मैं जब भी शासकीय दौरे पर जाता तो मेरी पत्नी शकुन राशन पेटी तैयार कर साथ में रखती थीं। राशन पेटी में आटा, दाल, चावल, चाय, शक्कर, मसाले और दो कांच की शीशियों में तेल व घी के साथ सब्जी के लिए आलू-प्याज रखे जाते थे। मैं नियमित रूप से पान खाता था, इसलिए राशन पेटी में खुले मीठे पान के पत्ते भी रखे जाते । उस समय दौरा करते वक्त राशन पेटी इसलिए जरूरी थी कि जहां हम लोग रुकते वहां होटल, रेस्त्रां या दुकानें नहीं होती थीं। घने भीतरी जंगलों के पास ही हम लोग कैम्प करते थे। उपलब्ध होने पर रेस्ट हाउस में रुक जाया करते थे। कई बार गांव के किसी किसान या मालगुजार के कमरों या कभी-कभी ऐसे स्थानों में भी रुकना पड़ता था, जहां पास में ही गाय या भैंस बंधी होती थी। घने जंगलों में शुद्ध व साफ सुथरा सामान, सब्जी, पान का मिल पाना कठिन होता था। हां, मुर्गी व अंडे जरूर मिल जाते थे, लेकिन मैं इन चीजों को खाता ही नहीं था, इसलिए आलू.प्याज से ही काम चलाना पड़ता था। विशेष रूप से तैयार की गई कई खंडों वाली लकड़ी की राशन पेटी, शासकीय दौरे पर ले जाने का सिलसिला, वर्ष 1956 में शासकीय सेवा में आने से लेकर वर्ष 1984 में भोपाल पोस्टिंग तक निरंतर जारी रहा।
कैसे-कैसे अधिकारी कैसा-कैसा व्यवहार
नए मध्यप्रदेश का निर्माण 1 नवंबर 1956 को हुआ था। नए प्रदेश में पूर्व सीपी एन्ड बरार के कुछ क्षेत्रों के साथ ही मध्य भारत, विंध्य प्रदेश व भोपाल स्टेट को सम्मिलित किया गया था। जैसे ही इन क्षेत्रों का विलय हुआ और नए प्रदेश का गठन हुआ वैसे ही इन सभी क्षेत्रों के अधिकारियों व कर्मचारियों को नए प्रदेश में जोड़ लिया गया। मुझे महसूस हुआ कि विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए अधिकारियों की सोच, कार्यप्रणाली व रोजमर्रा के कार्य निपटाने की विधि में भिन्नता थी। मैंने पूर्व सीपी एन्ड बरार के अधिकारियों के अधीनस्थ रहते हुए महसूस किया था कि वे लगभग वही अनुशासन एवं कार्यविधि अपनाते जो अंग्रेजों के समय हुआ करती थी। स्वयं को उच्च श्रेणी का और अधीनस्थ कर्मचारियों को निम्न श्रेणी का समझते थे। रूखा व्यवहार रख कर अधीनस्थ कर्मचारियों से दूरी बना कर रखी जाती थी। उन्हें लिफ्ट न देना, काम के सिवाय कोई दूसरी बात नहीं करना, स्वयं कुर्सी पर बैठे रहना और सामने वाले व्यक्ति को खड़े रखना, अधीनस्थ कर्मचारियों की व्यक्तिगत कठिनाइयों से कोई सरोकार नहीं रखना, उनकी खासियत हुआ करती थी। अधीनस्थ अधिकारियों व कर्मचारियों से हाथ मिलाना तो बहुत दूर की बात हुआ करती थी, इसके विपरीत मैंने महसूस किया कि मध्य भारत, विंध्य प्रदेश व भोपाल स्टेट से आए हुए अधिकारियों का व्यवहार अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के प्रति सौहार्द्रपूर्ण होता था। वे उनकी कठिनाइयों के बारे में बात करते, उन्हें आदर व सम्मान देते, पूरे समय सरकारी काम की बजाय समय-समय पर उन्हें बैठा कर अन्य विषयों पर भी बातें करते थे। उच्चाधिकारी अधीनस्थ कर्मचारी की व्यक्तिगत समस्याओं को समझ कर समाधान निकालने का प्रयास करते थे। मैंने मध्य भारत से आए हुए एक डीएफओ को ट्रांसफर पर जाते समय चपरासियों व ड्राइवरों से हाथ मिलाते हुए स्वयं देखा था।
बरार के उच्चाधिकारी की काम पर केन्द्रित बात
फॉरेस्ट कंजरवेटर होशंगाबाद एसडीएन तिवारी सीपी एन्ड बरार क्षेत्र से आए अधिकारी थे। मैं सीधे रूप से उनके मातहत तो नहीं था, फिर भी उनसे मिलना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि वे विभाग के एक सीनियर अधिकारी थे। उन्हीं के कार्य क्षेत्र के अंतर्गत मैं वर्किंग स्कीम बना रहा था। मैं उनसे मिलने होशंगाबाद गया। उन्होंने काम की बात के अलावा कोई अन्य बात बिल्कुल नहीं की। मेरे अधीनस्थ जो कर्मचारी कार्य करते थे उनके कंट्रोलिंग ऑफिसर वे ही थे। एक बार मैं बुदनी के जंगलों में कार्य कर रहा था उसी समय एसडीएन तिवारी भोपाल से होशंगाबाद लौटते हुए मुझे जंगल क्षेत्र में ही मिले। उन्होंने जंगल के भीतर एक स्थान पर खड़े होकर चारों ओर जो पेड़ पौधे लगे हुए थे उनके नाम व बॉटनिकल नाम मुझसे पूछे। जिन्हें मैंने शतप्रतिशत सही बताया। उन्होंने प्रशंसा करते हुए कहा कि मुझे वर्किंग प्लान ऑफिसर रायसेन की तुलना में जंगलों की प्रजातियों के बारे में काफी अच्छी व अधिक जानकारी है। उनके अधीनस्थ वर्किंग प्लान ऑफिसर रायसेन, भोपाल ईस्ट फॉरेस्ट डिवीजन का वर्किंग प्लान बना रहे थे। संभवतः तिवारी ने उनसे भी पेड़ पौधों के बारे में प्रश्न किए होंगे, जिनका वे शायद सही उत्तर नहीं दे पाए होंगे। जंगलों में पाए जाने वाले पेड़-पौधों की जानकारी व उनके बॉटनिकल नाम जानना इसलिए ज़रूरी होता है, क्योंकि कंपार्टमेंट वाइज इसका पूरा रिकॉर्ड तैयार कर उसी के आधार पर वर्किंग स्कीम तैयार की जाना थी।
मध्य भारत के अफसर ने जीता दिल
कुछ समय पश्चात एसडीएन तिवारी का ट्रांसफर हो गया और उनके स्थान पर जीएस सोंधी फॉरेस्ट कंजरवेटर होशंगाबाद के पद पर पदस्थ हुए। सोंधी मध्य भारत क्षेत्र से आए हुए अधिकारी थे। जीएस सोंधी ने भोपाल में समस्त अधिकारियों व रेंज ऑफिसरों की बैठक बुलाई, जिसमें मैं भी शामिल हुआ। मुझे इस बैठक में एक सुखद अनुभूति का अनुभव हुआ। इससे पहले मैंने सीपी एन्ड बरार क्षेत्र के अधिकारियों के अधीनस्थ ही कार्य किया था और उनके द्वारा आयोजित बैठकों में हिस्सा लिया था। उनकी बैठक में सिवाय शासकीय कार्य के कोई अन्य बात नहीं हुआ करती थी। जीएस सोंधी ने अपनी पहली ही बैठक में सभी अधिकारियों व रेंज ऑफिसरों को सहजता का अनुभव कराया। उन्होंने सरकारी काम की बात करने के बाद सभी अधिकारियों, विशेष रुप से रेंज ऑफिसरों को सुझाव दिया कि वे अपने रहन-सहन का उच्च स्तर बनाए रखें। सोंधी ने कहा कि जब भी वे दौरे पर आकर रेंज ऑफिसर के क्वार्टर में पहुंचे तो वे नहीं चाहते कि खूंटी पर रेंज ऑफिसर के फटे पुराने कपड़े टंगे हों। उन्होंने अपनी बात से सभी रेंज ऑफिसरों व अन्य अधिकारियों का दिल जीत लिया। मेरे लिए भविष्य में पालन करने के लिए यह एक बहुत अच्छी सीख होनी चाहिए थी, परन्तु शासकीय सेवा के प्रारंभिक वर्षों में ही सीपी एन्ड बरार क्षेत्र के अधिकारियों के अधीनस्थ कार्य करते रहने के कारण मेरी कार्यप्रणाली की नींव लगभग रखी जा चुकी थी, जिसमें आसानी से संशोधन करना संभव नहीं दिख रहा था।
साहब की घनिष्ठता का फायदा उठाने वाले साधु महाराज
जीएस सोंधी भोपाल के एमएलए रेस्ट हाउस के कमरे में रुके हुए थे। मैं जब वहां उनसे मिलने पहुंचा तो मैंने देखा कि एक भगवा वस्त्र धारण किए हुए हट्टे-कट्टे साधू महाराज उनके आसपास इस तरह दिखाई दे रहे थे, जैसे उनकी सोंधी से अत्यंत घनिष्ठता हो। साधु महाराज सोंधी के ट्रांजिस्टर पर कुछ प्रोग्राम भी सुन रहे थे। मैंने अपने जीवन काल में ट्रांजिस्टर पहली बार वहीं देखा। मुझे आश्चर्य हुआ कि बगैर किसी तार कनेक्शन के ट्रांजिस्टर कैसे बज रहा था। बाद में जानकारी मिली कि ये साधू महाराज सोंधी साहब के साथ कभी.कभी दौरे पर भी जाया करते थे। उनकी घनिष्ठता का लाभ उठा कर साधु महाराज रेंज आफिसरों से मिलते और अनुचित मांगें रख कर संभवतः उनकी पूर्ति भी करवाते। सीपी एन्ड बरार के अधिकारी इस तरह के साधु संतों को कभी भी पास फटकने नहीं देते थे। ऐसे लोगों को वे अपने से दूर ही रखते थे। इस प्रकार दो क्षेत्रों से आए हुए अधिकारियों की कार्यप्रणाली में स्पष्ट अंतर देखने को मिला।
(लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं)