मनीष गोधा, JAIPUR. राजस्थान का सीएम तय करने में आखिर इतनी देरी क्यों हो रही है और सीएम तय करना तो छोड़िए विधायकों की बैठक बुलाने में ही आखिर इतनी देरी क्यों हो रही है? ये दो ऐसे सवाल हैं जिनके बारे में राजस्थान के बीजेपी नेताओं से पूछा जाए तो वो यही कहते है कि यह बात या तो भगवान जानते हैं या फिर पीएम नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह। परिणाम घोषित हुए एक सप्ताह से ज्यादा का समय बीत चुका है और पार्टी के विधायक उस फोन कॉल का इंतजार कर रहे है, जो उन्हें बताएगा कि सीएम चुनने के लिए उन्हें कहां और कितने बजे पहुंचना है। लोगों के मन में सबसे बड़ा सवाल यही है कि जब पार्टी में किसी तरह की टूट होने की संभावना लगभग नामुमकिन है तो आखिर पार्टी सीएम का नाम घोषित करने में इतना समय क्यों लगा रहा है? क्योंकि इस देरी से और कुछ भले ही ना हो रहा लेकिन कई तरह की अटकलों को बल जरूर मिल रहा है, जिसमें सबसे बड़ी अटकल यही है कि पूर्व सीएम वसुंधरा राजे अपने अलावा किसी नाम पर राजी नहीं हो रही है ।
ऐसा मंजर पहली बार
राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में मुख्यमंत्री पद को लेकर ऐसी स्थिति पहली बार देखने में आ रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की जितनी भी सरकारें अब तक बनी है उनमें पहले भैरों सिंह शेखावत और बाद में वसुंधरा राजे ही चेहरा बनते आए हैं। यह पहला मौका है जब पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कमल के फूल के नाम पर चुनाव लड़ा और राजस्थान के किसी भी चेहरे को सीएम पद के लिए आगे नहीं किया। अब एक साथ आधा दर्जन से ज्यादा नाम दौड़ते दिख रहे हैं और असमंजस खत्म नहीं हो रहा है।
तीन से चार दिन में होती रहीं है शपथ
पिछले चुनाव की बात करें तो राजस्थान में जब भी बीजेपी की सरकार बनी तो परिणाम घोषित होने के बाद तीन से चार दिन में मुख्यमंत्री पद की शपथ होती आई है। जब भैरों सिंह शेखावत चेहरा हुआ करते थे तब दो-तीन दिन में ही शपथ हो जाया करती थी। वर्ष 2003 में जब वसुंधरा राजे राजस्थान लाई गई तो परिणाम के तीन दिन बाद और इसके बाद 2013 में भी परिणाम के चार दिन में ही उनकी शपथ हो गई थी। क्योंकि दोनों ही चुनाव में पार्टी ने उन्हें चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा था। इस बार 7 दिन से ज्यादा का समय निकल चुका है और चेहरा सामने आना तो दूर विधायक दल की बैठक तक तय नहीं हो पा रही है।
वसुंधरा का दिल्ली दौरा और मुलाकातें बढ़ा रही उत्सुकता
पार्टी की ओर से विधायक दल की बैठक बुलाई जाने में की जा रही देरी के बीच पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का दिल्ली दौरा और अपने निवास पर अपने समर्थक विधायकों के साथ की जा रही मुलाकातें पूरे प्रदेश की ही नहीं बल्कि देशभर की जनता की उत्सुकता बढ़ा रही है। चुनाव से पहले वसुंधरा राजे को पार्टी ने सीएम पद का चेहरा भले ही घोषित न किया हो लेकिन उनके लगभग 40 से 50 समर्थकों को टिकट दिए गए थे और इनमें से आधे से ज्यादा जीत कर भी आए हैं। ऐसे में उनका दिल्ली दौरा और इससे पहले लौट कर आने के बाद अपने निवास पर विधायकों से मुलाकात करना कई तरह की अटकलें को जन्म दे रहा है। परिणाम के तुरंत बाद अगले ही दिन उनके निवास पर करीब 45 विधायकों ने उनसे मुलाकात की थी और इनमें से बहादुर सिंह कोली जैसे विधायकों ने तो उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की सार्वजनिक रूप से मांग भी कर दी थी। यह सिलसिला मंगलवार दोपहर तक चला लेकिन उसके बाद थम गया।
वसुंधरा के घर पहुंचे विधायक
पार्टी की ओर से विधायकों को संदेश दिया गया कि आना है तो पार्टी कार्यालय आए किसी नेता की घर न जाएं। ऐसे में संगठन लिस्ट विधायक तो पार्टी कार्यालय पहुंचे ही जो विधायक वसुंधरा राजे के घर पहुंचे थे उनमें से भी कई पार्टी कार्यालय में नजर आए। इसके बाद बुधवार रात वसुंधरा राजे दिल्ली रवाना हो गई और वहां अगले दिन उनकी पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात हुई। इस मुलाकात में उनके साथ उनके सांसद पुत्र दुष्यंत सिंह भी मौजूद थे और बताया जा रहा है कि मंगलवार रात जयपुर में एक विधायक को जबरन एक होटल में रोके जाने की जो कथित घटना सामने आई थी। उसके बारे में स्पष्टीकरण देने के लिए उन्हें बुलाया गया था, हालांकि मुलाकात करीब डेढ़ घंटे तक चली। दिल्ली में ही राजा ने कुछ और नेताओं से भी मुलाकात की और उनके समर्थकों का दावा है कि वह अमित शाह से भी मिली थी। हालांकि इसकी पुख्ता पुष्टि किसी ने नहीं की।
फुल कॉन्फिडेंट में नजर आ रही हैं राजे
चार दिन दिल्ली में बिताने के बाद राजे रविवार दोपहर जयपुर लौट आई और यहां आते ही एक बार फिर उनके यहां विधायकों के आने का सिलसिला शुरू हो गया। हालांकि रविवार को उनसे मिलने वाले विधायकों की संख्या 15 के आसपास ही थी और इनमें से ज्यादातर वही थे जो उनके बेहद नजदीकी और कोर टीम के सदस्य रहे हैं। मुलाकातों के जो फुटेज और तस्वीर सामने आई है और राजे भी भी काफी प्रफुल्लित और कॉन्फिडेंट दिख रही है, हालांकि दिल्ली में क्या हुआ और राजे के इस कॉन्फिडेंस का अर्थ क्या है इस बारे में उनके नजदीकी विधायक भी कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं है।
क्या किसी तरह की टूट संभव है, लगता तो नहीं है
इस सब के बीच यह गणित भी लगाया जा रहा है कि यदि वसुंधरा राजे के मुताबिक पार्टी ने फैसला नहीं किया तो क्या पार्टी विधायक दल में किसी तरह की टूट संभव है? हालांकि राजनीति में सब कुछ संभव है, लेकिन जो परिणाम सामने आए हैं और बीजेपी में आलाकमान का जिस तरह का रुतबा है, आज के दौर में उसे देखते हुए उसकी संभावना बहुत कम बताई जा रही है।
पहले गणित को समझ लेते हैं
राजस्थान में बीजेपी ने 115 सीटों पर जीत दर्ज की है और आठ निर्दलीय विधायकों में से 6 बीजेपी के साथ जा सकते हैं। इनमें से कुछ नहीं तो पार्टी को अपना समर्थन घोषित भी कर दिया है। यानी पार्टी के पास कम से कम 121 विधायक तो अभी है। उधर कांग्रेस की बात की जाए तो उसके स्वयं के 69 विधायक जीत कर आए हैं और आरएलडी से चुनी चुनाव पूर्व गठबंधन था इसलिए एक विधायक आरएलडी का भी है। ऐसे में पार्टी के पास 70 विधायक हैं। अन्य दलों के छः अन्य विधायकों को जोड़ लिया जाए तो यह संख्या 76 बनती है। उनमें भी बसपा के दो विधायक कांग्रेस के साथ जाएंगे इस पर संशय है। इनके अलावा दो निर्दलीय जोड़ लिए जाएं तो संख्या 78 होती है। इस सब के बाद भी कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए कम से कम 23 विधायकों की जरूरत है।
टूट की संभावना कम
बीजेपी सूत्रों का कहना है कि वसुंधरा राजे के पास शुरुआत में 45 विधायक जरूर गए होंगे, लेकिन जब किसके साथ जाना है यह निर्णय करने की बारी आएगी तो उन्हें उनके क्षेत्र बारां झालावाड़ के चार पांच विधायकों के अलावा चार पांच विधायकों यान अधिकतम दस विधायकों का समर्थन मिल पाएगा। बाकी की संख्या की पूर्ति होना बीजेपी के मौजूदा केंद्रीय नेतृत्व के होते बेहद मुश्किल काम है। वैसे भी सरकार को मजबूत बनाए रखने के लिए सिर्फ 101 से काम नहीं चलेगा। कम से कम 105 तो चाहिए ही। फिर जो लोग टूट कर जायेंगे उनकी विधायकी खतरे में पड़ जायेगी। क्योंकि दो तिहाई टूट तो होने वाली है नहीं। यानी कुल मिला कर किसी टूट की संभावना बहुत कम है।
निर्णय में देरी क्यों
पार्टी सूत्रों का कहना है कि केंद्र में बीजेपी की सरकार को आने वाले समय में भी कोई खतरा नहीं है और पार्टी का मौजूदा नेतृत्व इतना मजबूत है कि पार्टी के विधायक इसके खिलाफ जाने के बारे में जाने से पहले चार बार सोचेंगे। लेकिन इस सब के बाद भी सवाल फिर वहीं खड़ा हो रहा है कि जब कोई बड़ा खतरा नहीं है तो निर्णय में देरी क्यों हो रही है और इसका जवाब दो लोगों के अलावा किसी के पास नहीं है।