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Harda Forest Photograph: (The Sootr)
BHOPAL. गुलाम भारत में अंग्रेजों ने देश को सिर्फ विभाजन का दंश ही नहीं दिया, बल्कि देश के कुछ हिस्सों में अंचल संपत्तियों से जुड़े कुछ ऐसे कारनामे भी किए, जो आज भी स्थानीय लोगों को साल रहे हैं। हरदा जिले की टिमरनी तहसील अंतर्गत राजा बरारी इस्टेट नाम से पहचाना जाने वाला करीब आठ हजार एकड़ का जंगल भी इन्हीं में एक है।
आजादी से पहले वर्ष 1918 तक इस पर एक अंग्रेज विनीफ्रेड मरे का कब्जा था। जो संभवतया उनके शिकार व अन्य शौक को पूरा करने के लिए हथियाआ गया हो। मरे के निधन के बाद, जंगल उनकी पत्नी फ्रांसिस विनीफ्रेड मरे के अधिपत्य में आ गया।
सालभर बाद ही फ्रांसिस ने यह संपत्ति अपने खास सहयोगी सर आनंद स्वरूप को सौंप दी और करीब छह साल बाद आनंद ने इसे दयालबाग आगरा के राधा स्वामी सत्संग सभा को गिफ्ट कर दिया।
1980 के दशक में वन कानून प्रभावी हुआ तो सभा ने राधा स्वामी ट्रेनिंग एम्पलायमेंट एंड आदिवासी अपलिफ्ट इंस्टीट्यूट नामक नई संस्था बनाकर पूरी जमीन इसे हस्तांतरित कर दी।
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75 सालों में सरकार नहीं ले सकी कब्जा
साल 1950 में जमींदारी उन्मूलन एक्ट लागू होने पर राजा बरारी इस्टेट भी राज्य सरकार की संपत्ति हो गया,लेकिन सरकार कभी इसका कब्जा हासिल नहीं कर सकी।
बल्कि तत्कालीन अधिकारियों की मिलीभगत से नाम मात्र के शुल्क पर पहले 1953 फिर 1955,1973-74 और अंतिम बार 1983-84 में कभी लीज तो कभी पट्टे पर देकर उक्त निजी संस्था को काबिज रखा गया।
हैरत की बात यह कि यह सब आठ हजार एकड़ में से कुछ एकड़ जमीन पर बसे तीन गांव राजा बरारी, टेमरू बहार व सालई ठेकेदारी गांव के चंद आदिवासियों के कल्याण के नाम पर किया गया।
आदिवासी व सरकार दोनों विरोध में
राजाबरारी इस्टेट में आदिवासी कल्याण के नाम पर काबिज संस्था के खिलाफ न स्वयं आदिवासी बल्कि सरकार भी है। ताजा मामला हरदा कलेक्टर आदित्य सिंह की वह कार्यवाही है, जिसमें उन्होंने संस्था के अपंजीकृत लीज का नवीनीकरण करने से इंकार कर दिया है।
इससे पहले साल 2011 में नर्मदापुरम के तत्कालीन संभागायुक्त मनोज श्रीवास्तव भी वन भूमि पर निजी संस्था के खिलाफ रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी।
इसमें उन्होंने खुलासा किया कि वर्ष 1980 में लागू वन संरक्षण अधिनियम के तहत संस्था के लीज नवीनीकरण से पहले भारत शासन की अनुमति ली जानी चाहिए थी, लेकिन आदिवासियों के कल्याण के नाम पर इसकी अनदेखी हुई। यही नहीं, पूर्व के वर्षों में हुई लीज भी पंजीकृत नहीं होने से इसे साक्ष्य नहीं माना जा सकता।
इसी रिपोर्ट में कहा गया कि संस्था ने लीज की शर्तों का भी ईमानदारी से पालन नहीं किया। धारा 12 मप्र वन भूमि शाश्वत पट्टा प्रतिसंहरण अधिनियम के मुताबिक जंगल से होने वाले शद्ध मुनाफे 60 फीसद आदिवासियों पर और 20 फीसद राशि सरकारी खजाने में जमा की जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। उन्होंने संस्था की लीज को निरस्त करने की सिफारिश भी की थी।
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जयस कर चुका है विरोध
संस्था की कारगुजारी का स्वयं आदिवासी भी विरोध करते रहे हैं। करीब तीन साल पहले जय युवा आदिवासी संगठन यानी जयस के कार्यकर्ता व स्थानीय आदिवासियों ने प्रदर्शन कर तीखा विरोध दर्ज कराया था। कुछ कार्यकर्ताओं ने संस्था के कार्यालय में तोड़फोड़ भी की थी।
' द सूत्र ' ने तब इस मामले को भी प्रमुखता से उठाया था। यही नहीं,साल 2021 में ही संस्था के पदाधिकारियों ने एक आदिवासी के घर के सामने फेसिंग कर दी। शिकायत पर मौके पर पहुंचे तहसीलदार से मारपीट किए जाने पर संस्था के तीन पदाधिकारियों के खिलाफ थाना रहटगांव में आपराधिक मामला दर्ज किया गया।
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वन विभाग लगातार दे रहा सेवा
खास बात यह,कि प्रशासनिक अधिकारियों की प्रतिकूल रिपोर्ट के बावजूद वन विभाग इस संरक्षित लेकिन विवादित वन क्षेत्र के लिए लगातार अपनी सेवाएं दे रहा है।
विभाग की ओर से न केवल इस संरक्षित क्षेत्र की कार्य आयोजना तैयार की जाती रही है, बल्कि इसके अनुरूप प्रबंधन,संरक्षण,इमारती व जलाऊ लकड़ी की कटाई व इनकी नीलामी के बाद प्राप्त राशि को संस्था के खाते में जमा भी किया जाता है।
इस काम को विभाग की अलग-अलग शाखाएं अंजाम दे रही हैं। वन क्षेत्र में तेंदूपत्ता संग्रहण व लघु वनोपज का कार्य स्थानीय आदिवासियों के माध्यम से कराकर इनकी नीलामी राज्य लघु वनोपज संघ के माध्यम से की जाती है।
सूत्रों के मुताबिक एक हेक्टेयर वन क्षेत्र के संरक्षण पर प्रति वर्ष करीब डेढ़ लाख रुपए सरकारी खजाने से व्यय होते है। इस तरह,राजा बरारी इस्टेट के 3232.631 हेक्टेयर के सिर्फ संरक्षण पर ही करोड़ो रुपए खर्च किए जा रहे हैं,जबकि इस इस्टेट से सरकार का मुनाफा शून्य है।
राजस्व बोर्ड तक पहुंचा केस
सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक राजा बरारी इस्टेट वन संरक्षित घोषित होने के बाद यह वन भूमि है,जबकि इस पर काबिज संस्था उसे मिली लीज की हवाला देकर इसे राजस्व भूमि बताती रही है। इसके चलते संस्था की ओर से यह मामला राजस्व बोर्ड भी पहुंचा और वर्तमान में अपीलीय स्थिति में बताया जाता है।
वहीं,एक अन्य केस में इसके स्वामित्व का प्रकरण उच्च न्यायालय में भी विचाराधीन है। जबकि वन विभाग के जिम्मेदार अफसर आज भी अपने मैदानी अफसर की रिपोर्ट के अंतहीन इंतजार का हवाला दे रहे हैं।
वन विभाग दे चुका है क्लीन चिट
राजा बरारी इस्टेट में निजी संस्था के मालिकाना हक को लेकर वन विभाग शुरुआत से ही दरियादिली दिखाता रहा है। साल 2008 में हुई एक जांच में भी उसने न केवल संस्था की तारीफ में कसीदे गढ़े बल्कि उसकी सामाजिक गतिविधियों का हवाला देते हुए लीज शर्तों का पूरी तरह पालन होने का हवाला भी अपनी रिपोर्ट में दिया।
यह 6 सदस्यीय जांच समिति तत्कालीन एपीसीसीएफ डॉ अनिमेष शुक्ला की अध्यक्षता में गठित की गई थी। इसके सिर्फ एक सदस्य तत्कालीन संभागीय उपायुक्त आदिम जाति कल्याण ने अपनी प्रतिकूल टीप दी थी कि संस्था की ओर से आदिवासियों के हितों का पूरी तरह ध्यान नहीं रखा जा रहा है। राजा बरारी इस्टेट को लेकर विभागीय अफसरों की दरियादिली की एक प्रमुख वजह उनके निजी स्वार्थ भी रहे। विभाग के कुछ अधिकारी तो राधा स्वामी सत्संग सभा के आगरा मुख्यालय का दौरा भी करते रहे।
इस संबंध में पीसीसीएफ उत्पादन एच यू खान ने बताया कि राजा बरारी इस्टेट मामले में सीसीएफ नर्मदापुरम वृत से रिपोर्ट मांगी गई है। इसके आधार पर ही आगे कोई कार्रवाई की जा सकेगी।
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