बचपन की कुछ यादें स्मृति पटल पर इस तरह अंकित हो जाती हैं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। ऐसी ही एक स्मृति मस्तिष्क में आज भी अंकित है, जो ना चाहते हुए भी अक्सर याद आ जाया करती है। जब मैं प्राइमरी स्कूल में सागर में पढ़ता था, उस समय एक खेल शाम को सभी बच्चे इकट्ठे होकर खेलते थे। सभी बच्चे एक स्थान पर इकट्ठे होते और एक छोटी कविता के रूप में उन्हें निर्देश दिया जाता। वह कविता थी- आती पाती मार शेर की छाती, ला गूलर की पाती। सभी बच्चे यह कविता सुनने के बाद विभिन्न दिशाओं में चले जाते एवं गूलर के वृक्ष की पत्तियों को तोड़कर उसी स्थान पर लाते थे, जहां से खेल शुरू होता था।
जो बच्चा सबसे पहले गूलर की पत्ती लाकर रख देता, वह विजेता घोषित होता। दूसरे नंबर पर जो बच्चा गूलर की पत्ती लाता, उसे उपविजेता घोषित किया जाता। कविता में गूलर के स्थान पर अन्य प्रजाति के वृक्ष जैसे आम, जामुन, पीपल, नीम लसोड़ा, महुआ, बेलपत्र आदि दर्शा कर उस विशिष्ट प्रजाति के पत्तों को लाने के निर्देश दिए जाते थे। इस खेल को उस समय हम बच्चे लोग साधारण खेल मानकर खेलते रहते थे, परंतु उसका महत्व उस समय हम लोगों की समझ में कभी नहीं आया।
पेड़-पौधों के गुणों में छिपा है रहस्य
लिखित परीक्षा एवं साक्षात्कार देने के उपरांत मेरा चयन वन विभाग में सहायक वन संरक्षक के पद के लिए हुआ। दो वर्ष के प्रशिक्षण के लिए मुझे इंडियन फारेस्ट कॉलेज (Indian Forest College) देहरादून भेजा गया। वन विभाग की सेवा का अर्थ ही यही है कि सबसे पहले वनों को पहचाने एवं विभिन्न प्रजातियों के पेड़ पौधों को न केवल पहचानें, बल्कि उनके नाम गुणों उपयोग एवं अन्य जानकारियों के बारे में अवगत हों, ताकि ऐसे पौधों को न केवल तैयार कर सकें, बल्कि उनकी संख्या को निरंतर बढ़ाने में अपना योगदान दे सकें। इसी को ध्यान में रखते हुए Forest College द्वारा Field Excursion क्षेत्र भ्रमण आयोजित किए जाते थे, जिसमें बॉटनी (Botany) विषय के विशेषज्ञ साथ में जाते तथा विभिन्न पेड़-पौधों के बारे में जानकारी देते एवं उन्हें पहचानने की विधि समझाते।
पेड़-पौधों को पहचानने के लिए उनकी आकृति व माप (Shape and Size) फूल, फल, छिलका एवं पत्तियों पर विशेष ध्यान देना होता था। हम लोग पेड़-पौधों को पहचान सकें एवं उनके नाम जान सकें, यह सुनिश्चित करने के लिए हमारे साथ गए प्रोफ़ेसर बारी-बारी से प्रत्येक विद्यार्थी से प्रश्न पूछते एवं विभिन्न पेड़-पौधों के नाम एवं बॉटनिकल नाम बताने के लिए कहते। यह प्रशिक्षण पूरे दो वर्ष चलता रहा। जब भी कोई नए वनों में जाते तो वहां पाई जाने वाली नई प्रजातियों के नाम एवं अन्य जानकारियां उपलब्ध कराई जाती तथा यह सुनिश्चित किया जाता कि प्रत्येक विद्यार्थी उनके संबंध में पूर्ण रूप से अवगत हो जाए। यह प्रशिक्षण जब चल रहा था, तब मुझे बचपन का वही खेल याद आ जाता, जिसमें हम लोग विभिन्न प्रजातियों के पत्ते खेल-खेल मे एकत्र कर लाते थे। इस तरह मुझे आभास हुआ कि हमारे पूर्वजों ने इस तरह के खेल बनाए थे, जिनमें खेलों के साथ बच्चों को अनजाने में अच्छा प्रशिक्षण एवं शिक्षा दी जा सके जो, उनके भविष्य के जीवन में उपयोगी सिद्ध हो। इस खेल को बनाने के लिए मैं अपने समस्त पूर्वजों का नमन करता हूं।
अहा! ग्राम्य जीवन
1958 में मेरी पदस्थापना सिवनी वन मंडल में सहायक वन संरक्षक के रूप में हुई। वह ऐसा समय था, जब वन अधिकारियों के पास सीमित संख्या में शासकीय वाहन हुआ करते थे। मेरे पास भी कोई शासकीय वाहन नहीं था। मुझे हर महीने 15 से 20 दिन जंगल के भीतर मुकाम कर संबंधित कार्य करने पड़ते थे। एक बार मैं खवासा रेंज के वनग्राम करमझिरी स्थित वन विभाग के विश्राम गृह में लगभग एक सप्ताह तक कूप मार्किंग कार्य हेतु रुका। यह वन ग्राम सुरम्य एवं घने वनों के बीच स्थित था। चारों ओर सागौन एवं अन्य प्रजातियों के घने जंगलों से घिरा हुआ। इस वन क्षेत्र में न केवल चिड़िया एवं अन्य छोटे जंगली जानवर जैसे खरगोश, चीतल, सांभर, चौसिंगा आदि पाए जाते थे। बड़े जानवर जैसे तेंदुआ, बाघ आदि भी घूमते थे। चिड़ियों एवं जंगली जानवरों की आवाजें वन विश्राम गृह में सुनाई पड़ती थीं। मुझे यह वन क्षेत्र अत्यंत शांत एवं अच्छा लगता। मैंने यह निश्चय किया कि यहां पुनः अपनी पत्नी शकुन को साथ लेकर अवश्य आऊंगा।
जीवन चलने का नाम है
कुछ दिन पश्चात मैं अपनी पत्नी शकुन को सिवनी से बस द्वारा लेकर खवासा पहुंचा। खवासा से करमझिरी लगभग 25 किलोमीटर दूर स्थित है। कच्चे वन मार्ग द्वारा ही वहां पहुंचा जा सकता था। वनों में जो लकड़ी ढुलाई हेतु ट्रक चलते थे, उसी में बैठकर हम लोग करमझिरी पहुंचे और फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में रूके। मेरी पत्नी सिवनी वाले घर में छिपकलियों, चूहो और बिल्लियों से भी बहुत डरती थीं। घने जंगल के बीच स्थित फारेस्ट हाउस में डर लगना स्वाभाविक ही था। मैं प्रत्येक दिन सुबह तैयार होकर वनों के कार्य हेतु निकल जाता और दोपहर के बाद ही वापस लौट पाता था। फारेस्ट रेस्ट हाउस करमझिरी वैसे तो काफी बड़ा एवं रौनकदार था। सामने बहुत बड़ा वरांडा एवं दोनों कमरों से लगे हुए बाथरूम भी थे, परंतु टॉयलेट उपलब्ध नहीं था। फारेस्ट रेस्ट हाउस के पीछे लगभग पांच मीटर की दूरी पर वनों से लाई गई बल्लियों एवं झाड़ियों से मंडप बनाकर अस्थाई टॉयलेट का निर्माण किया गया था, जिसमें एक गहरा गड्ढा खोदकर उसके ऊपर आड़ी-टेढ़ी डालियों को रखकर टॉयलेट बना दिया गया था। इसी टॉयलेट का उपयोग हम लोग सुबह-शाम किया करते थे।
रेस्ट हाउस में बिजली नहीं थी। शाम के समय पेट्रोमैक्स जलाकर उसी से काम चलाया जाता था। मेरी पत्नी को उस घने जंगल के बीच स्थित रेस्ट हाउस में काफी डर लगता था, क्योंकि जंगली जानवरों की आवाजें अक्सर सुनाई देती थीं। एक दिन रात में करीब दस बजे मेरी पत्नी को टॉयलेट जाने की आवश्यकता पड़ी, परंतु वे उस अस्थाई रूप से बनाए गए टॉयलेट में रात में जाने में बहुत डर रही थीं। उनके डर का कारण आसपास के जंगल से तेंदुआ बाघ कभी भी आक्रमण कर सकते थे।
हमारी सोच से बड़ा कुछ नहीं
मेरे पास एक बरह बोर की दुनाली बंदूक थी। इस बंदूक को साथ ले कर करमझिरी आया था। मैंने अपनी पत्नी को सुझाव दिया कि अगर मैं बंदूक से फायर कर देता हूं तो पास में यदि कोई जंगली जानवर विशेष रुप से चीता, बाघ आदि होंगे तो वह गोली की आवाज सुनकर दूर भाग जाएंगे। बाहर टॉयलेट जाने में फिर डर कि कोई बात नहीं होगी। मेरी पत्नी ने मेरे सुझाव पर सहमति व्यक्त की। मैंने तत्काल उस बारह बोर की बंदूक से एक गोली जंगल की ओर निशाना साध कर फायर कर दी। जब वे टॉयलेट से वापस लौटीं, तो मेरे मन में एक डर सा पैदा हुआ, कि कहीं वह गोली जंगल के पेड़ों तथा डालियों से टकराकर, ऐसी दिशा में तो नहीं चली गई, जहां कोई गांव वाला रहा हो एवं उसे गोली लग गई हो। जैसे ही मैंने यह बात अपनी पत्नी को बताई तो वे तनाव में आ गई। मुझे भी डर सताने लगा कि कहीं किसी गांव वाले को गोली तो नहीं लग गई? पूरी रात हम लोग तनाव में रहे। रात भर चैन से सो भी नहीं पाए।
ऐसे बना मोगलीलैंड
सुबह जब जागे तो सबसे पहले, गांव के मुखिया को बुलाकर बातचीत की और कुशल क्षेम पूछी| गांव के मुखिया ने बताया कि गांव में सब कुशल मंगल है। जब यह सुनिश्चित हो गया कि गांव में सब लोग कुशल हैं, तब हमारी जान में जान आई और तनाव दूर हुआ। मेरे पास बारह बोर की बंदूक अवश्य थी, लेकिन मैंने कभी कोई शिकार नहीं किया एवं उससे कभी गोली नहीं चलाई। सिर्फ इस घटना को छोड़ कर। करमाझिरी के आसपास स्थित यह वन क्षेत्र बाद में पेंच टाइगर रिजर्व के रूप में नोटिफाई किया गया। इस वन क्षेत्र में सभी प्रकार की वानिकी गतिविधियां बंद कर दी गईं। जंगली जानवरों को पूर्ण सुरक्षा दी गई। इससे यहां जंगली जानवरों की संख्या में लगातार वृद्धि होती गई। यह क्षेत्र एक प्रसिद्ध टाइगर रिजर्व बन गया। यह वही वन क्षेत्र है, जिसे मोगली लैंड के नाम से भी ख्याति मिली। करमझिरी का वन क्षेत्र पेंच टाइगर रिजर्व का अब मुख्य केंद्र बन चुका है। (क्रमश:)
(एसआर रावत मध्य प्रदेश में सेवानिवृत्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक (PCCF) रहे हैं)