करवट बदलती कांग्रेस के सामने कायाकल्प की कठिन चुनौती, फीनिक्स की तरह अपनी राख से बार बार खड़ी होती रही पार्टी

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करवट बदलती कांग्रेस के सामने कायाकल्प की कठिन चुनौती, फीनिक्स की तरह अपनी राख से बार बार खड़ी होती रही पार्टी

सवा सदी से ज्यादा पुरानी कांग्रेस पार्टी करवट बदल रही है। रस्मी तौर पर पार्टी के नए अध्यक्ष के साथ गांधी नेहरू उपनाम से मुक्त हो जाएगी। लेकिन सब जानते हैं कि अध्यक्ष भले ही कोई भी बन जाए रहना उसे गांधी परिवार की छत्रछाया में ही है। अब नए अध्यक्ष के साथ गांधी परिवार के कंधों पर कांग्रेस के कायाकल्प की महती जिम्मेदारी बढ़ जाएगी।





भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बाकायदा निर्वाचन प्रक्रिया के जरिए अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने जा रही है। मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर के बीच बैलेट पेपर वोटिंग हुई। करीब 137 साल के कांग्रेस के इतिहास में गिने चुने अवसर आए हैं, जब पार्टी ने मतदान के जरिए अपना सदर चुना है। इस बार का चुनाव बाइस साल बाद हुआ है। इससे पहले सन 2000 में सोनिया गांधी, जितेंद्र प्रसाद को हरा कर अध्यक्ष बनी थीं। कांग्रेस अध्यक्ष के इतिहास पर बात करने से पहले यह विचार करना समीचीन होगा कि आखिर इस चुनाव के वास्तविक निहितार्थ क्या हैं और भविष्य की राजनीति पर इसका कितना असर होने वाला है?





एक : परिवारवाद के आरोप से मुक्ति मिलेगी





गांधी नेहरू परिवार के बाहर से अध्यक्ष बनने का सबसे बड़ा फायदा तो यह होगा कि कांग्रेस पर लगने वाला परिवारवाद का आरोप थोड़ा कुंद हो जाएगा। भले ही पार्टी अब भी गांधी परिवार की ही बपौती बनी रहेगी लेकिन यह कहने का सुभीता तो रहेगा ही कि पार्टी का अध्यक्ष कोई गांधी नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी ने इस्तीफे के साथ ही एक तरह से भीष्म प्रतिज्ञा कर ली थी कि ना तो वे खुद पार्टी अध्यक्ष बनेंगे और ना गांधी उपनाम वाला उनका कोई परिजन। राहुल ने बेहिसाब मान मनौव्वल को नहीं माना और अपने फैसले पर अडिग रहे। 





दो : पार्टी को खड़ा और मजबूत करना असली चुनौती





नए अध्यक्ष के सामने असली चुनौती है- पार्टी को पैरों पर खड़ा करना। लगातार चुनावी विफलताओं ने पार्टी के मनोबल को ना केवल खोखला सा कर दिया है, बल्कि जमीनी संगठन भी छिन्न-भिन्न हो गया है। नए अध्यक्ष को सबसे पहले संगठन खड़ा करना होगा। इस प्रक्रिया में अध्यक्ष को हर उस सूरमा से भी दो-दो हाथ करना होंगे, जो अब तक सीधे 10, जनपथ की देहरी तक दखल रहता है। नए अध्यक्ष को 10, जनपथ और बाकी नेताओं के बीच संतुलन बनाने की रस्सी पर चलने जैसी कवायद हर दिन करना होगी। अतीत में जिसने भी गांधी परिवार की तरफ पीठ करके खुद को खड़ा करने की कोशिश की, उसका हश्र ज्यादा अच्छा नहीं रहा। सीताराम केसरी का उदाहरण ज्यादा पुराना नहीं है। 





कभी दिग्गज नेता कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, लेकिन अब काफी पानी बह चुका





कांग्रेस पार्टी में गैर-गांधी परिवार के बीसियों अध्यक्ष रह चुके हैं, लेकिन तब की बात और थी। तब जवाहरलाल, इंदिरा, राजीव जैसा कोई ना कोई देश का मुखिया होता था। पार्टी कई बार बनती, बिखरती रही। बड़े बड़े दिग्गज पार्टी से जाते और फिर लौट कर आते रहे। इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री रहते हुए सिंडीकेट ने पार्टी से बेदखल तक कर दिया, लेकिन यूनानी मिथकों के फीनिक्स पक्षी की तरह कांग्रेस बार बार अपनी राख से जीवित होकर उठती रही।





लेकिन अब गंगा जमुना में बहुत पानी बह चुका है। यह भारतीय राजनीति का मोदी शाह युग है और कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे निचले पायदान पर है। इस रसातल से उबरने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष नाम का सिर्फ़ नामलेवा चना अकेला भाड़ नहीं झोंक सकता, ये भी सर्वविदित है। अब तक गांधी उपनाम वाली चुंबक से चिपकती रही पार्टी आगे भी गांधी के बिना चार क़दम शायद ही चल पाए। खुद गांधी नामधारी माता, पुत्र, पुत्री इस जिम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते। कांग्रेस को हमेशा के लिए इतिहास के कूड़ेदान में जाने से रोकने के लिए उन्हें भी अध्यक्ष के साथ, आगे, पीछे, दाएं-बाएं खड़े रहना ही होगा, वरना पार्टी को बिखरने से कोई नहीं बचा सकता। यह तो भविष्य ही बताएगा कि अपनी इस जिम्मेदारी को गांधी परिवार कितना जिम्मेदारी से समझता, बूझता है।





फिलवक्त राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को पार्टी में जान फूंकने के एक बड़े कदम के रूप में दर्ज किया जा रहा है। यह यात्रा अपने उद्देश्य में सचमुच कितना सफल होगी, यह आने वाले डेढ़ दो साल में सबके सामने आ जाएगा।





अंग्रेज ने एक स्कूल में स्थापित की कांग्रेस





भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास एक सौ सैंतीस साल पहले शुरू होता है। भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम सन 1857 की क्रांति ने भारतीय मनीषा को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करने का काम किया था। भले ही यह क्रांति अपने उद्देश्य में विफल रही लेकिन इसने सोए हुए देश को जगाने का काम किया। क्रांति के बाद बंगाल, मद्रास, मुंबई आदि में भारतीयों ने  सार्वजनिक सभा,संस्थाएं बनाना शुरू कर दिया था। ये संस्थाएं भारतीयों के हित की बात करने लगीं थीं।





संयोग से एक अंग्रेज अधिकारी एलन ऑक्टेवियन ह्यूम ने ऐसे संगठन की स्थापना की पहल की जो भारतीयों की दशा दिशा पर विचार करे और ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित करे। दिलचस्प संयोग यह भी है कि ह्यूम 1857 की क्रांति के समय इटावा में कलेक्टर थे। एक मौके पर क्रांतिकारियों ने ह्यूम को इटावा से खदेड़ दिया था और उन्हें आगरा में शरण लेना पड़ी थी। ह्यूम भविष्य में अंग्रेज हुकूमत के साथ भारतीयों के संघर्ष को टालने के लिए एक सेफ्टी वाल्व के रूप में कोई संस्था बनाना चाहते थे।





ह्यूम ने 28 दिसंबर 1885 को बॉम्बे के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में एक सभा बुलाई थी। इसमें अलग अलग संस्थाओं के कुल 72 प्रतिनिधि शामिल हुए। इसी अवसर पर ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। खुद संस्थापक महासचिव बने और व्योमेश चंद्र बनर्जी को अध्यक्ष मनोनीत किया। तब कांग्रेस के ज्यादातर सदस्य बॉम्बे और मद्रास प्रेसिडेंसी के ही थे। बाद में जब भारतीय राजनीति में मोहनदास करम चंद गांधी का प्रवेश हुआ तब कांग्रेस देश के स्वतंत्रता संग्राम की ध्वजवाहक बनी।





देश की सबसे पुरानी पार्टी दर्जनों बार टूटी, बिखरी





भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने सवा सौ साल के इतिहास में अनेक बार टूटी। बड़े बड़े नेताओं ने पार्टी से बाहर जाकर अलग दल बनाए। कई नेता बाहर जाकर वापस आए और फिर पार्टी के होकर ही रहे। पार्टी में पहला विभाजन तो आज़ादी से पहले ही हो गया था जब मोतीलाल नेहरू ने चितरंजन दास के साथ कांग्रेस छोड़ कर स्वराज पार्टी का गठन किया था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी कांग्रेस से अलग होकर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। आजादी के बाद 1951 में भी कांग्रेस टूटी। तब आचार्य जेबी कृपलानी ने किसान मजदूर प्रजा पार्टी बना ली थी। 





कभी इंदिरा गांधी को ही पार्टी से निकाल दिया, फिर इंदिरा का नाम ही कांग्रेस हो गया





कांग्रेस पार्टी आजादी के बाद से ही नेहरू-गांधी परिवार  की छाया में फली फूली। लेकिन एक दौर ऐसा भी आया जब पार्टी के दिग्गजों के एक ग्रुप ने इंदिरा गांधी को ही पार्टी से बाहर कर दिया, जबकि वे उस समय प्रधानमंत्री थीं। एस निजलिंगप्पा, के कामराज, नीलम संजीव रेड्डी, मोरारजी देसाई जैसे सूरमाओं के सिंडीकेट ने 1969 के राष्ट्रपति चुनाव में इंदिरा गांधी की राह में रोड़े अटकाए, लेकिन इंदिरा गांधी ने अपने उम्मीदवार को जीत दिला दी। हताश सिंडीकेट ने इंदिरा गांधी को ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। तब इंदिरा ने कांग्रेस (R) बनाई जो बाद में कांग्रेस (आई)  बन गई। यही आज की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है। कांग्रेस में टूट फूट, विभाजन, बगावत का सिलसिला कभी नहीं थमा। राजीव गांधी से लेकर सोनिया,राहुल तक यह सिलसिला चलता ही रहा है और अब भी जारी है। देखना है बदलते वक्त में पार्टी के नए अध्यक्ष इसे किस तरह पटरी पर लाते हैं..? 





(डॉ. राकेश पाठक वरिष्ठ पत्रकार, संवेदनशील कवि और लेखक हैं)



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