राजनीतिक अखाड़े में शिव सेना के संस्थापक बाल ठाकरे और महाराष्ट्र के ही बड़े नेता शरद पवार परिवारों को हिंदुत्व के मुद्दे पर हार जीत का सामना करना पड़ा है। बाल ठाकरे ने 19 जून 1966 में विजय दशमी से कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा पर पार्टी खड़ी की थी, लेकिन स्वयं सत्ता की चुनावी राजनीति में शामिल नहीं होना चाहते थे। अपने साथियों के लिए सभाओं में धुआँधार भाषण देते थे। इसी तरह 1987 की एक चुनावी सभा में शिव सेना के उम्मीदवार रमेश प्रभु के समर्थन में दिए तीखे भाषण का मामला अदालत गया। पहले उच्च अदालत, फिर सर्वोच्च अदालत में सुनवाई हुई। कांग्रेस में शरद पवांर के ही करीबी प्रत्याशी प्रभाकर कुंटे ने इस चुनावी सभा में ठाकरे दवरा हिंदुत्व के नाम पर धार्मिक साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने के आरोप लगाए थे। सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में इसे चुनावी आचार संहिता के विरुद्ध करार देते हुए बाल ठाकरे को स्वयं छह साल तक न केवल चुनाव लड़ने बल्कि वोट डालने के अधिकार से वंचित करने का कठोर ऐतिहासिक फैसला दिया था। उन दिनों शरद पवार भी नरसिंह राव के विकल्प के रूप में प्रधान मंत्री पद की दावेदारी के लिए महाराष्ट्र में अपने सहयोगियों के साथ गोपनीय मंत्रणा किया करते थे। प्रभाकर कुंटे इनमें से एक थे।
उद्धव और आदित्य के लिए फिर लंबा संघर्ष
समय चक्र का खेल देखिए। करीब 36 साल बाद बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे को हिंदुत्व के मुद्दे पर ही चुनावी राजनीति और कोर्ट से अनुकूल समर्थन नहीं मिलने के कारण मुख्यमंत्री पद के साथ दुखी मन से विधान परिषद् की सदस्यता भी छोड़ना पड़ी। वैसे उद्धव ठाकरे भी सत्ता की राजनीति से परहेज करना चाहते थे, लेकिन बेटे आदित्य ठाकरे को गठबंधन नेताओं द्वारा न स्वीकारे जाने के कारण उन्होंने मुख्यमंत्री का कांटों का ताज पहन लिया। अब उनके परिवार की भावी राजनीति और शिव सेना का भविष्य अनिश्चित अवश्य हो गया है। फ़िलहाल वह और उनके सेनापति अपने गुट को असली शिव सेना कहकर विद्रोही समूह के बहुमत वाले नए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को अपना स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। समझौता नहीं होने पर शिव सेना के नाम और चुनाव चिन्ह का विवाद अदालत और चुनाव आयोग के सामने लम्बे अर्से तक चल सकता है। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि शिव सेना के 75 वर्ष पूरे होने के बाद उसका पुनर्जन्म जैसा होगा। उद्धव ही नहीं आदित्य को लम्बी अवधि तक संघर्ष और समझौतों के लिए बाध्य होना होगा। जिस तरह राहुल गाँधी को अब लालू, ठाकरे, ममता, पवार के सामने कभी झोली फैलाना, कभी विरोध में लड़ना पड़ रहा है। उन्हें कोई यह नहीं बताता कि जमीनी शक्ति के बिना महात्मा गाँधी, लालबहादुर शास्त्री, जवाहरलाल नेहरू, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर जैसे महान नेताओं के परिवार या पार्टी के केवल नाम पर कोई प्रदेश या देश का नेता नहीं रह सकता है। राजतंत्र और परिवारवाद की सत्ता का अब भविष्य नहीं दिखाई देता है | बड़े नामी राज परिवार या पूंजीपतियों के परिजन चुनाव में पराजित होने लगे हैं।
अकेले सारा लाभ उठाने का यही होता है परिणाम
दूसरी तरफ शरद पवार ने ढाई साल ठाकरे परिवार और शिव सेना के विचारों या कामकाज को स्वीकारते हुए अपनी पार्टी और परिवार के हितों का पूरा संरक्षण किया। लेकिन, शुद्ध हिंदुत्व के मुद्दे पर शिव सेना के विद्रोही एकनाथ शिंदे, उनके 40-50 समर्थक विधायक और भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें इस बार अखाड़े में पटकनी दे दी। भारतीय राजनीति में इन दिनों पंचतंत्र की एक नीति कथा चरितार्थ हो रही है। इस कथा का उपदेश है कि 'असंहता विनश्यन्ति' यानी परस्पर मिल जुलकर काम न करने वाले नष्ट हो जाते हैं। कहानी में एक ऐसे पक्षी का उल्लेख है, जिसके मुख तो दो थे। लेकिन, पेट एक। एक बार एक मुख ने अमृत सरीखा मीठा रसदार फल खा लिया और दूसरे मुख को चखने को नहीं दिया। साथ ही दूसरे को हँसते हुए कह दिया कि 'हमारा पेट तो एक है, उसमें चला गया, तृप्ति तो हो गई।' दूसरा मुख इस तिरस्कार का बदला लेने का सोचने लगा। एक दिन वह एक विष फल ले आया और पहले मुख को दिखते हुए बोलै- 'देख यह विष फल मुझे मिला है। अब मैं इसे अकेले खा रहा हूँ।' पहले मुख ने रोकते हुए कहा- 'ऐसा मत कर, इसके खाने से हम दोनों मर जाएंगे' लेकिन दूसरे मुख ने अपमान का बदला लेने के लिए जल्दी से विष फल खा लिया। परिणाम स्वरूप दोनों मुख वाला पक्षी ही मर गया। सत्ता हो या प्रतिपक्ष, अकेले सब लाभ पाने की कोशिश करता है, तो विष फल का नतीजा भुगतना पड़ता है।
पवार का पुत्री मोह और नए खून का शक्ति परीक्षण
बहरहाल, शरद पवार के प्रिय खेल रहे हैं- कबड्डी, खो-खो और कुश्ती, तीनों खेल फुर्ती के साथ त्वरित निर्णय वाले हैं। प्रारम्भिक दौर से इन खेलों में दिलचस्पी और उसके लिए देश भर में नेटवर्क बनाने में से उनकी मानसिकता प्रतिबिंबित होती है। कबड्डी की तरह दूसरे के पाले में जाकर फुर्ती से हाथ मारकर अपनी सीमा में आ जाने, खो-खो की तरह उचित समय पर खो कहते हुए बैठने और मौका पड़ने पर अखाड़े में दूसरे को पटकनी देने की कला वह अपनाते रहे हैं। यह सब बातें प्रभाकर कुंटे जैसे उनके करीबी नेता अस्सी के दशक में मुझे सुनाते रहते थे। 1967 में वह पहली बार विधान सभा का चुनाव जीतकर आए और कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पार्टियां बनाई, तोड़ी, परिवार को भी आगे रखा। मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री पदों के लिए कोशिशें कम नहीं कीं। 1993 में मैंने एक पुस्तक "राव के बाद कौन" लिखी थी, उसमें मैंने कुछ अन्य प्रमुख कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी नेताओं की प्रधान मंत्री पद की दावेदारी की संभावनाओं को विस्तारपूर्वक लिखा था। एक अध्याय शरद पवार पर भी था। इसमें उनके राजनीतिक जीवन और कार्यशैली का चित्रण था। वह मुख्यमंत्री, मंत्री तो कई बार बने, लेकिन प्रधान मंत्री पद के प्रयासों में सफल नहीं हो सके। 1996-98 में हमसे स्नेह रखने वाले राजनेता और गीतकार विठ्ठलभाई पटेल, राजुभाई पटेल और प्रभाकर कुंटे के साथ शरद पवार से मिलते रहने और उनके प्रधान मंत्री बन सकने के लिए उनके कार्यक्रमों और इंटरव्यू आदि को थोड़ा महत्व देने के सुझाव को थोड़ा निभाया था। लेकिन शरद पवार आधी दूरी लांघकर लौटते रहे। इस बार 82 वर्ष की आयु में उन्हें राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी का प्रस्ताव मिला, लेकिन प्रतिपक्ष की कमजोर हालत देखकर पराजय का तमगा लगाने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने अपने विवाह के बाद पत्नी प्रतिभा से एक संतान की इच्छा मात्र रखी थी। उसी बेटी सुप्रिया को वह अपनी तरह सफल देखने और अन्य प्रमुख सहयोगियों को महाराष्ट्र की राजनीति के अखाड़े में प्रभावी उपस्थिति के लिए प्रयास करते रह सकते हैं। हाँ, इतना अवश्य हुआ है कि उनके प्रयासों से कांग्रेस और शिव सेना प्रदेश में और अधिक कमजोर हो गई है। आने वाले वर्षों में महाराष्ट्र के राजनीतिक अखाड़े में नए खून की शक्ति परीक्षा होगी।
( लेखक आई टी वी नेटवर्क - इंडिया न्यूज़ और आज समाज दैनिक के सम्पादकीय निदेशक हैं )