सूर्यकांत बाली। अगर शरीर की तरह हमारे मन के भी रोम होते तो विश्वामित्र का नाम सुनते ही हमारे शरीर ही नहीं मन को भी रोमांच हो आता। कोई अचानक विश्वामित्र का नाम ले ले तो बरबस याद आ जाता है, वह महापुरुष जिसने राम और लक्ष्मण को ऐसी शानदार शस्त्र विद्या दी कि न केवल दोनों भाइयों ने मारीच-सुबाहु जैसे राक्षसों का वध कर दिया, बल्कि यह विश्वामित्र की दी हुई अस्त्र विद्या का ही प्रताप था कि सीता- स्वयंवर में राम ने शिव का धनुष हाथों हाथ आनन-फानन उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी...
जिन्हें ब्राह्मण मानने से इंकार किया, उन्होंने ही इतिहास रचा
रोमांच उस विश्वामित्र- कथा को सुनकर भी हो आता है जिसमें विश्वामित्र की अभूतपूर्व तपस्या का वर्णन मिलता है कि तपोलीन मुनिवर अचानक मेनका अप्सरा के मोह में फंसकर कामलीन हो गए। जिससे एक कन्या शकुन्तला का जन्म हुआ, जिसका पुरुवंशी राजा दुष्यन्त से विवाह हुआ और जिन शकुन्तला-दुष्यन्त के पुत्र इतिहास प्रसिद्ध भरत हुए, जिनके वंश में आगे चलकर कौरव-पाण्डव हुए। इतना भर तो ठीक है। पर हमारे समाज के कथानायक विश्वामित्र के साथ दो बड़े भारी अन्याय हुए हैं। इतने भारी कि उनके बोझ तले विश्वामित्र का इस देश की सभ्यता को किया गया एक अभूतपूर्व विलक्षण योगदान, यानी उनके द्वारा की गई गायत्री मन्त्र की रचना को ही हम लोग भुला बैठे। एक अन्याय पुराणों ने किया है तो दूसरा अन्याय हमारे इतिहास और विचार को विकृत करने में खासी रुचि लेने वाले पश्चिमी विद्वानों ने किया है। विश्वामित्र का वसिष्ठों से दो बार संघर्ष हुआ। एक संघर्ष अयोध्या के राजा सत्यव्रत त्रिशंकु और उसके पुत्र हरिश्चन्द्र के समय हुआ और दूसरा संघर्ष तब हुआ जब पुरुवंशी सुदास के विरुद्ध दस राजाओं ने एक महासंघ बनाकर (दाशराज) युद्ध किया और सुदास से हारे। पहला संघर्ष विश्वामित्र ने देवराज वसिष्ठ से ब्राह्मणत्व पाने के लिए किया था और वह एक तरह से तप-संघर्ष था, जिसमें वसिष्ठ ने विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया। पर विश्वामित्र ने गायत्री मन्त्र बनाकर एक ऐसा नया अद्भुत कर्म कर दिया था कि वे पूरे देश में ब्राह्मण स्वीकार कर लिए गए और अन्ततः वसिष्ठ को भी उन्हें ब्राह्मण मानना पड़ा। यह घटना मनु से करीब ग्यारह सौ वर्ष बाद की है।
विदेशी झूठ के दबाव में खोया विश्वामित्र का गौरव
दूसरा संघर्ष विश्वामित्र ने शक्ति वसिष्ठ से उसकी कामधेनु गाय लेने के लिए किया, पर गाय लेने में सफल नहीं हुए। दाशराज युद्ध के समय की यह घटना राम से करीब डेढ़ सौ वर्ष बाद की है। यानी दो संघर्ष हुए और दोनों संघर्षों में तेरह सौ से ज्यादा वर्षों का अन्तर है, पर पुराणों ने दोनों को मिलाकर एक कर दिया और ऐसा एक किया कि देश इस बात को भुला ही बैठा कि विश्वामित्र ने गायत्री मन्त्र की रचना कर एक नई बौद्धिक क्रान्ति देश में ला दी थी। दूसरा अन्याय पश्चिमी विद्वानों ने किया जो आर्यों को एक नस्ल मानने और उनके बाहर कहीं से भारत आने के दो झूठ की तरह एक तीसरे झूठ को प्रतिष्ठित करने में लगे थे कि इस देश में ब्राह्मण और क्षत्रिय हमेशा आपस में लड़ते रहे हैं। वसिष्ठ (ब्राह्मण) और विश्वामित्र (क्षत्रिय) के संघर्ष को वे इसका सबसे पुराना उदाहरण बनाकर परोसते रहे और झूठ के दबाव में हमारे विद्वान याद ही नहीं कर पाए कि विश्वामित्र ने आखिर इस देश को दिया क्या। चलिए कथा की ओर चलते हैं...
पहला मंत्र जो जन— जन में गाया गया...
राजा कुशिक के पुत्र थे और पिता के बाद खुद कान्यकुब्ज के शासक बने। कुछ विवरणों के मुताबिक वे कुशिक के पौत्र व गाथिन के पुत्र थे। जब विश्वरथ कान्यकुब्ज (आज के कन्नौज) पर शासन कर रहे थे तब अयोध्या में उस सत्यव्रत का राज चल रहा था जिसे हम त्रिशंकु के नाम से जानते हैं। बस इसमें मजेदार बात कुलगुरु यह है कि विश्वरथ और सत्यव्रत त्रिशंकु गहरे दोस्त थे और अपनी अपनी तरह के
जबर्दस्त झक्की भी थे। विश्वरथ की राजकाज में कोई खास रुचि थी नहीं और वक्त बौद्धिकता में लीन रहने वाले विश्वरथ की महत्वाकांक्षा एक ही थी कि उन्हें ब्राह्मण मान लिया जाए। पर वक्त के सर्वाधिक पूजनीय ऋषि कुल के प्रमुख देवराज वसिष्ठ को यह बात स्वीकार नहीं थी। तर्क यह था कि पहले तपस्या करके दिखाओ तो ब्राह्मण मानने की बात उठे। उधर सत्यव्रत त्रिशंकु की झक यह थी कि उसके देवराज वसिष्ठ कुछ ऐसा यज्ञ करें कि वह (त्रिशंकु) सीधा अपने शरीर के साथ ही स्वर्ग पहुँच जाए। देवराज वसिष्ठ ने मना कर दिया। यानी विश्वरथ और त्रिशंकु दोनों मन मसोस कर रह गए और दोनों का कारण एक ही था-देवराज वसिष्ठ। त्रिशंकु तो कुछ कर नहीं पाया, पर विश्वरथ ने ठान ली कि यह राजकाज क्या होता है? तप करेंगे और ऐसा तप करेंगे कि वसिष्ठ को आखिर उन्हें ब्राह्मण मानना ही पड़ेगा। तय करते ही विश्वरथ ने राजपाट त्याग दिया और ऐसा त्यागा कि उनके बाद कान्यकुब्ज का कोई उस समय का राजवंश ही नहीं मिलता। वे अपने परिवार को लेकर आज के गुजरात-सौराष्ट इलाके में, जिसे उन दिनों सागरानपाकहा जाता था, चले गए। वहाँ लम्बी तपस्या करने के बाद भी जब वसिष्ठ ने उन्हें ब्राह्मण नहीं माना तो विश्वरथ ने, जो अब तक विश्वामित्र हो चुके थे, कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर रूग तीर्थ पर तपस्या का एक दूसरा दौर चलाया। वसिष्ठ को उससे भी संतोष शायद नहीं हुआ। विश्वामित्र भला कहाँ मानने वाले थे? वे राजस्थान के अजमेर (अजयमेरु) इलाके में पुष्करी तीर्थं पर सविता (सूर्य) की उपासना में लग गए और वहीं उन्होंने गायत्री मन्त्र की रचना की- तत्सवितुवेरण्यम्, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात् अर्थात् हम सूर्य के परम तेज पर ध्यान लगाते हैं जो हमें बुद्धि प्रदान करे। इस मन्त्र रचना के समय तक वसिष्ठ ने विश्वामित्र को राजर्षि तो मान लिया था, पर चौबीस अक्षरों वाले इस गायत्री मन्त्र का असर इतना विलक्षण था कि जब जनसामान्य में इस मन्त्र का चलन हो गया तो बरबस वसिष्ठ को उन्हें ब्राह्मण मानना पड़ा। आज से करीब सात हजार वर्ष पहले त्रेतायुग के आरम्भ के आसपास विश्वामित्र ने पहली बार एक ऐसा मन्त्र रचा जो कविता में, ऋचा में, छन्द में था, जिसमें चौबीस अक्षर थे, जिसमें गेयता थी और जो यज्ञ के लिए नहीं, बल्कि सूर्य से बुद्धि की तीव्रता की प्रार्थना के लिए रचा गया था। वह गेय यानी गाने लायक था, इसलिए उसे गायत्री कहा गया और गाने लायक होने के कारण वह लोगों की जुबान पर सहसा चढ़ गया और आज तक चढ़ा हुआ है। गायत्री मन्त्र ऋग्वेद के तीसरे मंडल के 62 वें सूक्त (3.62) में संकलित हैं।
वेदों में मन्त्रों का संकलन कालक्रमानुसार नहीं
तो कैसे मालूम पड़ा कि यह पहली ऋचा है, ऋग्वेद का पहला मन्त्र है? ऋग्वेद के करीब दस हजार मन्त्रों का संकलन करीब एक हजार सूक्तों में है। इन सूक्तों की रचना जिन ऋषियों द्वारा की गई है, शोधकर्ताओं ने गहरा अनुसंधान करके उनका कालक्रम तय किया है और उस श्रृंखला में हमारे महानायक विश्वामित्र का नाम सर्वप्राचीन है जिनका पहला मन्त्र गायत्री है। वैसे तो वसिष्ठों का उदय विश्वामित्रों से एक हजार साल पहले हो चुका था, पर वसिष्ठों ने यानी वसिष्ठ कुल के मैत्रावरुण वसिष्ठ ने पहला सूक्त विश्वामित्र के भी करीब तेरह सौ साल बाद अर्थात् दाशराज युद्ध के बाद रचा (ऋग्वेद 7.22)। ऋग्वेद की पोथी खोलेंगे तो उसमें आपको पहला मन्त्र कोई और ही नजर आएगा। पर याद रहना चाहिए कि वेदों में मन्त्रों का संकलन कालक्रमानुसार नहीं है। क्रम किस आधार पर तय हुआ, वेदव्यास के मन में इस क्रम को बनाने का क्या कारण था, इसे आज तक कोई नहीं जान पाया। पर आज लोगों ने रिसर्च कर डाली है और उसी रिसर्च ने विश्वामित्र को ढूंढ निकाला है जिसने हम भारतवासियों को ऋग्वेद का पहला, गायत्री मन्त्र दिया। तो धन्य कौन हुआ-विश्वामित्र या हम या हमारा भारत देश? जवाब है- सभी