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पहले आज की ताजा खबर…
ईरान की राजधानी तेहरान में शुक्रवार सुबह इज़राइल ने हमला कर दिया इसके बाद कई इमारतों में आग लग गई। इज़राइल के रक्षा मंत्री, इज़राइल काट्ज और ईरान के सरकारी मीडिया ने भी इस हमले की पुष्टि की है।
इजराइल ने दावा किया है कि हमले में ईरान के आर्मी चीफ मोहम्मद बाघेरी, सेना के अन्य वरिष्ठ अधिकारी और कुछ परमाणु वैज्ञानिक भी मारे गए हैं। वहीं, ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला खामनेई ने तीखा बयान दिया और कहा कि ईरान की सेना इज़राइल को सजा दिए बिना नहीं छोड़ेगी।
ईरान पर इज़राइल के हमले की पूरी खबर पढ़िए इस लिंक पर क्लिक करके
ईरान और इज़राइल के बीच करीब 2315 किलोमीटर की दूरी होने के बाद भी इतनी अदाबत क्यों है? आखिर क्या दुश्मनी है, जो दोनों देश एक- दूसरे को बर्बाद करने पर तुले हैं… thesootr Prime में आज सारी कहानी समझेंगे। साथ ही समझेंगे अमरीका की चौदराहट को और भारत पर पड़ने वाले असर पर भी बात करेंगे…
चलिए पहले दोस्त, दोस्त न रहा, प्यार, प्यार न रहा की कहानी को समझते हैं…
1979 से पहले का ईरान, एक अलग दुनिया में बसा था। एक आधुनिक, पश्चिमी प्रभाव से भरपूर और सैन्य ताकत से लैस राष्ट्र था, जो अपने भविष्य को पूरी तरह से पश्चिमी देशों और रणनीतिक सहयोगियों के साथ जोड़कर देखता था।
इस समय, ईरान और इज़राइल के बीच एक गहरी दोस्ती थी, जो न केवल कूटनीतिक स्तर पर, बल्कि सैन्य और आर्थिक क्षेत्रों में भी मज़बूती से स्थापित थी।
ईरान-इज़राइल का गहरा संबंध
यह कहानी शुरू होती है 1948 में, जब इज़राइल का गठन हुआ। इस नए देश के लिए शुरुआत में कई चुनौतियां थीं, लेकिन ईरान ने उसे सबसे पहले मान्यता दी। ईरान के शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी ने इज़राइल को एक स्थिर और भरोसेमंद साथी के रूप में देखा।
दोनों देशों ने मिलकर सोवियत संघ के प्रभाव को मात देने और अपने क्षेत्रीय हितों की रक्षा करने के लिए एक मजबूत गठबंधन बनाया।
ईरान ने इज़राइल को तेल की आपूर्ति की, जबकि इज़राइल ने ईरान को आधुनिक हथियारों और खुफिया जानकारी से लैस किया। इन सहयोगों ने दोनों देशों को मजबूती प्रदान की और एक दोस्ती का निर्माण हुआ, जो न केवल सैन्य बल्कि आर्थिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण थी।
वर्ष 1950 से 1979 तक, यह रिश्ता और भी गहरा हुआ। इज़राइल ने ईरान को इराक के खिलाफ युद्ध में हथियारों की आपूर्ति की और ईरान की बड़ी यहूदी आबादी ने भी इस दोस्ती को समर्थन दिया।
एक समय था जब यह संबंध दोनों देशों के लिए एक बड़ी ताकत बनकर उभरे, और मध्य पूर्व में दोनों देशों का दबदबा था।
ईरान-भारत के साथ दोस्ती
इसी दौरान, ईरान और भारत के बीच भी घनिष्ठ संबंध थे। भारत ने मध्य पूर्व में संतुलित कूटनीतिक दृष्टिकोण अपनाया था, और ईरान के साथ उसका भी एक महत्वपूर्ण व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध था। दोनों देशों के बीच राजनीतिक संपर्क मजबूत था।
भारत ने ईरान को एक महत्वपूर्ण ऊर्जा आपूर्तिकर्ता माना। यह ह समय था, जब भारतीयों का ईरान में एक अच्छा नाम था और वहां के लोग भारतीय संस्कृति और भाषा के प्रति आकर्षित थे।
शाह की राजशाही और पश्चिमी प्रभाव
शाह की शासन व्यवस्था के तहत, ईरान में पश्चिमी सभ्यता और आधुनिकता का प्रभाव तेजी से बढ़ा। समाज में धार्मिक कट्टरता की जगह, एक सेक्युलर दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जा रहा था।
शाह ने पश्चिमी देशों से तकनीकी, आर्थिक और सैन्य सहायता प्राप्त की, जिससे ईरान एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में उभर कर सामने आया। शाह के शासन में ईरान को पश्चिमी दुनिया का एक मजबूत साथी माना जाता था। यह संबंध स्थिरता और विकास की ओर बढ़ रहे थे।
1979 की क्रांति: एक ऐतिहासिक मोड़
फिर आया 1979 का साल, जिसने ईरान की राजनीति और विदेश नीति की दिशा पूरी तरह से बदल दी। शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी की सरकार का पतन हुआ, और अयातुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामिक क्रांति ने ईरान के पूरे सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को पलट कर रख दिया।
खुमैनी ने ईरान को एक इस्लामी गणराज्य के रूप में पुनः स्थापित किया और शाह की पश्चिमी समर्थक नीतियों को पूरी तरह नकार दिया। इस्लामी क्रांति ने न केवल ईरान के आंतरिक समाज को बदला, बल्कि इसके परिणामस्वरूप ईरान की विदेश नीति में भी बड़े बदलाव हुए।
अब ईरान ने इज़राइल को दुश्मन घोषित कर दिया और उसे "अवैध राज्य" कहा।
यह वही समय था जब ईरान ने अपने क्षेत्रीय और वैश्विक संबंधों को पुनः स्थापित करना शुरू किया, लेकिन इस बार उसके रिश्ते पश्चिमी देशों के बजाय अन्य मुस्लिम देशों के साथ मजबूत हो गए।
इज़राइल और भारत के साथ ईरान के रिश्ते में तनाव आ गया, और इसने न केवल ईरान के लिए बल्कि पूरे मध्य पूर्व के लिए नई चुनौतियां उत्पन्न कर दीं।
भारत के साथ रिश्तों में बदलाव
भारत, जो ईरान का एक परंपरागत मित्र रहा था, अब एक नई चुनौती का सामना कर रहा था। भारतीय विदेश नीति को भी ईरान के साथ अपने रिश्तों को संतुलित तरीके से संभालने की जरूरत थी। भारत, जो मध्य पूर्व में शांति और सहयोग की चाहत रखता था, अब ईरान के साथ अपने पुराने दोस्ती के रिश्ते को फिर से परिभाषित कर रहा था।
ईरान की इस्लामी क्रांति ने न केवल भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक नई वास्तविकता का निर्माण किया। ईरान ने अपनी विदेश नीति को पूरी तरह से बदल दिया था, जिससे उसकी दुनिया में एक नई पहचान बनी थी। अब ईरान, पश्चिमी देशों और इज़राइल के खिलाफ एक कट्टर विरोधी बन चुका था, और यह नया ईरान दुनिया के लिए एक चुनौती बन चुका था।
टाइमलाइन से समझें पूरा मामला
घटना | तारीख | विवरण |
---|---|---|
ईरान-इजराइल संबंधों की शुरुआत | 1948 | ईरान ने इजराइल को मान्यता दी और दोनों देशों के बीच मित्रवत संबंध स्थापित हुए। |
ईरान-इजराइल दोस्ती का समय | 1950-1979 | ईरान और इजराइल के बीच सैन्य, आर्थिक और कूटनीतिक सहयोग रहा। |
इस्लामी क्रांति | 1979 | अयातुल्लाह खुमैनी की अगुवाई में ईरान ने इजराइल के साथ सभी संबंध तोड़े और इसे "अवैध राज्य" घोषित किया। |
अमेरिका का इजराइल को समर्थन | 1980 से अब तक | अमेरिका ने इजराइल को लगातार सैन्य सहायता और कूटनीतिक समर्थन दिया। |
ईरान और इजराइल के बीच सैन्य टकराव | 2025 | दोनों देशों के बीच पहली बार सीधा सैन्य संघर्ष हुआ। |
भारत पर असर | 2025 | भारतीय नागरिकों के लिए एडवाइजरी जारी की गई, तेल और गैस आपूर्ति पर असर पड़ा। |
संक्षेप में
1979 की इस्लामी क्रांति ने ईरान को एक नई दिशा दी, और इसने उसकी विदेश नीति और सामाजिक संरचना को पूरी तरह बदल दिया। शाह की राजशाही से खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामी गणराज्य की ओर जाने के बाद, ईरान ने इज़राइल के साथ अपने रिश्ते समाप्त कर दिए और भारत समेत पश्चिमी देशों के साथ संबंधों में बदलाव आया।
ईरान के लिए यह एक बड़ा बदलाव था, जिससे पूरे मध्य पूर्व और वैश्विक राजनीति में न केवल तनाव बढ़ा, बल्कि कई देशों की रणनीतियाँ भी बदल गईं।
यह घटना आज भी इतिहास के पन्नों में एक अहम मोड़ के रूप में दर्ज है, जिसने पूरी दुनिया की राजनीति पर अपना असर छोड़ा।
ऐसे हुई अमरिका का एंट्री…
वर्तमान में इज़राइल और ईरान के बीच की खाई केवल बढ़ी है। इस बीच, अमेरिका का एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में भूमिका बहुत अहम हो गई है। क्योंकि अमेरिका ने इज़राइल को लगातार सैन्य और कूटनीतिक समर्थन दिया है, और इरान के खिलाफ अपनी नीति अपनाई है।
आइए हम समझें कि अमेरिकी नीति ने इस संघर्ष को कैसे प्रभावित किया है, और इसका असर वैश्विक और भारतीय संदर्भ में क्या हो रहा है।
अमेरिका का "अमेरिका फर्स्ट" रुख
डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका ने अपनी विदेश नीति में बदलाव किया और 'अमेरिका फर्स्ट' के सिद्धांत को प्राथमिकता दी। इसके तहत अमेरिका ने पारंपरिक सहयोगियों से दूर हो कर अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक हितों को प्राथमिकता दी।
इसका असर इज़राइल और ईरान के संघर्ष पर भी पड़ा। अमेरिका ने इज़राइल को अपनी मिसाइल रक्षा प्रणाली और खुफिया जानकारी दी, लेकिन इसने प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप से बचने की कोशिश की।
अमेरिका का यह संतुलित रुख ईरान को और भी अधिक आक्रामक बना सकता है, क्योंकि अमेरिका की नीति से क्षेत्रीय सुरक्षा में अस्थिरता आई है।
सैन्य सक्रियता और सुरक्षा सहायता
अमेरिका ने इज़राइल को अत्याधुनिक मिसाइल रक्षा प्रणाली जैसे 'आयरन डोम' और 'डेविड स्लिंग' जैसे कार्यक्रमों के जरिए सुरक्षा सहायता प्रदान की है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अमेरिका सीधे सैन्य कार्रवाई में शामिल हो गया है।
इजराइल के हमले कभी-कभी अमेरिका की सहमति से होते हैं, लेकिन अमेरिका खुद सीधे सैन्य कार्रवाई से बचता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि इज़राइल ने अपनी रणनीतियों में और अधिक स्वतंत्रता से काम किया, जिससे ईरान का आक्रोश और भी बढ़ गया।
कूटनीतिक पहल और असफलताएं
अमेरिका और ईरान के बीच परमाणु वार्ता कभी सुचारू रूप से नहीं चल पाई। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और बाद में ट्रंप ने ईरान पर आर्थिक प्रतिबंधों का दबाव बढ़ा दिया, जिससे ईरान ने अपनी नीतियों को और कठोर किया।
ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका ने 'ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन' (JCPOA) से बाहर निकलने का फैसला किया, जिससे दोनों देशों के रिश्ते और अधिक तनावपूर्ण हो गए।
क्षेत्रीय अस्थिरता
अमेरिका की नीति ने नाटो जैसे वैश्विक गठबंधनों को अस्थिर किया है, जिससे इज़राइल और ईरान के बीच तनाव बढ़ने की संभावना भी उभरी है। यह अस्थिरता अन्य देशों के लिए भी एक खतरा बन सकती है, जिनकी सुरक्षा और विकास पर क्षेत्रीय युद्धों का असर पड़ सकता है।
अमेरिका का यह रुख मध्य पूर्व में बड़े संघर्षों को बढ़ावा देता है, जिससे इजराइल-ईरान जैसे संघर्षों का क्षेत्रीय युद्ध में बदलने की संभावना अधिक हो जाती है।
न्यू ठिकानों पर खतरे
अमेरिका के मध्य पूर्व में सैन्य ठिकानों को निशाना बनाए जाने की आशंका है। इस खतरे को देखते हुए, अमेरिका ने अपने सैन्य कर्मियों को अलर्ट कर दिया है और कई देशों जैसे इराक, बहरीन, और कुवैत में अपने ठिकानों पर सुरक्षा को बढ़ा दिया है।
ईरान ने भी चेतावनी दी है कि अगर उस पर हमला हुआ तो वह अमेरिका के सैन्य ठिकानों को निशाना बना सकता है, जिससे संघर्ष और बढ़ सकता है।
भारत पर असर : सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, और कूटनीति
तेल की कीमतों में उछाल: कलर बॉक्स
मध्य पूर्व में तनाव बढ़ने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल (ब्रेंट क्रूड) की कीमतों में 3-5% तक की तेजी आई है, क्योंकि ईरान, सऊदी अरब, कतर, यूएई जैसे देशों से भारत का मुख्य तेल आयात होता है।
तेल की सप्लाई में बाधा और मांग बढ़ने से कीमतें और बढ़ सकती हैं, जिससे भारत में पेट्रोल-डीजल समेत ऊर्जा की कीमतें महंगी होंगी, जो आम जनता की जेब पर भारी पड़ेगा।
इस तनाव का असर केवल मध्य पूर्व पर ही नहीं, बल्कि भारत पर भी पड़ रहा है। भारत, जो मध्य पूर्व से अपने ऊर्जा संसाधनों का बड़ा हिस्सा प्राप्त करता है, इस संघर्ष से सीधे प्रभावित हो रहा है।
सुरक्षा और यात्रा एडवाइजरी
भारत सरकार ने ईरान और इज़राइल के बीच बढ़ते तनाव के मद्देनजर अपनी नागरिकों को मध्य पूर्व में सावधानी बरतने की सलाह दी है। भारतीय दूतावास ने अपने नागरिकों से अनावश्यक यात्रा से बचने की अपील की है।
इसके अलावा, कई भारतीयों को सुरक्षा शेल्टरों के पास रहने की सलाह दी गई है। यह स्थिति भारतीयों के लिए जोखिम पैदा कर सकती है, खासकर यदि युद्ध और बढ़ता है।
विमान सेवाओं पर असर: ईरान ने अपने एयरस्पेस को बंद कर दिया है, जिससे भारत से मध्य पूर्व और यूरोप के बीच उड़ानों में रद्दीकरण और डायवर्ट होना शुरू हो गया है। कई फ्लाइट्स को रद्द या मार्ग बदला गया है, जिससे यात्रियों को परेशानी हो रही है।
आर्थिक और व्यापारिक प्रभाव: मध्य पूर्व क्षेत्र से भारत का तेल और गैस आयात प्रभावित हो सकता है, जिससे ऊर्जा सुरक्षा पर असर पड़ेगा। साथ ही, वैश्विक तेल कीमतों में उछाल से भारत की अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ सकता है।
तेल और गैस आपूर्ति
भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर भी संकट मंडरा रहा है, क्योंकि ईरान और इज़राइल दोनों ही तेल उत्पादन के बड़े स्रोत हैं। ईरान से तेल आयात पर असर पड़ने से भारत को वैकल्पिक स्रोतों की तलाश करनी पड़ेगी। इसके परिणामस्वरूप भारत को अधिक महंगे स्रोतों से ऊर्जा प्राप्त हो सकती है, जिससे आर्थिक दबाव बढ़ सकता है।
आर्थिक प्रभाव
तेल की बढ़ती कीमतें भारत के आयात बिल को बढ़ा सकती हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में इसका सीधा असर पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर पड़ेगा, जो महंगाई को बढ़ावा देंगे। साथ ही, अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अनिश्चितता के कारण भारतीय शेयर बाजार भी प्रभावित हो सकते हैं, जिससे निवेशकों में डर और अनिश्चितता का माहौल बन सकता है।
कूटनीतिक पहल
भारत के लिए यह समय चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि उसे मध्य पूर्व में अपनी कूटनीतिक स्थिति को संतुलित रखना है। भारत ने हमेशा अपने रणनीतिक साझेदारों के बीच संतुलन बनाए रखा है, और इस संकट में भी उसे अपने संबंधों को ठीक से संभालने की जरूरत होगी।
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