संजय शर्मा, BHOPAL. bison shifting : कभी पेंच के जंगलों में सिमटा बाइसन एक बार फिर विंध्य-सतपुड़ा पर्वत माला के फारेस्ट में अपनी धाक जमाएगा। बांधवगढ़ में माइग्रेशन प्रोजेक्ट सफल रहने के बाद अब इसे प्रदेश के दूसरे रिजर्व में बसाने की तैयारी कर ली गई है। वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन ( wild life conservation ) से हरी झंडी मिलने पर रीवा ( Rewa ) के संजय दूबरी टाइगर रिजर्व में बाइसन की शिफ्टिंग ( bison shifting ) शुरू कर दी गई है। जबकि रानी दुर्गावती टाइगर रिजर्व में इसके लिए प्लानिंग जारी है।
वाइल्ड लाइफ और बायोडाइवर्सिटी के लिहाज से खुशखबरी
मानसून के सीजन के बाद सर्वे पूरा होते ही यहां बाइसन के आने का रास्ता साफ होने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। यानी प्रदेश में वाइल्ड लाइफ और बायोडाइवर्सिटी के लिहाज से खुशखबरी है। वन विभाग और रानी दुर्गावती टाइगर रिजर्व की इस प्लानिंग से यहां चीते की बसाहट का रास्ता भी खुल जाएगा। रानी दुर्गावती-नौरादेही सेंचुरी को एक साल पहले ही वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन अथॉरिटी ने टाइगर रिजर्व का दर्जा दिया है। इसके बाद से ही यहां नए सिरे से प्लानिंग की जा रही है। सेंचुरी को सबसे पहले अफ्रीकन चीतों की बसाहट के लिए चुना गया था। बाद में कुछ गतिरोधों की वजह से यह प्रोजेक्ट कूनो चला गया। चीतों को जिन वजहों से सेंचुरी नहीं लाया जा सका अब उसे दूर करने में मैनेजमेंट पूरी तरह जुट गया है। इन कमियों को दूर करने में बाइसन माइग्रेशन की योजना को भी रिजर्व ने साधन बना लिया है।
जंगली भैंसे जैसे दिखने वाले बाइसन को गौर भी कहते हैं
हम बाइसन माइग्रेशन और चीता प्रोजेक्ट की एक साथ चर्चा क्यों कर रहे हैं, इसके पीछे भी एक वजह है। असल में नौरादेही सेंचुरी यानी आज का रानी दुर्गावती टाइगर रिजर्व। यहां घास के मैदान और बायोडाइवर्सिटी अफ्रीकन चीतों के लिए मुफीद मानी गई थी। लेकिन अंत में ऊंची घास ने प्रोजेक्ट को खटाई में डाल दिया था, तब चीतों को कूनो भेज दिया गया। रिजर्व एरिया में मैदानों में ऊंची और सख्त घास के इलाज के लिए प्रबंधन ने बाइसन प्रोजेक्ट का सहारा लिया है। इंडियन बाइसन तीन दशक पहले तक मध्यप्रदेश में विंध्य-सतपुड़ा वैली में बड़ी संख्या में पाए जाते थे। जंगली भैंसे की तरह दिखने वाले बाइसन को प्रदेश में गौर भी कहा जाता है।
बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में बाइसन का माइग्रेशन सफल रहा
टाइगर रिजर्व के डिप्टी डायरेक्टर एए अंसारी ने बताया बाइसन ( गौर) मुख्य रूप से मोटी और सख्त घास खाता है जिसे वुडी ग्रास कहते हैं। रिजर्व के घास के मैदानों में मुलायम घास तो हिरण खा लेते हैं, लेकिन वुडी ग्रास छोड़ देते हैं। इसी सख्त और ऊंची घास के कारण वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट के पैनल की रिपोर्ट से चीता प्रोजेक्ट छिन गया था। बाइसन दो-तीन दशक पहले तक इस विंध्य- सतपुड़ा वैली में विचरण करते थे। बाद में इनकी संख्या बहुत कम होती चली गई। साल 2011 में संकटग्रस्त इस प्रजाति के मेटा- पॉपुलेशन यानी अलग-अलग स्थानों पर विस्थापन पर काम शुरू किया गया। पहली शिफ्टिंग पेंच से बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में की गई थी। एक दशक में यह माइग्रेशन सफल रहा है। अब दूसरे फेज में रीवा के संजय दूबरी रिजर्व में बाइसन का माइग्रेशन पर काम चल रहा है।
बाइसन को टाइगर रिजर्व में बसाने की प्रारंभिक स्टेज है
डिप्टी एए अंसारी के अनुसार बाइसन की बसाहट का लाभ रानी दुर्गावती टाइगर रिजर्व को मिलेगा। बाइसन के रिजर्व में आने से वे मोटी घास को अपना आहार बनाएंगे और इससे मैदान चीतों के लिए बेहतर होंगे। इस घास के कारण जो रोड़ा अटका था वह दूर हो जाएगा। खुले और छोटी घास के इन मैदानों में चीते अच्छे से शिकार कर पाएंगे। इसको देखते हुए ही बाइसन को टाइगर रिजर्व में बसाने की प्लानिंग की जा रही है। हालांकि, अभी यह प्रारंभिक स्टेज में है। मानसून सीजन के बाद टाइगर रिजर्व की नौरादेही और डोंगरगांव रेंज में सर्वे करते हुए प्रपोजल तैयार कर मुख्यालय को भेजेंगे। टाइगर रिजर्व क्लाइमेट, बायो डाइवर्सिटी के लिहाज से बाइसन प्रजाति के अनुकूल है। यहां के घास के मैदान और बड़े-बड़े तालाब उनके माइग्रेशन में सहायक होंगे।