खदान न देने पर दबंग आफिसर का किया ट्रांसफर

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The Sootr CG
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खदान न देने पर दबंग आफिसर का किया ट्रांसफर

1 नवम्बर 1956 को देश में व‍िभ‍िन्न प्रदेशों का पुनर्गठन हुआ। चंद्रपुर, विदर्भ बरार को महाराष्ट्र में शामिल कर लिया गया। वर्ष 1954 में फॉरेस्ट ड‍िपार्टमेंट में मेरा चयन सीपी एन्ड बरार में किया गया था, लेकिन मुझे मध्यप्रदेश राज्य आवंटित हुआ और मेरा स्थानांतरण चंद्रपुर से बालाघाट फॉरेस्ट ड‍िवीजन किया गया। 1 नवम्बर 1956 को मैंने बालाघाट में आमद दी। साउथ चांदा डिवीजन में प्रथम नियुक्त‍ि हुई थी इसलिए वहां काम करना, वरिष्ठ अध‍िकारियों का मार्गदर्शन और कर्मचारियों का सहयोग स्मृति पटल में ऐसा अंकित हुआ जो आज तक ताजा है। चांदा व आलापल्ली की यादें समेटे हुए चंद्रपुर से भारी व दुखी मन से विदाई ली। बालाघाट पहुंचते ही तुरंत एसीएफ आरपी श्रीवास्तव से मिलने पहुंच गया। दीवाली का दूसरा दिन होने के कारण उनके घर में खुशी व उत्साह का माहौल था। म्युनिसिपल हाई स्कूल सागर में वे मेरे सीनियर रहे थे। वे गर्मजोशी के साथ मिले तो मुझे अपनेपन का अहसास हुआ। बालाघाट के डीएफओ शंकरलाल दुबे थे। उनकी ख्याति दबंग व श‍िकार के शौकीन अध‍िकारी के रूप में थी। पहली मुलाकात में वे सहज जान पड़े। उन्होंने बालाघाट फॉरेस्ट स्कूल कैम्पस में मेरे लिए एक शासकीय आवास की व्यवस्था करा दी। शंकरलाल दुबे ने मेरी कई सरकारी व निजी समस्याओं का समाधान किया। बाद में जानकारी मिली कि शंकरलाल दुबे का बालाघाट से इसलिए ट्रांसफर कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने किसी राजनीतिक हस्ती की इच्छा के विरूद्ध जंगल में खनिज निकालने के लिए खदान देने की सिफारिश नहीं की थी।



जंगल में बिजली - पानी तो नहीं,  भाई जरूर मिल गया



बालाघाट में जो आवास मुझे मिला वह एक बंगला ही था लेकिन उसमें पानी व बिजली की कोई व्यवस्था नहीं थी। सोने वाले कमरों से लगा हुआ कोई शौचालय भी नहीं था। बंगले के पीछे आंगन था। इसके एक ओर लाइन से किचन, स्टोर रूम और दो सैप्टिक शौचालय थे। बंगले के पीछे बरामदे के दोनों ओर बाथरूम ज़रूर थे। पानी  के लिए एक कुआं था, जो लगभग डेढ़ दो सौ मीटर दूर था। मेरे पड़ोस में ही सामने की टेकड़ी पर बने पीडब्ल्यूडी बंगले में मोहम्मद इसहाक रहते थे। वे जंगल महकमे में जिस पद पर कार्यरत थे उसे एसडीओ प्लेंस कहा जाता था। इसहाक रेंज ऑफ‍िसर के पद पर भर्ती हुए थे और प्रमोशन पा कर एसीएफ के पद एसडीओ प्लेंस का कार्यभार संभाल रहे थे। बालाघाट, यानी कि विलो दी घाट डिवीजन में कुछ पहाड़ी क्षेत्र थे और कुछ मैदानी (प्लेन) इसलिए उन्हें एसडीओ प्लेंस कहा जाता था। इसहाक के सम्पर्क में आते ही मुझे अहसास हुआ जैसे कुछ वर्षों से खोया हुआ अपना बड़ा भाई मिल गया हो। वे मृदुभाषी, व्यवहार कुशल और हंसी मज़ाक से ओतप्रोत व्यक्त‍ित्व के धनी थे। उन्होंने जंगल महकमे की कार्यशैली के बारे में मार्गदर्शन किया और निजी समस्याओं के समाधान में जितना योगदान दिया उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। जंगल महकमे में वे मेरे मार्गदर्शक या गुरू रहे तो इसमें कोई अतिश्योक्त‍ि नहीं होगी। चंद्रपुर से बालाघाट मेरा पहला ट्रांसफर था। सीमित मात्रा में घरेलू सामान था, जिसे मैंने पैक करवा कर रेल से बालाघाट के लिए बुक करवा कर भेजा। बालाघाट स्टेशन से बिल्टी छुड़वा कर जब सामान की डिलीवरी ली तो जानकारी मिली कि कुछ सामान गायब है। वह सामान ट्रांजिट में ही गुम हो गया। अकेला था इसलिए रोजमर्रा के उपयोग में आने वाले सामान को निकाल कर बाकी को एक कमरे में रखवा दिया। जिस बंगले में रहता था उसके चारों ओर कोई फेंसिंग नहीं थी और सामने कोई गत‍िविधि‍ दिखाई नहीं देती थी। इसकी वजह बंगले का मुख्य मार्ग से अंदर की ओर होना था। बंगले की खिड़की से फॉरेस्ट स्कूल ग्राउंड ज़रूर दिखाई देता था। जहां प्रत्येक सुबह फॉरेस्ट रेंजर स्कूल के इंस्ट्रक्टर पीएस मेहता प्रश‍िक्षणार्थ‍ियों को पीटी करवाते थे।



मनोरंजन के साथ सीखने का मौका



डीएफओ बालाघाट के दफ्तर में मुझे अटैच्ड ऑफिसर के रूप में मोहम्मद इसहाक के कमरे में ही बैठने के लिए टेबल कुर्सी दी गई। जब भी मुझे कोई काम दिया जाता तो इसहाक साहब से सलाह एवं मार्गदर्शन ज़रूर लेता। उनकी सलाह मशविरे से अपने काम का निबटारा करता। उनके साथ बैठने से मेरे भीतर आत्मविश्वास आने लगा। हम लोग शाम को पैदल घूमने निकल जाते। बातों-बातों में मनोरंजन के साथ उनसे कुछ न कुछ सीखने को ज़रूर मिलता। उनका सेंस आफ ह्यूमर गजब का था। वे छोटी छोटी बातों में आसानी से ह्यूमर ढूंढ निकालते थे। एक वाक्या ऐसा ही है। उनके साथ हम दो-तीन अध‍िकारी बैठे थे। सभी को उन्होंने केले पेश किए। केले छील कर जब हम लोग खाने लगे तब उन्होंने एक श‍िगूफा छोड़ा कि केले के छिलके के नीचे जो रेशे रह जाते हैं, उनको खाने से कब्ज हो जाती है। फिर क्या था जो भी केले छील कर खा रहे थे वे रेशे निकलाने लगे और इसहाक मंद-मंद मुस्कुरा कर इसका आनंद लेने लगे। हम दोनों के बीच धर्म कभी आड़े नहीं आया। हम ऐसे घुल मिल गए थे मानो एक ही परिवार के सदस्य हों। हम लोग त्यौहार मिलजुल कर मनाते थे।



कर्मचारियों को गलतियां पर डांटने का अनोखा अंदाज



इसहाक कभी-कभी मुझे अपने साथ दौरे पर भी ले जाते थे। दौरे के दौरान वे मुझे नसीहत देते रहते थे कि कर्मचारियों की गलतियां निकाल कर उन्हें किस तरह डांटना चाहिए। एक बार जंगल के निरीक्षण के समय एक फॉरेस्ट गार्ड मिला, जिसके खिलाफ बहुत सारी शिकायतें आ रही थी। इसहाक साहब ने डांट लगाते हुए उससे पूछा कि क्या तुमने कभी सिनेमा देखा है, वह घबड़ा कर सकपका गया कि इस प्रश्न का क्या उत्तर दिया जाए। वह चुप रहा। मैं भी आश्चर्यचकित था कि डांट लगाने के समय इस तरह के प्रश्न पूछने का क्या तात्पर्य हो सकता है। इसहाक साहब ने जब उससे यह प्रश्न फिर पूछा तो उसने सिर हिला कर हां मैं उत्तर दिया। इसहाक साहब ने उससे कहा जिस तरह सिनेमा दूर से अच्छा और साफ दिखाई देता है, उसी तरह तुम्हारी हरकतें मुझे बालाघाट में दूर बैठे-बैठे दिखाई दे रही हैं। इसलिए सुधर जाओ अन्यथा कड़ी कार्रवाई के लिए तैयार रहो। बाद में इसहाक ने मज़े लेते हुए मुझे बताया कि जब उससे सिनेमा से संबंधित प्रश्न किया गया तो उसका सकपकाना स्वाभाविक था, क्योंकि डांट सुनने के समय उसके लिए यह प्रश्न अप्रत्याशित था। उनके सेंस आफ ह्यूमर का मुझे यह एक अच्छा उदाहरण लगा। एक दिन जब हम लोग फॉरेस्ट स्कूल कैंपस में इकट्ठे बैठे हुए थे तो देखा कि विभिन्न अधिकारियों के कुत्ते एक साथ घूम रहे थे। इसहाक साहब ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि इसमें सबसे अच्छी बात यह है कि यह पूरा जंगल अमला ही है।



पत्ते के दोना पत्तल क्यों हैं वैज्ञानिक



बालाघाट वन मंडल में साल व मिसलेनियस ;सतकटा के बहुत घने एवं शानदार जंगल होने के साथ ही इन जंगलों में बांस के घने भिरे भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। सूपखार के पास चीड़ के प्लांटेशन भी लगाए गए थे। चीड़ प्रजाति के प्राकृतिक वन हिमालय की निचली ऊंचाइयों पर पाए जाते हैं। बैहर प्लेटो एवं उसके आसपास के वनों में हर्रा प्रजाति के पेड़ बहुत अच्छी मात्रा में पाए जाते थे और हर्रा फल इकट्ठा करने के लिए ठेके भी दिये जाते थे। हर्रा फल औषधि के काम में आने के साथ ही चमड़ा पकाने के काम में आता है। मैंने सागर में माहुल पत्तों से बांस की बारीक काड़ियां लगाकर दोना और पत्तल बनाने का काम नाई समाज द्वारा करते देखा था। इन्हीं दोना पत्तलों में सामूहिक भोज के समय परोसकर भोजन करवाया जाता जो बहुत ही साइंटिफिक था, क्योंकि इन दोनों व पत्तलों को जब फेंका जाता तो उनमें बचा हुआ भोजन कौवे एवं अन्य जानवर आसानी से खा लेते और ये जमीन में आसानी से घुल मिलकर मिट्टी का रूप लेते हैं। अब इनका स्थान प्लास्टिक के दोना पत्तलों ने ले लिया है जो आसानी से नष्ट नहीं होते और मिट्टी का रूप नहीं ले पाते। बालाघाट के जंगलों में माहुल बेला बहुत अधिक मात्रा में पाई जाती थी। इसका बक्कल बहुत मजबूत होता है। रस्सी बनाने के काम में इसे उपयोग में लाया जाता है। इन महत्व के कारण माहुल बक्कल के ठेके नीलाम किए जाते थे। माहुल बेला इमारती वृक्षों से चिपक लपट कर सर्पाकार रूप में धीरे.धीरे बढ़ती और मोटी होने पर इमारती हिस्से में गड्ढे कर देती, जिसके कारण उसकी मात्रा एवं कीमत में गिरावट हो जाती है। यह बेला मिट्टी के पोषक तत्व, जो वृक्ष को मिलना चाहिए स्वयं ले लेती और वृक्षों की बाढ़ में कमी आ जाती है। इस दौरान एक नए ट्रेनी एसीएफ वीके श्रीवास्तव की पोस्टिंग भी बालाघाट में हुई। उन्हें मैंने बंगले में उसी तरह अपने साथ करीब 15 दिन रखा जिस तरह मुझे एससी अग्रवाल ने आलापल्ली में मेरे पहुंचने पर मुझे अपने साथ रखा था। अब तक मेरा सरकारी सेवाकाल इतना हो चुका था कि नवोदित को जितना हो सके उतना संरक्षण दे सकूं। 

लेखक सेवानिवृत्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक मध्यप्रदेश हैं


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