिंग है। यही वजह है कि एक सवाल का जवाब हर वो शख्स जानना चाहता है जो सियासत में थोड़ा बहुत भी दखल रखता है।
2003 से कांग्रेस सत्ता वापसी की बाट जोह रही है
मध्यप्रदेश में कांग्रेस अब तक के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। बेशक आज राहुल गांधी ने लोकसभा में 99 सीटें हासिल कर, ये मैसेज दे दिया है कि कांग्रेस अब रिवाइवल मोड में आ चुकी है। अब ये पुरानी कांग्रेस नहीं है, लेकिन ये मोड अब तक मध्यप्रदेश में ऑन नहीं हुआ है। मैंने अभी कहा कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस अब तक के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। ऐसा क्यों कहा इसकी भी एक एक कर वजह मैं आपको गिनवाता जाऊंगा, लेकिन अभी बात करते हैं कि कांग्रेस से इन सवालों की जरूरत आखिर क्यों पड़ रही है। सबसे पहले ये बताइए कि क्या आपने राहुल गांधी की लोकसभा वाली पूरी स्पीच सुनी है। अगर नहीं सुनी तो उसके एक दो की प्वाइंट आपको बता देता हूं। राहुल गांधी ने नीट, मणिपुर जैसे मुद्दों पर सरकार को घेरा, चुनाव से पहले पीएम मोदी के कुछ भाषणों पर चुटकी ली और एक सबसे अहम बात कही। उन्होंने कहा कि अब हम गुजरात में बीजेपी के हराएंगे। सही बात है कांग्रेस को गुजरात में भी अपने रिवाइल पर ध्यान देना जरूरी है। जहां बहुत सालों से वो सत्ता से बाहर है, लेकिन जब कांग्रेस का सबसे आला लीडर गुजरात की बात कर रहा है तो वो एमपी को क्यों भूल रहा है। यहां कांग्रेस के हाल क्या गुजरात से अलग है। 2003 से यहां कांग्रेस सत्ता वापसी की बाट जोह रही है। 2018 में ये मौका एक बार मिला, लेकिन उस दौरान भी कांग्रेस लीडर आपसी लड़ाई में ऐसे उलझे की बीजेपी फिर सत्ता वापसी करने में कामयाब रही।
करारी हार के बाद भी कांग्रेस नहीं जागी
इसके बाद लोकसभा में तो हालात और भी बुरे हो गए। कांग्रेस ये बखूबी जानता थी कि उसके पास यहां लोकसभा की सिर्फ एक ही सीट है, लेकिन उसे बचाने की और दूसरी सीटों पर मेहनत करने की कोई कोशिश नजर नहीं आई। सिवाय इसके की पार्टी ने कुछ दिग्गज नेताओं को वोट दे दिए। इस करारी हार के बाद भी कांग्रेस जागी नहीं है। विधानसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस ने चेहरे जरूर बदले हैं, लेकिन उन चेहरों के पास अपनी न कोई टीम है न मजबूत संगठन है और ये टीम कब तक बनेगी, इसका कोई जवाब भी कांग्रेस के पास नहीं है।
कांग्रेस में तो अध्यक्ष ही डिक्लीयर हो पाया
विधानसभा चुनाव के बाद दो लीडर्स की टीम पर जानकारों की नजर है। एक टीम मोहन पर और एक टीम जीतू पटवारी पर। कांग्रेस ज्यादा फोकस में इसलिए है कि पार्टी ने लंबे समय बाद लीडरशिप में बड़ा बदलाव किया है। अब तक प्रदेश कांग्रेस का झंडा बुलंद रखने वाले नेताओं को पार्टी ने पीछे कर दिया है और जीतू पटवारी और उमंग सिंगार जैसे नए नेताओं को कमान सौंप दी है, लेकिन लीडर तब लीडर बनता है, जब उसके पीछे लोग खड़े हों। कांग्रेस में तो आलम ये है कि यहां अध्यक्ष तो डिक्लीयर हो चुका है, लेकिन अब तक संगठन खड़ा नहीं हो सका है।
अमरवाड़ा चुनाव को देखते हुए टीम का गठन टल सकता है
भले ही कांग्रेस हाईकमान ने विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद प्रदेश की कमान जीतू पटवारी को सौंप दी थी, लेकिन वे संगठन के मामले में अन्य अध्यक्षों की ही तरह अपनी टीम का गठन नहीं कर सके हैं। अब अमरवाड़ा चुनाव को देखते हुए ये मामला और भी ज्यादा टल सकता है। इसकी दो वजह सामने आ रही हैं पहली तो पार्टी लेवल पर खुद कांग्रेस लीडर्स ये नहीं चाहते कि कोई बड़ा डिसीजन लेकर मनमुटाव और गुटबाजी को और सामने लाया जाए। दूसरा रीजन ये है कि अमरवाड़ा चुनाव में जीत की संभावनाएं कम देखते हुए पार्टी के दिग्गज इससे दूर ही रहने की कोशिश में है। जिसका खामिया आखिरकार जीतू पटवारी को ही भुगतना होगा कि वो जीती हुई सीट भी गंवा चुके हैं।
कांग्रेस को वजूद बचाने औपचारिक बैठकों से काम नहीं चलेगा
जीतू पटवारी को अध्यक्ष बने अब चार महीने पूरे हो चुके हैं। इसके बाद भी टीम का गठन नहीं होने से कार्यकर्ताओं में निराशा नजर आने लगी है। कांग्रेस नेशनल लेवल पर जरूर बड़े-बड़े फैसले और तेज कार्रवाई करती दिख रही है, लेकिन मध्यप्रदेश में अब भी ढीला रवैया लगातार दिखाई दे रहा है। हालांकि, यहां बैठकों का दौर जरूर जारी है। कांग्रेस ने एक फैक्ट फाइंडिंग टीम जरूर बना दी है। जो ये तलाश रही है कि पार्टी की कमजोर कड़ी कौन है जो हार का कारण बन रही है। इसी रिपोर्ट के आधार पर पार्टी नए संगठन के गठन की कोशिशें शुरू करेगी। पीसीसी चीफ जीतू पटवारी भी साफ कर चुके हैं कि प्रदेश संगठन को मजबूत करने के लिए जांच समिति के निष्कर्षों के आधार पर ही पार्टी में बदलाव किए जाएंगे। इससे तय है कि नई टीम के लिए अभी और इंतजार करना होगा। बैठकें विधानसभा चुनाव के प्रत्याशियों के साथ भी हो रही है। इसके बाद जिलाध्यक्ष और उपाध्यक्षों के साथ भी होंगी उसके बाद टीम पटवारी की तरफ कांग्रेस कदम बढ़ाएगी। ठीक है ये सारी कवायदें होनी चाहिए, कांग्रेस के लिए जरूरी भी है। क्योंकि कांग्रेस को अगर अब अपना नामोनिशान बचाना है तो सिर्फ औपचारिक बैठकों से काम नहीं चलेगा ठोस रणनीति पर बात करनी होगी।
अब मैं आपको बताता हूं वो आंकड़े जो ये जाहिर कर रहे हैं कि कांग्रेस क्यों प्रदेश में अब तक के सबसे बुरे दौर में है। इसके लिए हम बात करते हैं। लोकसभा चुनाव के कुछ पुराने आंकड़ों की। छत्तीसगढ़ विभाजन के बाद प्रदेश में 29 लोकसभा सीटें बचीं।
- 2004 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने जीती 25 सीटें और चार पर कांग्रेस काबिज ही।
- 2009 में बीजेपी 16 सीटों पर सिमटी। कांग्रेस ने जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए 12 सीटें अपने नाम की और एक पर बसपा काबिज हुई। बस इसके बाद से कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिर रहा है।
- 2014 में कांग्रेस दो सीटें जीतीं।
- 2019 में एक सीट जीती और 2024 में जीरो पर आ चुकी है।
- विधानसभा में भी हाल बुरा रहा है। 2018 में चंद सीटों से जीतने वाली कांग्रेस 2020 के उपचुनाव के बाद 109 से सीधे 96 सीटों पर आ गई और इस विधानसभा चुनाव में ये आंकड़ा 66 सीटों पर आ चुका है।
शायद ये सवाल कुछ वक्त और बना रहे कि कब बनेगी टीम जीतू पटवारी...
तो राहुल गांधी जब ये हुंकार भरते हैं कि अगला नंबर गुजरात का होगा। तब क्या उनके जेहन में कहीं मध्यप्रदेश का ख्याल आता है। ये माना जा सकता है कि विधानसभा चुनाव में तो अब करीब साढ़े चार साल का वक्त है, लेकिन स्थानीय चुनाव उससे पहले ही शुरू हो जाएंगे। जिन्हें असल शक्ति परीक्षण माना जाएगा। तो, क्या कांग्रेस के पास उन चुनाव की तैयारी की कोई प्लानिंग है। जाहिर है इसका जवाब तब तक हां में नहीं हो सकता। जब तक एक मजबूत टीम खड़ी न हो जाए और मजबूत टीम बनाने के लिए कांग्रेस को गुटबाजी से ऊपर तो उठना ही होगा। लगातार जीत के बाद भी ये गुटबाजी कांग्रेस में खत्म नहीं हुई है। अब भी कुछ लीडर्स जीतू पटवारी की लीडरशिप को एक्सेप्ट नहीं कर सके हैं। ऐसे में टीम पटवारी का तैयार होना और मजबूत होना बहुत मुश्किल नजर आता है और शायद ये सवाल कुछ और वक्त तक यूं ही बना रहे कि कब बनेगी टीम जीतू पटवारी।
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