पंचायत चुनावों में गायब हैं गांवों के बुनियादी मुद्दे!

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Praveen Sharma
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पंचायत चुनावों में गायब हैं गांवों के बुनियादी मुद्दे!

पंचायत सरकार एक जुलाई तक चुन ली जाएगी। विधायकों और सांसदों ने अपने पट्ठे ग्राम पंचायत से लेकर जिला पंचायत तक उतारे हुए हैं। भाजपा के एक बड़े नेता अपने बेटे के वोट के लिए जिस तरह उत्तेजना में विफरते हुए दिखे उससे अंदाजा लगा सकते हैं कि ये चुनाव क्या मायने रखने वाले हैं। बहरहाल मूल मुद्दा यह कि क्या पंचायतों के चुनाव में गाँव के असल मुद्दे हैं कि ये बस यूं ही दारू-दक्कड़ और नोट के जरिए निपट जाएंगे। किसी भी बड़े राजनीतिक दल ने पंचायत चुनावों को केन्द्र पर रखकर कोई घोषणा पत्र या एजेंडा जारी किया हो यह भी पढ़ने सुनने को नहीं मिला। संभवतः बिना दलीय चिन्ह के चुनाव हो रहे हैं इसलिए किसी ने घोषणापत्र जैसे कर्मकांड की जरूरत नहीं समझी। सही बात तो यह कि आजादी के बाद से गांव तबीयत से छले गए।



अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान के साथ एक और महत्वाकांक्षी योजना शुरू की थी 'आदर्श ग्राम योजना' ये दोनों योजनाएं महात्मा गांधी को समर्पित थीं। इस योजना के साथ सांसदों को भी जोड़ा और सभी को अपने संसदीय क्षेत्र के एक गांव का कायाकल्प करने का आग्रह किया। बाद में इस योजना को पीएम मोदी ही भूल गए और सांसदों का कहना ही क्या..।



 केवल वोट मांगने गांवों में जाते हैं 90 फीसदी सांसद



दरअसल महात्मा गांधी ने गांवों की संरचना वहां के सामाजिक ताने-बाने को जितनी संजीदगी से समझा, उतनी समझ आज तक के आर्थिक सर्वेक्षणों व अनुसंधानों के बाद भी विकसित नहीं हुई। योजनाकारों ने कभी गांवों में दिन नहीं बिताए। जिन सांसदों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह अपेक्षा पाले बैठे रहे कि वे गांव का कायाकल्प कर देंगे, उनमें से 90 फीसदी सिर्फ वोट मांगने गांवों में जाते हैं, कांच बंद वातानुकूलित गाड़ियों में बैठकर। गांवों की बुनियादी जरूरतों की समझ तभी विकसित हो सकती है जब वे गांवों में रहे, समझें और ग्रामीण जीवन जिएं। महात्मा गांधी ने जो कुछ कहा वो पहले किया, उसे भोगा, वर्धा, चंपारण, साबरमती के आश्रमों में रहकर, इसलिए उनमें ग्राम स्वराज की बुनियादी समझ थी। गांधी का स्वच्छता अभियान वातावरण की पवित्रता से तो जुड़ा ही था, लेकिन उससे ज्यादा गहरे उसके सामाजिक मायने थे। सफाई का काम जो वर्ग करता था और आज भी कर रहा है उसे इसलिए अछूत माना जाता था कि वह गंदगी साफ करता है। मल व विष्ठा ढोता है। गांधी जीवन भर चाहते थे कि अपने हिस्से का यह काम हर कोई करे। यह किसी जाति व वर्ग के साथ न जोड़ा जाए। हर हाथ में झाडू हो, हर व्यक्ति अपना शौचालय साफ करने लगे तो अपने आप अछूतोद्धार हो जाए। दुर्भाग्य से ये न हुआ और न होगा।



राजनीति करने वालों को रास नहीं आई गांवों की एकता



आजादी हासिल करने से ज्यादा गांधी गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के पक्ष में थे। छोटे-छोटे कुटीर उद्योग धंधों को विकसित करने के पक्ष में। जिन गांवों का इतिहास 100 वर्ष से पुराना है वहां आप पाएंगे कि वृत्तिगत जातियों की अच्छी बसाहट थी। बढ़ई, लोहार, चर्मकार, पटवा, रंगरेज, धोबी, भुंजवा, तमेर, सोनार, नाई, बारी, काछी। गांव अपने आप में एक सम्पूर्ण आर्थिक इकाई था। जो अन्न उपजाते थे उनकी उपज में उपरोक्त वर्ग के लोगों का हिस्सा होता था। मेरी जानकारी में गांवों में मुद्रा विनिमय ने 60 के दशक के बाद जोर पकड़ा। गांवों में हर वर्ग के बीच एक ऐसा ताना-बाना था कि समूचा गांव एक जाजम में सोता एक ही चादर को ओढ़ता। वोट की राजनीति करने वालों से देखा नहीं गया। उन्होंने जाति में बांट दिया जिनकी साझेदारी से गांवों की अर्थव्यवस्था चलती थी वे दलित-पिछड़े अगड़े हो गए। वे आरक्षण की खैरात की लाइन में लग गए इधर टाटा ने लुहारी छीन ली और बाटा ने चर्मकारी। सब के उद्यम एक-एक करके छिन गए। आज गांवों में मल्टीनेशनल की घुसपैठ हो गई। रंगरेज, पटवा, सोनार, तमेर सबके धंधे हड़प लिए गए। ये सब अब नौकरी व मजदूरी की कतार में खड़े बैठें है।



शहर से जुड़ गए, पर सुविधाओं से गांव आज भी दूर



दूसरी बात पिछले तीन दशकों में गांव का पलायन शहर की ओर बहुत तेजी से बड़ा है। इसकी वजह रोजगार के साथ जरूरी संसाधनों की कमी है। जैसे गांवों में अच्छे स्कूल नहीं हैं, जो हैं वो अव्यवस्थित और सरकारी हैं। जो सरकारी स्कूल हैं वह सिर्फ वजीफा बांटने या दोपहर का भोजन खिलाने मात्र के हैं। उनकी कोई मानीटरिंग नहीं की गई और आधुनिक आवश्यकताओं से नहीं जोड़ा गया। इस दृष्टि से गांव के लोग भारी तादात में शहर की ओर भागे। गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हैं। बिजली जो आज की जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा है, वह नहीं है। देश का दुर्भाग्य देखिए कि दूर दराज के गांवों तक मोबाइल और इंटरनेट पहुंच गया लेकिन जिन सुविधाओं की वजह से एक भारतीय गांव, गांव कहलाता है वे सुविधाएं वहां पर दूर दूर तक दिखाई नहीं देतीं हैं। टेलीविजन के मायारूप से प्रभावित होकर भी बहुत बड़ा पलायन गांव से शहर की ओर हुआ है।



अपनी अर्थव्यवस्था से ही संपूर्ण् बनेंगे गांव



अब जरूरी ये है कि गांव का चयन करते वक्त उस गांव की पृष्ठभूमि का एक सामाजिक आर्थिक अध्ययन हो और जो वर्ग वृत्तियों से जुड़े थे कभी, उनके पुराने कौशल को वापस लाने के लिए योजनाएं बनें। एक संपूर्ण गांव, जिस गांव की बात महात्मा गांधी किया करते थे, वो गांव संपूर्ण गांव तब बनेगा जब उसकी अपनी अर्थ व्यवस्था होगी। इस अर्थ व्यवस्था का जो मूल घटक है वह पुराने पारंपरिक लोग हैं, जो कृषि का काम करते हैं। रंगरेजी, दर्जी, पटवा, लुहार, करीगरी आदि का काम करते हैं। आज इनको जातीय चश्मे से अलग देखने की आवश्यकता है और उनकी सदियों से चली आ रही परंपराओं को नए आधुनिक संदर्भ में, आधुनिक अर्थ व्यवस्था के तहत सहेजने और विकसित करने की जरूरत है। पीएम मोदी ने मॉडल तो गांधी का लिया पर यह नहीं समझा कि गंगा में पानी बहुत बह चुका है। गांव में विभाजन की रेखा गहरी हो चली है। विषमता की खाई चौड़ी हो चुकी है। ज्यादातर गांवों की स्थिति यह है कि सत्तर फीसदी जोत की जमीन पांच फीसदी लोगों के हाथ में है। गांव के सत्तर फीसदी लोग इन पांच फीसदी लोगों के यहां काम करें या शहरों में जाकर मजदूरी करें, स्लम में जिएं।



कुटीर उद्योगों से लौटेगी गांवों की खुशहाली 



आजादी के बाद सीलिंग एक्ट आया। निर्धारित किया गया कि एक परिवार के पास अधिकतम इतनी भूमि होनी चाहिए। सीलिंग एक्ट के कानून पर रत्ती मात्र अमल नहीं हुआ। पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने जो इतने लंबे दिनों तक शासन किया वो सीलिंग एक्ट को कड़ाई से पालन करवा के ही किया। भूमि का समान वितरण करके। अब सीलिंग एक्ट की कोई बात नहीं करता। क्योंकि नौकरशाह और नेता दोनों ही जमीदार हैं। ये क्यों अपनी जमीन छिनने देंगे। कोई भी गांव तभी आदर्श बन पाएगा जब वहां के लोगों में जीविका के साधन विकसित किए जाएं। जीविका का साधन खेती है और जोत की जमीन पर मुट्ठीभर के लोगों का कब्जा। जिन वृत्तियों से गांव की अर्थव्यवस्था चलती थी उन्हें फिर से स्थापित करना होगा। यानी की कुटीर उद्योगों को। इसके लिए सरकार जोर दे। आधुनिक तकनीक गांवों तक पहुंचाए- लुहारी, बढ़ईगिरी, दर्जी के काम जैसे बुनियादी उद्योगों को बढ़ाए। आज गांव में सिर्फ दो प्रजाति ही रहती है। एक जमीदार और दूसरे मजदूर। जमीदारों के पास खेती के ऐसे आधुनिक साधन आ गए कि मजदूरों की जरूरत ही नहीं बची। जब गांव-गांव के रूप में बचेंगे तब न उन्हें आदर्श बनाया जाएगा। पहले जरूरी है ऐसी समेकित व समावेशी योजनाओं के बनाने का जो गांवों को उनकी पुरानी पारंपरिक अर्थव्यवस्था में जान फंके। वृत्तिगत कौशल को लौटाए। विषमतामूलक समाज वाले गांवों को आदर्श बनाने की बात कागजी ही रहेगी, क्योंकि गांधी के बाद किसी भी राजपुरुष ने गांवों के अंतस में झांकने की चेष्ठा ही नहीं की।

 


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