भारत-पाक रिश्ते और अटलजी: इतिहास बदल सकते हैं भूगोल नहीं, मित्र बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं..!

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भारत-पाक रिश्ते और अटलजी: इतिहास बदल सकते हैं भूगोल नहीं, मित्र बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं..!

जयराम शुक्ल। विश्व के राजनीतिक पटल पर भारत के दो महान नेता ऐसे हुए जिन्हें शांति के नोबल पुरस्कार के लिए सर्वथा उपयुक्त माना गया, लेकिन उन्हें मिला नहीं..। पहले हैं महात्मा गांधी और दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी..। गांधीजी को 1936, 37, 38 व 1947 में इस पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। 1948 में भी नामांकित किया गया था, लेकिन पुरस्कार घोषित होने से पहले उनकी हत्या कर दी गई। अटलजी को नामांकित नहीं किया गया, लेकिन उसकी बहुत चर्चा हुई। दुर्भाग्य देखिए कि गांधी के समकालीन इंग्लैंड के प्रधानमंत्री चर्चिल और वाजपेयी के समकालीन बराक ओबामा को नोबेल का शांति पुरस्कार दिया गया, जबकि दोनों ने ही अपने दौर में खूँरेजी युद्धों का नेतृत्व किया। कमाल की बात तो यह कि पिछले वर्ष डोनाल्ड ट्रंप को नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया...

सबसे ज्यादा चीन यात्रा करने वाले प्रधानमंत्री

अटलजी के लिए नोबेल पुरस्कार की सबसे ज्यादा चर्चा उनके आलोचकों और विपक्ष के लोगों ने की। अक्षरधाम, संसद में आतंकी हमले और करगिल युद्ध के बाद भी अटलजी ने जब बार-बार पाकिस्तान के आगे शांति प्रस्ताव के हाथ बढ़ाए तो विपक्ष के नेताओं उन पर तंज कसे कि अटलजी यह सब शांति के नोबल पुरस्कार की लालसा में कर रहे हैं, लेकिन आलोचनाओं की परवाह किए बिना अटलजी पाकिस्तान और चीन के साथ लगातार शांति की पहल के लिए जुटे रहे। जनता शासनकाल में विदेश मंत्री और फिर कालान्तर में प्रधानमंत्री के तौर पर अटलजी ने चीन की जितनी यात्राएं की शायद इतनी किसी भी राजनेता ने नहीं की होगी। अटलजी कहा करते थे- हम मित्र बदल सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं.. इसलिए क्यों न पड़ोसी से ही मित्रता की जाए। अटल जी की विदेश नीति और विशेषतः पाकिस्तान से अच्छे रिश्तों की ललक पर जितनी चर्चाएं होनी चाहिए उतनी नहीं होतीं..जबकि पाकिस्तान भारत की ही संतान है। यह कह देना कि पाकिस्तान को हम मिटा देने, धूल में मिला देने की ताकत रखते हैं..सिर्फ़ जुबानी जमा खर्च है वास्तविकता यह है कि वह भी हमारी तरह परमाणु संपन्न देश है..जिसकी एटमी बटन गैरजिम्मेदार हाथों में हैं। अटलजी के जन्मदिन के अवसर पर हम पाकिस्तान को लेकर उनकी सोच और पाकिस्तान में अटलजी को लेकर बनी धारणा के बारे में एक नजर डालते हैं..।

पाकिस्तान से दोस्ती के लिए प्रयासरत रहे अटलजी

अटलबिहारी वाजपेयी का जब निधन हुआ तब आश्चर्यजनक तौर पर जो सबसे मार्मिक प्रतिक्रिया आई वह पाकिस्तान से। वहां के प्रायः सभी अखबारों में भारत पाकिस्तान के बीच शांति के प्रयासों के लिए वाजपेयी जी को याद किया गया। एक अखबार ने अपने संपादकीय में लिखा था कि वाजपेयी ने शांति और समझौते के लगातार और बार-बार प्रयास किए, लेकिन हमने गंभीरता से लेने की बजाय हर बार धोखा दिया। पाकिस्तान के जाने माने पत्रकार हामिद मीर ने अपने स्तंभ में लिखा- वाजपेयी ने दोनों देशों के बीच शांति और सौहार्द के जो सपने बोये थे पाकिस्तान की बहुसंख्यक अवाम कि दिलों में वे अभी भी पल रहे हैं। पाकिस्तान के नए हुक्मरान इमरान खान और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शांति के उनके सपने को हकीकत में बदल सकते हैं। आजादी के बाद अटलजी ही ऐसे महान राजनेता हुए जिन्होंने न सिर्फ इस थ्योरी को स्थापित किया कि भारतीय उप महाद्वीप में यदि शांति और सौहार्द चाहिए तो अखंडभारत के बजाय पाकिस्तान के अस्तित्व को खुले मन से स्वीकार करना होगा। गंगा और झेलम का पानी इतना बह चुका है कि अब उस टीस का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि कभी यह विशाल भारत की मजबूत बाँह हुआ करता था। इसीलिए वे 1999 में बस पर सवार होकर लाहौर गए तथा निशान-ए-पाकिस्तान में पहुँचकर कहा कि हम मजबूत, संप्रभु और जम्हूरियत पर यकीन करने वाले पाकिस्तान की कामना करते हैं। वाजपेयी जी ने पार्लियामेंट में अपने संकल्पों को कई बार दोहराया- हम इतिहास बदल सकते हैं भूगोल नहीं, हम दोस्त बदल सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं। 

कवि जब शासक हो तो चीजें होती हैं आसान

एक कवि यदि शासक हो जाए तो वह अपने फैसलों को भी कवि भाव से परिपूर्ण रखता है। उन्हें यह विश्वास था कि शांति का रास्ता शक्ति के दहाने से निकलता है। अटलजी ने तय कर लिया था कि विश्वमंच में परमाणु विस्फोट करके ही एक शक्ति के रूप में स्थापित हुआ जा सकता है। बहरहाल यह संकल्प पूरा हुआ जब उनकी 13 महीने वाली सरकार बनी। कवि रूप में वाजपेयी जी में शिवमंगल सिंह सुमन और रामधारी सिंह दिनकर का साम्य दिखता है.. तूफानों की ओर मोड़ दे नाविक निज पतवार। वे लीक छोड़कर चलने वाले सपूत थे, भँवरों और तूफानों से जूझने का माद्दा रखने वाले। यह जानने के बावजूद भी कि परमाणु परीक्षण के बाद प्रतिबंधों का झंझावात भी आएगा लेकिन उनके सामने संभवतः दिनकर के कुरुक्षेत्र की वो पंक्तियां बार-बार झंकृत हो रही होंगी

- क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, 

उसका क्या जो दीनहीन विमषहीन विनीत सरल हो। 

पाकिस्तान को हमारी भाषा तब समझ में आएगी जब हमारे पास उसको क्षमा करने योग्य सामर्थ्य होगा। 

भारत और पाकिस्तान के बीच स्थाई शांति अटलजी का सबसे बड़ा सपना था। यद्यपि शांति के प्रयासों के बीच बार बार पाकिस्तानी दगाबाजी को भी उन्होंने सहा। जब वे अमृतसर से बस पर सवार होकर लाहौर नवाज शरीफ से मिलने जा रहे थे तभी रास्ते में जम्मू से खबर मिली कि आतंकवादियों ने 12 हिंदुओं का कत्ल कर दिया है..फिर भी वे अविचलित से रहे। लाहौर से लौटे ही कि पाकिस्तान की सेना ने वहां की सरकार को अँधेरे में रखकर कारगिल पर चढाई कर दी। मात खाने के बाद गुस्साए नवाज शरीफ ने मुशर्रफ को बर्खास्त किया तो सेना के कमांडरों ने उनका तख्ता पलटकर जेल भेज दिया। इसके बाद कंधार विमान अपहरणकांड हुआ। तीन दुर्दांत आतंकवादियों को जेल से निकाल कर उनके घर तक पहुँचाना पड़ा। इस घटना से सँभल पाते कि  रिहा किए गए आतंकवादी अजहर मसूद ने संसद पर हमला करवा दिया। 

स्वप्नदर्शी अटलजी, दो हर हाल में दोस्ती बनाए रखना चाहते थे

दरअसल वाजपेयी जी इस कटु यथार्थ को जानते थे कि सबल देश का दुश्मन पड़ोसी भी ऐसा सिर दर्द होता है कि उसके फेर में देशहित की योजनाएं और फैसले भी सदा सर्वदा प्रभावित होते हैं। दुश्मनी घर फूँक तमाशा देखने जैसी एक अनंतकालीन होड़ है जिस पर विराम लगाए बिना देश के उत्थान के बारे में प्रभावी ढंग से सोचा नहीं जा सकता। इसीलिए वाजपेयी जी का चीन के साथ मजबूत रिश्तों पर हमेशा से ही जोर रहा। जनता शासन में विदेश मंत्री रहते हुए 62 के युद्ध के बाद चीन जाने वाले वे पहले राजपुरुष थे। अपने शासनकाल में ही उन्होंने 'अछूत' इजरायल से रिश्ता प्रगाढ करने की शुरूआत की। वाजपेयी जी स्वप्नदर्शी राजनेता थे। पाकिस्तान की जम्हूरियत को वे हमेशा मजबूत देखना चाहते थे इसलिए करगिल के बाद भी नवाज शरीफ के कुशलक्षेम को लेकर वे हमेशा चिंतित रहे। वाजपेयीजी को पाकिस्तान की बहुसंख्यक अवाम इसीलिए आज भी बेइंतहा प्यार करती है। दोनों देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो भारत-पाक को लेकर वाजपेयी जी के सपने को पूरा होते देखना चाहते हैं। लोकशाही जब अपने पर आती है तो बड़े बड़े सत्ताधीशों को झुका देती है। अब यह पाकिस्तान के अवाम की प्रबल भावनाओं पर निर्भर करता है कि फौज प्रायोजित अपने नए हुक्मरान इमरान खान पर भारत से रिश्तों को लेकर कितना दबाव बना पाती है। नरेन्द्र मोदी तो दुनिया और विपक्ष की परवाह किए बगैर एक बार पाकिस्तान जाकर और उसे गले लगाकर वाजपेयीजी की परंपरा को जीवंत बना आए हैं। नाहक की घृणा और अदावत दोनों देशों के लिए तबाही और बर्बादी का ही रास्ता खोलेगी। इसलिए वाजपेयी जी के सपने दोनों देशों के दिलों में जिंदा बनाए रखना जरूरी है। 

महाकवि नीरज ने अपने गीतों में अटलजी की ही भावनाओं को व्यक्त किया है कि-

मेरे दुख दर्द का तुझपे हो असर कुछ ऐसा,

मैं भूँखा रहूँ तो तुझसे भी न खाया जाए।। 

Jayram Shukl Atal Bihari Vajpyee Jayanti 25 december