BHOPAL. इस चुनाव में मध्यप्रदेश की सबसे महत्वपूर्ण लोकसभा सीट कौन सी है। शायद आपका जवाब होगा छिंदवाड़ा। जिस पर कांग्रेस और बीजेपी दोनों ताकत झौंक रही हैं, लेकिन एक सीट और है जो अचानक हाई प्रोफाइल हो गई है। अब तक जो बीजेपी ( BJP ) सिर्फ छिंदवाड़ा की फिक्र में दौड़धूप कर रही थी वो रुख बदलने पर मजबूर हुई है और जो प्रदेश की हर सीट को गंवाने की कगार पर पहुंच गई है। उसे कम से कम ये तसल्ली है कि छिंदवाड़ा के अलावा एक सीट और बचा सके या न बचा सके, लेकिन जीत के अंतर की गहरी खाई को जरूर पाट सकेगी।
राजगढ़ सीट पर बड़ा सवाल दिग्विजय सिंह की साख का भी है
मैं आज जिस सीट की आप से बात कर रहा हूं ये सीट राजा महाराजाओं की सीट। एक ऐसी सीट जो कभी कांग्रेस की ही मुट्ठी में थी लेकिन वक्त के साथ फिसलती चली गई। ये वो सीट है जो परिवारवाद का भी एक शानदार उदाहरण रही है, लेकिन जब से बीजेपी के खाते में आई है इसके समीकरण बदल चुके हैं। कांग्रेस के लिए अपना ही गढ़ वापस हासिल करना मुश्किल हो रहा है। इस बार जब हर सीट हाथ से निकलने की आशंका प्रबल है। तब कांग्रेस ने अपने सबसे चतुर माना जाने वाले लीडर को मैदान में उतारा है। ये लीडर हैं दिग्विजय सिंह ( Digvijay Singh ) जिन्हें कांग्रेस मौके बेमौके अपना संकटमोचक भी बताती या मानती रही है। अब तक सारी लाइमलाइट छिंदवाड़ा तक सिमटी हुई थी अब उसमें दिग्विजय सिंह और उनकी सीट राजगढ़ ( Rajgarh ) का भी हिस्सा बंट चुका है। जिसके बाद यहां सवाल सिर्फ हार और जीत का नहीं है। बल्कि, सवाल दिग्विजय सिंह की साख का भी है। जिस सीट पर वो ये दम भरते हैं कि ये उनका गढ़ है उस गढ़ को बचाने का भी है। हार हुई तो उनके सियासी करियर पर सवाल उठना लाजमी है और जीते तो कद और बढ़ा होना तय है। जीते नहीं, लेकिन मतों का अंतर कम करने में भी कामयाब हुए तो कम से कम अपनी लाज बचाने में भी कामयाब ही रहेंगे। ये करिश्मा दिग्विजय सिंह पहले भी दिखा चुके हैं। इस सीट से वो पहले भी सांसद का चुनाव लड़ चुके हैं और बीजेपी से इस राजगढ़ को छीनकर कांग्रेस की झोली में डाल भी चुके हैं। एक बार तो हाल ये था कि वो खुद हार कर मैदान से भागने की कोशिश में थे। लेकिन वोटर्स ने कुछ यूं साथ दिया कि सीट उनके खाते में आ गई।
इस किस्से से पहले आपको बहुत ही संक्षेप में बताता हूं राजगढ़ लोकसभा सीट का चुनावी इतिहास...
राजगढ़ लोकसभा सीट पहले राजगढ़ और शाजापुर विधानसभा से मिलकर बनी थी। 1962 में मुंबई के बाबूराव पटेल को यहां से मैदान में उतारा और वह जीते। इसके बाद 1971 में जगन्नाथ जीते। 1977 में राजगढ़ लोकसभा स्वतंत्र सीट बनी तो यहां से जनसंघ ने मुंबई के बसंत कुमार पंडित को टिकट दिया और वह भी जीते। पंडित लगातार दूसरी बार यहां से 1980 में लोकसभा में चुने गए। 1984 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की लहर में जनसंघ के जमनालाल हारे। उन्हें हराने वाले कोई और नहीं दिग्विजय सिंह ही थे। तब वो पहली बार सांसद का चुनाव जीते थे।
2004 में लक्ष्मण सिंह खुद बीजेपी से लड़े और जीते
अब वो किस्सा बताता हूं जब दिग्विजय सिंह को लगा वो हारने वाले हैं। ये बात है 1991 के लोकसभा चुनाव की। तब कांग्रेस से दिग्विजय सिंह और जनसंघ से प्यारेलाल खंडेलवाल मैदान में थे। मतगणना के दौरान दिग्विजय सिंह छह हजार वोट से पीछे हुए और नम आंखों के साथ मैदान छोड़कर जाने का फैसला किया। इसी बीच पूर्व विधायक हजारीलाल दांगी दिग्विजयसिंह के पास आए और दिग्विजय सिंह को आखिरी वक्त तक काउंटिंग स्थल पर रहने के लिए कहा। उनसे मिले जीत के दिलासे के बाद दिग्विजय सिंह दोबारा गणना स्थल पर रुके और 1470 वोट से भाजपा के प्यारेलाल खंडेलवाल को हराया। उसके बाद से ये सीट दिग्विजय सिंह के राजघराने से बाहर नहीं जा सकी। उनके बाद उनके भाई लक्ष्मण सिंह इस सीट से सांसद रहे। हालांकि, साल 2004 का चुनाव लक्ष्मण सिंह खुद बीजेपी से लड़े और जीते। तो अगर ये कहूं कि वोटर्स को फिर से बीजेपी की हवा खुद दिग्विजय सिंह के भाई ने ही लगाई तो कुछ गलत नहीं होगा। दूसरे शब्दों में ये कह सकते हैं कि खुद कांग्रेस ने ये सीट बीजेपी की झोली में डाल दी। हालांकि, उसके बाद भी दिग्गी राजा का करिश्मा नजर आया। साल 2009 में वो यहां से कांग्रेस के नारायण सिंह अंबले को जीत दिलाने में कामयाब रहे।
इस बार लहर के विपरीत दिग्विजय को खुद को साबित करना है
इसके बाद 2014 के चुनाव में बीजेपी के रोडमल नागर ने इस सीट को बीजेपी के खाते में डाल लिया। तब से वो लगातार दो बार जीत चुके हैं। तीसरी बार भी बीजेपी ने उन्हें पर भरोसा किया है। यानी राजगढ़ में मुकाबला रोडमल नागर वर्सेज दिग्विजय सिंह हो चुका है। दोनों ही दो-दो बार इस सीट से सांसद रहे हैं। ये भी इत्तेफाक ही मानिए कि दिग्विजय सिंह ने लोकसभा का पहला चुनाव जीता था इंदिरा गांधी के निधन के बाद उठी कांग्रेस की लहर के चलते। उस समय लहर का बहाव उनके लिए अनुकूल था। इस बार उन्हें फिर एक लहर में चुनाव लड़ना है। इस बार मोदी लहर प्रचंड वेग के साथ बह रही है। बहाव का जोर किसी और दिशा में है। ऐसे समय में कांग्रेस ने फिर दिग्विजय सिंह पर दांव लगाया है और अब उन्हें खुद को साबित करना है। इस वेग के खिलाफ जमे रहने के लिए दिग्विजय सिंह अपने पुराने पैंतरे पर काम करना शुरू कर चुके हैं। उनका ये पुराना पैंतरा या कह लीजिए कि आजमाया हुआ फॉर्मूला है पदयात्रा का फॉर्मूला। दिग्विजय सिंह ने सबसे पहले मां बगलामुखी के दरबार में पूजा की, उसके पदयात्रा शुरू कर दी है। उनके साथ पूर्व मंत्री प्रियव्रत सिंह भी चल रहे हैं। 77 साल की उम्र में दिग्विजय सिंह रोजाना करीब बीस किमी की यात्रा कर रहे हैं। उनके निशाने पर वो इलाके हैं जहां से कांग्रेस को वोट मिलने बंद या कम हो चुके हैं। उनसे सीधे संपर्क साध कर दिग्विजय सिंह वोटर्स को अपने खेमे में लाने की कोशिश कर रहे हैं। इसी फॉर्मूले के साथ दिग्विजय सिंह पहले कांग्रेस का सूखा खत्म कर चुके हैं।
दिग्विजय सिंह की परिक्रमा की वजह से कांग्रेस की वापसी हुई
15 सालों तक एमपी की राजनीति में सत्ता के लिए तरस रही कांग्रेस को 2018 में दिग्विजय सिंह के इसी फॉर्मूले से सत्ता मिली थी। उन्होंने 192 दिनों की नर्मदा परिक्रमा कर पूरे प्रदेश में अपनी पकड़ मजबूत की थी। इसके बाद दिग्विजय सिंह सक्रिय पॉलिटिक्स में वापस लौटे थे तो कांग्रेस भी मध्यप्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गई थी। मध्यप्रदेश में यह माना जाता है कि दिग्विजय सिंह की परिक्रमा की वजह से कांग्रेस की वापसी हुई थी, लेकिन गुटबाजी के कारण 15 महीने में ही सरकार गिर गई। इसके बाद दिग्विजय सिंह को पार्टी ने लोकसभा चुनाव में उतारा था। 2019 के चुनाव में दिग्विजय सिंह को भोपाल का गढ़ भेदने का जिम्मा मिला। यहां से बीजेपी ने प्रज्ञा ठाकुर को टिकट दिया था। इस चुनाव में दिग्विजय सिंह 3 लाख 64 हजार से ज्यादा वोटों से हारे थे। इसके बाद विधानसभा चुनाव में भी दिग्विजय सिंह और उनके साथ कमलनाथ कांग्रेस की बुरी तरह हार को रोक नहीं सके। अब एक बार फिर दिग्विजय सिंह को नई चुनौती मिली है। उम्र ज्यादा है और प्रतिद्वंद्वी प्रबल है। सबसे बड़ी चुनौती अपनी ही पार्टी में अपनी साख बचाने की है।
दिग्विजय के राजनीतिक करियर की आखिरी चुनौती तो नहीं
पिछले चुनाव में कांग्रेस ने यहां से मोना सुस्तानी को टिकट दिया था। उस चुनाव में बीजेपी के रोडमल को 8.23 लाख वोट मिले थे जबकि कांग्रेस की मोना को 3.92 लाख वोट मिले थे। रोडमल नागर ने मोना सुस्तानी को 4.31 लाख वोटों के भारी-भरकम अंतर से हराया था। मोदी लहर में फिलहाल इस अंतर को पाटना ही बड़ी चुनौती है। अगर दिग्विजय सिंह ये कर पाते हैं तो शायद राज घराने के साम्राज्य को राजगढ़ और कांग्रेस दोनों में कायम रखने में कामयाब होंगे। अगर नाकाम हुए तो शायद ये उनके राजनीतिक करियर की आखिरी चुनौती भी साबित हो सकती है।