भरद्वाज जो भरत के युवराज बने

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भरद्वाज जो भरत के युवराज बने



वेदों का पूर्ण अध्ययन करने के लिए भरद्वाज ने तप कर इन्द्र से वर प्राप्त किया कि उसे सौ वर्ष के तीन जीवन मिलें और हर जन्म में वह वेदों का अध्ययन करता रहे।







सूर्यकांत बाली। एक अफवाह पश्चिमी विद्वानों और उनके भारतवंंशी मानसपुत्रों ने यह फैला रखी है कि इस देश में ब्राह्मण और क्षत्रिय महज विचारधारा के कारणों से आपस में लड़ते आए हैं। यह अफवाह इतनी थोथी है, हम विश्वामित्र और  परशुराम के अलावा उन सभी ऋषियों के संदर्भ में भी बता आए हैं, जिन्होंने नहुष, वेन और पुरुरवा को सबक सिखाया। अगर दुष्यन्त पुत्र भरत यकीनन क्षत्रिय था, भरद्वाज नामक ब्राह्मण ऋषि को अपना युवराज एवं उत्तराधिकारी बना सका तो बताइए कहां टिकी वह अफवाह कि यह देश ब्राह्मणों और क्षत्रियों की रणस्थली अक्सर बना है?







भरत ने अपने कमजोर पुत्रों को युवराज नहीं बनाया: पहले थोड़ा भरत के बारे में जानकारी हासिल कर ली जाए। पुरुवंशी सम्राट दुष्यन्त का विवाह तो एकाधिक राजकन्याओं से हुआ था, पर उसे पुत्र की प्राप्ति शकुन्तला से हुई जो विश्वामित्र और मेनका अप्सरा की पुत्री थी और जिसका लालन-पालन मालिनी नदी के तट पर बने आश्रम के कुलपति कण्व ऋषि के घर पर हुआ था। दुष्यन्त और शकुन्तला के इस पुत्र का नाम भरत था, जिसने अपनी असाधारण प्रतिभा और शौर्य के कारण बचपन से ही सर्वदमन कहा जाता था। दुष्यन्त की राजधानी प्रतिष्ठान थी,पर भरत ने भी अपनी राजधानी भी गंगा के किनारे बसाई जो आगे चलकर हस्तिनापुर के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। भरत ने एक विवाह काशी की राजकुमारी से किया। विदर्भ की राजकन्याओं से भरत को तीन पुत्र प्राप्त हुए पर उनका क्या हुआ, यह कहना कठिन है। ब्रह्मपुराण और महाभारत का कहना है कि पुत्र इतने कमजोर और नालायक थे कि खुद इनकी माताओं ने इन्हें मार डाला। पर कोई मां भला अपने पुत्र को भला इसलिए मार सकती है कि वह कमजोर और नालायक हैं? नहीं तो फिर क्या मतलब है पुराण कथा का? शायद यह कि भरत और उसकी पत्नियों ने तय किया कि इनके पुत्र इतने गए बीते हैं कि उनके हाथों राज्य के प्रजा और सीमा की रक्षा नहीं हो सकती और उन्होने अपने पुत्रों को दरकिनार कर सूक्तों की रचना करने में लगे ऋषि भरद्वाज को अपना युवराज और उत्तराधिकारी बना दिया। अपने ऋषित्व के गुणों से कोई समझौता किए बिना, मन्त्र रचना के कठिन कार्य को जारी रखते हुए ही भरद्वाज ने यह पद स्वीकार किया।  







भरद्वाज और पुरु वंश परंपराओं की शुरुआत: यह विचित्र नहीं लगता कि एक तेजस्वी क्षत्रिय सम्राट ने अपने पुत्रों को उत्तराधिकार के लायक न पाकर अपना युवराज पद किसे दिया, एक ऋषि को? एक ऐसे ऋषि को जो अपनी प्रखर प्रतिभा से मन्त्र रचना के विपुल काम में तल्लीन था? पर न पुरुवंश ने इस फैसले पर कोई नाक-भौं सिकोड़ी गई और न ही ऋषिकुलों में इस घटना को कोई चुनौती प्रदान की गई। बल्कि भरद्वाज की एक कुल परंपरा पुरुवंशी हो गई, जिसमें आगे चलकर भीष्म, पांडु, धृतराष्ट्र और कौरव-पांडव हुए जबकी दूसरी कुल परम्परा ब्रह्मकर्म में लगी रही जिसमें आगे चलकर प्रख्यात भरद्वाज हुए। जिनमे से एक वे थे जिनसे राम मिले थे और जिनका आश्रम प्रयाग में गंगा के किनारे था। ये भरद्वाज वाल्मीकि के शिष्य थे। भारत की सभ्यता में क्षत्रिय हो गए ब्राह्मणों की इस विलक्षण परम्परा को शुरू करने वाले भरद्वाज कौन थे? भरद्वाज अनेक हुए और इस वंश परम्परा में सभी का बेशक अपना-अपना नाम है, मशलन शंयु, शुनहोत्र, सुहोत्र और नर आदि। पर इनमें से हर एक को भरद्वाज ही कहा जाता है। कुछ भरद्वाज तो इस कदर भरद्वाज हो गए, जैसे वे जिनसे राम मिले, कि उनका अपना नाम भी प्रसिद्ध नहीं हो पाया। 





ऋषि भरद्वाज को भरत ने अपना युवराज बनाया: प्रथम भरद्वाज महाकवि दीर्घतमा मामतेय के भाई थे। माता-पिता के झगड़े के कारण भरद्वीज का पालन वैशाली राजवंश में वहांं के राजा मरुत्त की देख रेख में हुआ। भागवत और विष्णु पुराण सहित अनेक पुराणों में इस घटना का विवरण मिलता है। राजकुल में लालन-पालन होने के बावजूद भरद्वाज ने अपना ऋषित्व नहीं खोया और बड़े होकर उन्होने प्रभूत मन्त्र रचना की और बारह सूत्र लिखकर ऋग्वेद को समृद्ध किया। राजकुल में रहने का उन्हें लाभ यह मिला कि भरत ने इस ब्राह्मण ऋषि को अपना युवराज बनाया तो भरद्वाज को यह पद स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं हुई और न ही अपने कर्तव्य पालन में कोई कठिनाई आई। पर इसके बावजूद मन्त्र रचना के साथ भरद्वाज का लगाव इस हद तक था कि तैत्तिरीय ब्राह्मण में इस बारे में एक रोचक कहानी यह मिल जाती है कि वेदों का पूर्ण अध्ययन करने के लिए भरद्वाज ने तप कर इन्द्र से वर प्राप्त किया कि उसे सौ वर्ष के तीन जीवन मिलें और हर जन्म में वह वेदों का अध्ययन करता रहे। भरद्वाज ऋषिकुल में अनेक सूक्तकार हुए, पर प्रथम, द्वितीय और तृतीय इस तरह से तीन भरद्वाज पन्द्रह पीढ़ियों की समयावधि में हुए जिन्हे इस देश में श्रेष्ठ मन्त्र रचना के कारण विशेष ख्याति मिली। इन्द्र से वरदान प्राप्त तीन जन्म पाने की कथा का यही एकमात्र तार्किक अर्थ समझ में आता है और जाहिर है कि ये तीनों भरद्वाज दीर्घायु रहे होंगे।







वितथ जो पुरुवंशी सम्राट बने: भरद्वाजों के बारे में इतना कुछ जान लेने के बाद एक ही समस्या बाकी रहती है कि वे भरद्वाज कौन थे, जिन्हें सम्राट भरत ने अपना युवराज और उत्तराधिकारी बनाया था? कैसे उन्हें पहचाना जाए? पुराण तो उन्हे साफ-साफ दीर्घतमा मामतेय का भाई बता रहे हैं जिसे वैशाली के राजा मरुत्त ने पाला-पोसा। सम्पूर्ण घटनाचक्र भी इसी को प्रमाणित कर रहा है। पर कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि यह प्रथम भरद्वाज नहीं बल्कि उनके चार पीढ़ी बाद हुए दूसरे भरद्वाज थे जिनको भरत ने अपना युवराज बनाया था। इन दूसरे भरद्वाज का नाम था वितथ। कहना कठिन है कि कौन-सी बात सही है। पर एक बात पर सभी शोधकर्ता सहमत हैं कि भरत द्वारा बनाए जाने के बावजूद वे भरद्वाज अपने राज्य के राजा इसलिए नहीं बन सके, क्योंकि सम्राट भरत खुद इतने दीर्घायु हुए कि भरद्वाज ने प्रौढ़ावस्था आते ही भरत का युवराज पद छोड़ ऋषिकुल का जीवन पूरी तरह से अपना लिया और इन भरद्वाज के पुत्र वितथ पहले युवराज बने और फिर भरत के उत्तराधिकार को पाकर पुरुवंशी सम्राट बन गए।







पश्चिम की निगाह में भारत: कितना विचित्र और रंग बिरंगा इतिहास है अपने भारत का। हमने भारत को सिर्फ वेदान्ती मान लिया है या फिर पश्चिम की निगाह में सिर्फ सपेरों और भिखारियों का देश। एसा क्या है? नहीं तो। इसके विपरीत मनु महराज के साथ ही अपने ज्ञात इतिहास में भारत वर्ष एक जिंदा देश रहा है, एक गतिशील सभ्यता रहा है, एक संघर्षशील लेकिन परम्पराओं को बनाने और जुड़ने वाली एक संस्कृति रहा है। भारत कोई अबूझ या वायव्य विचार या चिन्तन मात्र नहीं रहा कि जिसे सिर्फ गोलमोल भाषा और संदर्भहीन बतकहियों के आधार पर चितकबरा मनाने का मिथ्या आकर्षण पाल लिया जाए। वह एक जमीनी यथार्थ है जिसने खुद को क्रमशः पाला-पोसा है, बड़ा किया है और दुनिया के सामने खुद को अमिट तरीके से खड़ा किया है। भरत-भरद्वाज प्रकरण का अर्थ और भला क्या हो सकता है?



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