पुलिस स्वास्थ्य सुरक्षा योजना: आरक्षक की पुकार पर प्रोटोकॉल भारी, जब विभाग ही न सुने तो पुलिसकर्मी कहां जाएं?

मध्यप्रदेश पुलिस स्वास्थ्य सुरक्षा योजना पर सवाल। आरक्षक को अस्पताल ने कैशलेस इलाज से किया इंकार, शीर्ष अधिकारियों ने मदद की जगह आपत्ति जताई।

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Amresh Kushwaha
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तुम ही न सुनोगे तो फिर कौन सुनेगा हमें,
दर्द-ए-दिल को बयान, अब कहां ले जाएं हम।

मध्यप्रदेश पुलिस मुख्यालय (PHQ) से जारी हालिया पत्र ने पुलिस संगठन की संवेदनशीलता पर गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है- यदि सबसे निचले स्तर का जवान, यानी आरक्षक, अपनी समस्या लेकर सीधे वरिष्ठ अधिकारियों तक पहुंचता है। उसकी आवाज औचित्यहीन ठहरा दी जाती है, तो फिर उसकी सुनेगा कौन? पहली नजर में मामला सामान्य लग सकता है, लेकिन सवाल वही है कि यदि तुम ही न सुनोगे तो कौन सुनेगा?

चलिए पहले पूरी कहानी जानते हैं…

मामला भोपाल स्थित भदभदा कैंप का है। यहां पदस्थ एक आरक्षक ने पुलिस स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (पीएचपीएस) के तहत इलाज कराने की कोशिश की। योजना का दावा है कि पुलिसकर्मियों और उनके परिवारों को अनुबंधित अस्पतालों में कैशलेस उपचार मिलेगा। लेकिन जब आरक्षक इलाज के लिए अस्पताल पहुंचा, तो उसे यह सुविधा नहीं मिली। मुश्किलों और तनाव में घिरे जवान ने आखिरकार सीधे विशेष पुलिस महानिदेशक (कल्याण) को फोन लगा दिया। The Sootr को मिली जानकारी के अनुसार स्पेशल डीजी आईपीएस अनिल कुमार ने उस जवान से बात की थी।

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लेकिन हाथ लगी निराशा...

यह सही है कि पुलिस में अनुशासन बनाए रखने के लिए सिस्टम को फॉलो किया जाता है। इसे किसी भी हाल में तोड़ा नहीं जाना चाहिए, लेकिन मानवीयता का क्या! जब अंतिम पंक्ति का आदमी पूरे सिस्टम से हार जाता है, तभी वह सर्वोच्च अधिकारी के पास फरियाद लेकर पहुंचता है। चाहे वह सीएम हेल्पलाइन हो या फिर विशेष पुलिस महानिदेशक (कल्याण)... खैर, अपेक्षित सहानुभूति की जगह परेशान पुलिसकर्मी को सूखा सा जवाब मिला- यह औचित्यपूर्ण नहीं है।

आरक्षक को समझाया गया कि उसे पहले अपनी यूनिट के मेडिकल लिपिक से, फिर इकाई प्रमुख से, और उसके बाद ही पुलिस मुख्यालय के डीएसपी स्तर के अधिकारी से फोन करना चाहिए। इतना ही नहीं, बाकायदा एक विभागीय पत्र भी जारी कर हेल्पलाइन के नंबर भी जारी कर दिए गए।

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सवाल यह है कि…

क्या एक बीमार जवान, जिसे अस्पताल से इलाज से मना कर दिया गया है, उस वक्त प्रक्रियाओं की सीढ़ियां गिनता है?

क्या ऐसा सिस्टम, जो तात्कालिक राहत की जगह प्रोटोकॉल पर बल देता हो, वर्दीधारी जवान की जिंदगियों के लिए संवेदनशील कहा जा सकता है?

सवाल यह है कि जब एक जवान बीमारी या इलाज की जद्दोजहद में फंसा हो, और सबसे पहले सामने आने वाला अस्पताल ही कैशलेस इलाज से मना कर दे, तो क्या वह लंबी प्रक्रिया के चक्कर में अपनी जान दांव पर लगा दे? अगर उसकी तत्काल सुनवाई सीधे शीर्ष अधिकारी स्तर पर भी नहीं हो सकती, तो इस सिस्टम पर भरोसा कैसे जगेगा?

यह सिर्फ एक फाइल या आदेश का मसला नहीं है। यह उस कांस्टेबल की मानसिक स्थिति की कहानी है, जिसे न अस्पताल ने सुना, न विभाग ने तत्काल राहत दी। सोचिए, अगर वह किसी गंभीर संकट में है, पैसे नहीं हैं, और प्रक्रिया की सीढ़ियां चढ़ने में वक्त निकल जाता है- तो उस वक्त वह किसके पास जाएगा?

पुलिस बल को ही अनुशासन और प्रोटोकॉल की ड्यूटी समझाते वक्त यह नहीं भूलना चाहिए कि हर वर्दी के पीछे एक इंसान भी है। एक आरक्षक, जो चौकी या सड़क पर तैनात रहता है, जनता की पहली मदद होता है। लेकिन जब उसी को मदद की जरूरत पड़े और उसकी आवाज प्रक्रियाओं में दबा दी जाए, तो उसकी निराशा किस हद तक बढ़ेगी?

मानवीय दृष्टिकोण से बड़ी चिंता

पुलिस बल में आरक्षक ही वह चेहरा है, जो चौक-चौराहों से लेकर थाने और गश्त तक पर तैनात रहता है। जनता का पहला संपर्क बिंदु वही होता है। 24 घंटे ड्यूटी, छुट्टी का अभाव, और तनावग्रस्त वातावरण पहले से ही उसकी जिंदगी का हिस्सा हैं। और जब स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्या में भी वह राहत नहीं पा सके, तो उसकी मानसिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।

एक तरफ पुलिस मुख्यालय कहता है कि जवानों का कल्याण प्राथमिकता है, पर दूसरी तरफ जब वही जवान मुश्किल में आकर सीधे मदद मांग लेता है, तो उसे "प्रोटोकॉल तोड़ने" का दोषी ठहरा दिया जाता है।

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मानसिक दबाव की अनदेखी

अध्ययन बताते हैं कि पुलिस जवान भारी तनाव, अनिश्चित कार्य घंटों और सामाजिक दबाव से गुजरते हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर कोई व्यवस्थित ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसे में जब इलाज या सुविधा न मिलने पर आरक्षक को यह भी एहसास कराया जाता है कि उसने गलत दरवाजा खटखटाया, तो उसका मनोबल कितना टूटता होगा?

यह घटना सिर्फ प्रक्रियागत गड़बड़ी नहीं, बल्कि एक संकेत है- पुलिस बल के भीतर संवाद और सहानुभूति की कितनी कमी है।

बड़ा सवाल

यदि अस्पताल इलाज से मना कर दे तो जवान कहां जाए?

क्या इलाज पाने का अधिकार सिर्फ कागजों पर रह जाएगा?

जब पुलिस संगठन अपने सबसे छोटे प्रहरी की सीधी गुहार तक नहीं सुनेगा, तो उस जवान को अपने ही सिस्टम से भरोसा कैसे रहेगा?

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