बघेली 'बोली-भाखा' का कालजयी महाकाव्य है रामचरित मानस..!

author-image
एडिट
New Update
बघेली 'बोली-भाखा' का कालजयी महाकाव्य है रामचरित मानस..!

जयराम शुक्ल। जिन किन्हीं ने भी वार्षिक कैलेण्डर में मातृभाषा दिवस को एक तिथि के रूप में टांका है उनके चरणों में मुझ अकिंचन का प्रणाम्। प्रणाम् इसलिए भी कि जिन-जिन के साथ माता का विशेषण जुड़ा है वे सब खतरे में हैं। धरती माता बुखार से तप रही है। गंगा माता का दम सड़ांध में घुट रहा है। गोमाता सड़कों पर डंडे खाने और विष्ठा खाकर पेट भरने, पन्नी खाकर मरने के लिए छोड़ दी गईं हैं। गीता माता के वैभव पर धर्म और सांस्कृतिक फूहड़ता का ग्रहण है।  और वे माताएं जिन्होंने अपनी कोख से हमें जना हैं उनके जीवन का उत्तरार्द्ध या तो वृद्धाश्रम में खप रहा है या फिर कनाडा, अस्ट्रेलिया, अमेरिका कमाने गए बेटों के इंतजार में ड्राइंग रूम में बैठे-बैठे मम्मी से ममी में बदल रही हैं।



मां नर्मदा से जुड़ी है विंध्य की मातृभाषा: मातृभाषा पर भी ऐसा ही संकट है। संकट पर विस्तार से व्याख्या फिर कभी, आज तो हम अपनी मातृभाषा के रूपरंग, कद-काठी पर बात करेंगे। हमारा अस्तित्व माँ नर्मदा से है। जिन्हें रेवा कहा जाता है। स्कंदपुराण में रेवाखंड नाम का एक अध्याय ही है। इसी में सत्यनारायण की कथा है। सांस्कृतिक और पारंपारिक तौर पर यह कथा हमारे अत्यंत निकट है। तो हमारी संस्कृति रेवाखंडी है..यहीं से रीवा शब्द उपजा, और रीमा, रिमहा, रिमही बना। उससे पहले रेवापत्तनम् जैसै -जैसे राजा आए यहां राज करने, वैसे वैसे कुछ न कुछ जुड़ता या घटता रहा। जब यह बघेल राजाओं का रीमाराज्य बना तब यहां की बोली को रिमही का नाम मिला। रीमाराज्य के ऊपर अँग्रेज बैठे तो इसे बघेलखंड बना दिया और इस तरह अपनी रिमही बन गई बघेली..! तो पहले तय किया जाए कि हम अपनी बोली को बघेली कहें या रिमही। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इससे हमारी बोली का भूगोल, इतिहास और भविष्य का निर्धारण होना है। 



अंग्रेजों ने रिमही को बघेली बनाया: भाषा का इतिहास लिखने वालों ने अपने सर्वेक्षण और वर्गीकरण में अपनी बोली को बघेली का नाम दिया है। यही नाम अब चलन में भी है। अंग्रेज शिक्षाविद् गियर्सन महाशय ने भाषा-बोली के सर्वेक्षण व वर्गीकरण में इसे अवधी से निकली हुई उपबोली बताया और बघेली नाम दिया। बांधवगद्दी के रीमा स्थानांतरित होने व रीमाराज्य बनने के बाद अंग्रेजों का पहला हस्तक्षेप महाराजा अजीत सिंह (1755-1809) के शासनकाल में हुआ। इसी बीच एक अंग्रेजी यात्री लेकी ने भी राज्य की यात्रा की। उसने अपनी डायरी में यहां की तत्कालीन संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपराएं परिवेश, बोली-भाषा का उल्लेख किया। अंग्रेज हुकूमत की पहली विधिवत संधि महाराज जयसिंह (1809-1833) के समय हुई। इसके बाद उनका दखल बढ़ता गया और महाराज विश्वनाथ सिंह के समय तक सत्ता के सूत्र एक तरह से अंग्रेजों के हाथों में ही आ गया। 



रिमही से बघेली बनने की कहानी: इतिहास में जिसे हम रीमाराज्य कहते हैं वस्तुत: अंग्रेजी हुकूमत के शासन प्रबंधन की दृष्टि से यह बघेलखंड पॉलटिकल रीजेंसी हो गया। ब्रिटिश हुकूमत ने रीमाराज्य शब्द को अपने बात व्यवहार और शासन-प्रशासन से तिरोहित कर दिया। राज्य के शासन प्रबंधन के लिए अंग्रेजों ने प्रत्येक क्षेत्र में अध्ययन व सर्वेक्षण शुरू किया। इसी काल में कनिघंम महाशय भी आए और इस क्षेत्र के पुरातत्व का विशद सर्वेक्षण किया। गोर्गी-भरहुत तभी चर्चा में आए बौद्धकालीन और कल्चुरिकालीन पुरासंपदाएं रिकार्ड में दर्ज हुईं। उधर गोड़वाने में वॉरियर आल्विन  जनजातियों  पर अध्ययन कर रहे थे, तो इधर वॉल्टर जी ग्रिफिथ महोदय। वॉलटर ग्रिफिथ ने बघेलखंड के जनजातियों की बोली, भाषा, संस्कृति, रहन-सहन का विशद अध्ययन कर 'ट्राइब्स इन सेंट्रल इंडिया' नाम की महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी, जिसे कलकत्ता की एशियाटिक सोसायटी ने छापा। पूरी किताब में गिफिथ ने कहीं भी बघेली बोली का उल्लेख नहीं किया। इसके बाद आए ग्रियर्सन। उन्होंने उत्तर भारत की भाषाओं और बोलियों का सर्वेक्षण वर्गीकरण किया। बघेलखंड पॉलिटकल रीजेंसी में जो बोली जाती थी उसका नाम वैसे ही बघेली रख दिया जैसे कि बुंदेलखंड की बुंदेली। यानी कि बघेलखंड पॉलटिकल एजेंसी की स्थापना के बाद से ही बघेली शब्द आया। 



 रिमही का नया नाम किसी भी रीमाराजा को रास नहीं आया: अपनी बोली के इस नए नाम को किसी भी राजा ने स्वीकार नहीं किया। विश्वनाथ सिंह से लेकर गुलाब सिंह तक। यहां तक कि अंतिम शासक मार्तण्ड सिंह की जुबान में भी रिमही जनता और रिमही बोली जमी रहीं न कि बघेली जनता व बघेली बोली। महाराजा गुलाबसिंह के पुष्पराजगढ़ घोषणापत्र में ऐलान किया था कि राज्य सभी कामकाज रिमही बोली होंगे। इन्हीं कार्यकाल में उर्दू-फारसी में लिखी जाने वाली अर्जियां रिमही बोली में लिखी जाने लगीं। अभी भी उस समय के करारनामें, अर्जियां, सनद लोगों के पास हैं जो रिमही में लिख गई हैं। गजब यह हुआ कि जिस बघेली शब्द को यहां के राजे-महाराजों ने खारिजकर दिया उसे स्वतंत्र भारत के हिंदी के पंडों ने आगे बढ़ाया व महिमामण्डित किया। अव्वल तो हमारी बोली के शोध,  अनुसंधान व दस्तावेजीकरण की दिशा में कोई खास काम हुआ ही नहीं, जिन्होंने किया वो ग्रियर्सन की खींची लकीर व दी गई स्थापना के इर्द-गिर्द ही खुद को शामिल रखा। बोली और भाषा जाति की नहीं जमीन की होती है।



रामचरित मानस की भाषा अवधी नहीं बल्कि रिमही है: विन्ध्य के यशस्वी समालोचक कुंवर सूर्यबली सिंह 'बघेली की स्थापना को खंडित करने में लगे रहे। उन्होंने सबसे पहले अपने आलेखों में लिखा कि गोस्वामी तुलसीदास का रामचरित मानस रिमही में लिखा गया महाकाव्य है। चूंकि हिन्दी में उत्तरप्रदेश के विद्धानों का वर्चस्व रहा इसलिए रामचरित मनास जैसे कालजयी महाकाव्य को बलात् अवधी के खाते में डाल दिया गया। गोस्वामी जी ने रामचरित मानस का तीन चौथाई हिस्सा चित्रकूट में रहकर लिखा है। बांदा में जो बोली व्यवहार व चलन में है व खलिस रिमही है। मानस में कई ऐसे शब्द हैं जो रिमही के अलावा किसी बोली और भाषा में नहीं हैं। इस दृष्टि से हमें यह कहने व प्रचारित करने में गर्व होना चाहिए कि विश्वभर में सबसे अधिक पढ़ा और बाचा जाने वाला महाग्रंथ रामचरित मानस रिमही बोली की कृति है। हिंदी के जो इतिहासकार इसे अवधी का कहते व मानते हैं उनके लिए जवाब है कि यदि रामचरित मानस अवधी का महाकाव्य है तो समझिए की अवधी ही मूलरूप से रिमही है। 



सिर्फ रीमाराज्य तक सीमित तक सीमित नहीं थी रिमही: गोस्वामी तुलसीदास महाराजा रामचंद्र (1555-1592) के समकालीन थे, उस समय यह बोली समूचे बांधवगढ़ में न सिर्फ चलन में थी, अपितु इस बोली पर एक से एक रचनाएं रची जा रहीं थी। संगीत सम्राट तानसेन की ध्रुपद रचनाओं में भी इसकी छाप थी। यद्यपि तब इस बोली को रिमही नहीं कहा जा सकता। क्योंकि तब रीमा अस्तित्व में ही नहीं था। अब आती है रिमही के विस्तार की बात। रिमही कोई रीमाराज्य (इतिहासोल्लिखित) या अंग्रजों के द्वारा घोषित किए गए बघेलखंड तक सीमित नहीं है, जैसे कि भोजपुरी बिहार के छोटे जिले भोजपुर तक सीमित नहीं हैं। भोजपुरी तो सात समंदर पार, कई देशों, मारीशिश, फिजी, त्रिनिनाद, टोबेगो जैसे देशों की मातृभाषा है। अपने देश में भोजपुरी  हिंदी व अन्य भाषाओं के समानांतर खड़ी है। कहने का आशय यह कि यदि रिमही के साथ रीमा जुड़ा है तो इसका दायरा यहीं तक नहीं सिमट जाता।



हरिवंशराय बच्चन से लेकर गिरीश गौतम दोनों की रचनाओं में रिमही की भरमार: इलाहाबादी हरिवंशराय बच्चन ने चार खण्डों में प्रकाशित अपनी आत्मकथा में जिन पारंपरिक गीतों का उल्लेख किया है वे अपने यहां भी गाए जाते हैं। बच्चन जी के बहु प्रसिद्ध लोकगीत ..पिया जा लावा किया नदिया से सोन मछरी, या ...महुआ के नीचे मोती झरै..महुआ के, किस बोली के हैं। आल इंडिया रेडियो के आरकाइव के सौजन्य से मैंने ये गीत उनके ही स्वरों से सुने हैं। बच्चन जी प्रतापगढ़ जिले के बाबू की पट्टी गांव के हैं उनका वास्ता राठ उरई से भी है।  इलाहाबाद, प्रतापगढ़, जौनपुर, एटा से लेकर उधर लखनऊ तक जो बोली व्यवहार में है उसका रिमही से उतना ही फरक है जितना कि नागौद की रिमही और हनुमना की रिमही में। इलाहाबाद के एक और यशस्वी कवि हुए हैं कैलाश गौतम। उनकी कोई भी रचना सुनें अपनी रिमही से ज्यादा फरक नहीं। फिल्मी दुनिया के महाअभिनेता अमिताभ बच्चन हर दूसरी फिल्म में जो देसी बोली बोलते हैं, उसे ज्ञानी लोग भोजपुरी बताते हैं, वस्तुत: वह रिमही ही है। ऐसी किसी भी फिल्म में उनके संवादों को एक बार गौर से सुनें। 



कबीर की रचनाओं में है रिमही झलक:  रिमही का इतिहास समुन्नत व समृद्ध है। महाराज वीरभान (1540-1555) के समयकाल के पहले से ही यही बोली व भाषा चलन में थी। उस समय बांधवगद्दी का साम्राज्य आधे छत्तीसगढ़ (रतनपुर) बुंदेलखंड में केन तक व उधर इलाहाबाद में अरैल  पार तक थी। संत कबीर इसी समय काल में हुए। नानक का भी बांधवगगद्दी से रिश्ता रहा। महाराज वीरभान कबीर के शिष्य थे। बांधवगढ़ के नगर सेठ धरमदास तो कबीर की गद्दी के उत्तराधिकारी ही बने। कबीर के शब्द और साखी में आम रिमही ढूंढ़ सकते हैं। उनका एक प्रसिद्ध दोहा है-



कबिरा कूता राम का मोतिया मेरा नाऊ,



गरे पड़ी है जेउरी जित खीचे तित जाऊं।



बोली-भाषा के इतिहासकारों ने कबाड़ा किया है रिमही बोली का: सो जरूरी है कि अपनी बोली रिमही के इतिहास व उसके वृस्तित भूगोल पर फिर से नजर डाली जाए। बोली-भाषा के सतही इतिहासकारों ने बड़ा-कबाड़ा किया है। छत्तीसगढ़ी भी रिमही का ही  एक रूप है। रिमही बोली को तै-तुकार से लैस कर दीजिए। झट-पट छत्तीसगढ़ी में बदल जाएगी। पर छत्तीसगढ़ की बोली जाति की नहीं जमीन की थी। इसलिए इतनी फली-फूली आगे बढ़ी और अब प्रदेश की राजकीय भाषा बनने की स्थिति में है। वहां के साहित्यकारों में अपनी बोली भाषा को लेकर ललक है। वैसे ही जैसे कि भोजपुरी को लेकर वहां के साहित्यकारों में। भाषा के बोली सर्वेक्षण को लेकर कई गड़बड़झाले हैं। जैसे जबलपुर से लेकर होशंगाबाद तक समूची नमर्दापट्टी में जो बोली चलन में है वह बुंदेली तो कदापि नहीं, पर हिंदी के पंडे इसे बुंदेली ही कहते हैं। इधर कटनी से लेकर सिहोरा तक रिमही ही बोली जाती है, पर दर्ज है बुंदेली के खाते में। सो इसलिए मेरा बार-बार निवेदन रहता है कि अपनी भाषा-बोली को लेकर हिंदी साहित्य के इतिहास में जो भूलचूक हुई है उसे दुरुस्त करिए।..


जयराम शुक्ल रिमही Jairam Shukla रीवा Rewa Vindhya नर्मदा नदी Narmada River Baghelkhand रेवा रीमाराज्य मातृभाषा दिवस बघेली विंध्यक्षेत्र बघेलखण्ड Rima Rimahi Mother Language Day Bagheli
Advertisment