इंदौर में 200 करोड़ की जमीन में 9 तहसीलदारों ने की चूक, कलेक्टर ने शासन को भेजे दोषी अधिकारियों के नाम

इंदौर में 200 करोड़ की कबीटखेड़ी की जमीन के मामले में केस दायर करने में हुई देरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई। इसके बाद दोषी अधिकारियों की पहचान कर ली गई है।

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Sanjay gupta
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इंदौर में 200 करोड़ की कबीटखेड़ी की जमीन के मामले में केस दायर करने में हुई देरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट से लगी फटकार के बाद दोषी अधिकारियों को चिन्हित किया गया है। इस मामले में लगी एसएसलपी (सिविल) में सुप्रीम कोर्ट ने मप्र शासन से दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने में शपथपत्र पर जानकारी मांगी थी। इसे सचिव विधि विभाग की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पेश किया जाना है। शासन से आए आदेश पर कलेक्टर आशीष सिंह ने 1996 से 2003 के बीच अधिकारियों द्वारा की गई चूक को चिन्हित कर शासन को प्रस्ताव भेजा है।

इन 9 तहसीलदारों द्वारा यह की गई चूक

तहसीलदार योगेश कानूनगो- व्यवहार न्यायलय में शासन का पक्ष नहीं रखने से शासन के विरुद्ध 12 फरवरी 1997 को एक पक्षीय डिक्री हो गई।

तहसीलदार डीएस शर्मा, अरूण रावत, मनोरमा कोष्ठी, राजीव श्रीवास्तव, ओपी पगारे, रजनीश श्रीवास्तव- इन सभी तहसीलदारों द्वारा 1997 के आदेश के खिलाफ तीन साल बाद साल 2000 में अपील पेश की। (साल 1997 से 2000 तक तय समय में कुछ नहीं किया, इस दौरान यह सभी तहसीलदार प्रभार में रहे)

तहसीलदार विक्रम सिंह गेहलोत और अशोक व्यास- प्रथम अपील 2003 में दिए गए आदेश 5000 रुपए अर्थदंड जमा करना था। लेकिन यह अर्थदंड ही दोनों तहसीलदारों ने साल 2003 में पदस्थ रहने के दौरान नहीं किया, इसके चलते प्रथम अपील ही निरस्त हो गई, मात्र 5000 रुपए के चलते।  

इन सभी पर कार्रवाई होना तय

सभी अधिकारियों पर कार्रवाई होना तय माना जा रहा क्योंकि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है। शासन को शपथपत्र देकर बताना होगा कि किस पर क्या कार्रवाई की गई है। इसमें कुछ अधिकारी तो रिटायर हो गए हैं और किसी ने स्वैच्छिक सेवानृवित्ति ले ली है। इनमें रजनीश श्रीवास्तव रिटायर हो चुके हैं। वहीं राजीव श्रीवास्तव लंबे समय तक आईडीए में रहे और फिर वीआरएस ले लिया।  

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यह है मामला

कबीटखेड़ी के सर्वे क्रमांक 113 में 4.09 एकड़ जमीन, जिसकी वर्तमान कीमत 200 करोड़ से ज्यादा है। वर्ष 1925 के मिसल बंदोबस्त में यह सरकारी जमीन थी। वर्ष 1997 में जिला न्यायालय ने पन्नालाल और भगवान प्रजापत के नाम डिक्री पारित की। यह कब्जे के आधार पर हुआ। इसमें तय समय में अपील की जानी थी लेकिन जिम्मेदार लोग सोते रहे। छह साल बाद वर्ष 2003 में अपील की गई, जिस पर न्यायालय ने पहले देरी के लिए पांच हजार रुपए का जुर्माना भरने को कहा, लेकिन इस पर भी अधिकारी सोते रहे।

इसके बाद इस केस को सुप्रीम कोर्ट में लगाया गया। इतने सालों बाद नींद खुलने पर सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले अगली सुनवाई के दौरान दोषी अफसरों की जानकारी और की गई कार्रवाई की जानकारी हलफनामे में पेश करने का आदेश दिया। इस पर पूरी जांच शुरू हुई और अफसरों की पहचान कर जानकारी सरकार को भेजी गई। हालांकि इसमें सिर्फ तहसीलदारों की पहचान की गई। इसके अलावा एसडीओ, एडिशनल कलेक्टर स्तर के जो अन्य अफसर इसके प्रभारी थे, उनके नाम नहीं भेजे गए।

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