आधुनिक अर्थव्यवस्था ने भारत में बहुत कुछ बदला, सांस्कृतिक पहचान आज भी विश्व में अनूठी

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Alok Mehta
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आधुनिक अर्थव्यवस्था ने भारत में बहुत कुछ बदला, सांस्कृतिक पहचान आज भी विश्व में अनूठी

BHOPAL. दीपावली पर्व इस बार अधिक धूमधाम से मनाया जा रहा है। आधुनिक अर्थव्यवस्था ने भारत में बहुत कुछ बदला है। महानगरों से सुदूर गांवों तक जीवन में बदलाव नजर आ रहा है। तभी तो संपन्न विकसित राष्ट्रों के ग्रुप 20  सम्मेलनों में न केवल भारत को आमंत्रित किया जा रहा, उसे अगले साल आयोजक के रुप में महत्व दिया जा रहा है। कोरोना महामारी का मुकाबला करने और उस पर काबू पाने में धंवंतरी के देश ने सभी चिकित्सा पद्धतियों का उपयोग किया और दुनिया के कई देशों की सहायता की। आतंकवाद से लड़ने में भी भारत अग्रणी है। संघर्ष और विषमता के रहते विकास का रथ रुका नहीं है। भारत की सांस्कृतिक पहचान आज भी विश्व में अनूठी है। अपने विचार, अपना भोजन, अपने कपड़े, अपनी पम्पराएं, अपनी भाषा- सम्भाषण, अपनी मूर्तियां, अपने देवता, अपने पवित्र ग्रन्थ और अपने जीवन मूल्य, यही तो है अपनी संस्कृति। इसी संस्कृति का दीपावली पर्व कई अर्थों में समाज को जोड़ने वाला है।



दूसरी तरफ देश विदेश के कुप्रचार से यह भ्रम बनाया जाता है कि जन सामान्य का जीवन स्तर पडोसी पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल से भी कमतर है। पिछले दिनों आइरिश और जर्मन एनजीओ ने एक रिपोर्ट में विश्व भुखमरी मानदंड (वर्ल्ड हंगर इंडेक्स) लिख दिया कि 'इस साल भारत 107 स्थान पर चला गया है। इस तरह वह पडोसी देशों से भी बदतर हालत में है। 'यह रिपोर्ट राजनीतिक मुद्दा भी बन गया। प्रतिपक्ष के लिए मसाला मिल गया। पहली बात यह है कि इस तरह के संगठनों के सर्वे कितने विश्वसनीय और तथ्यात्मक हैं। 



लगभग 41 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर उठे 



दूसरे रिपोर्ट के आधार पर ये संगठन भी शिशु मृत्यु दर, पर्याप्त पौष्टिक आहार, बच्चों के कद-वजन को कहा गया है। लेकिन शीर्षक और चर्चाओं से लोगों के भूख से मरने का भ्रम पैदा होता है। कश्मीर समेत दूसरे प्रदेशों में मानव अधिकारों के हनन और अत्याचारों को लेकर भी पश्चिमी देशों के संगठन पूर्वाग्रह और भारत विरोधी इरादों से तथ्यों को तोड़ मोड़ कर प्रचारित करते हैं। असलियत यह है कि भारत में अन्न की कमी नहीं है और कई देशों को अनाज निर्यात अथवा सहायता के रुप में भेजा जा रहा है। यही नहीं मान्यता प्राप्त विश्व संगठन 'संयुक्त राष्ट्र विकास संगठन' (यूएनडीपी) की ताजी रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया में गरीबी की स्थिति में भारत पिछले वर्षों की तुलना में कई गुना बेहतर हो गया है। लगभग 41 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर उठे हैं। गरीबी का आंकड़ा 55 प्रतिशत से घटकर करीब 16 प्रतिशत रह गया है। केवल सात आठ राज्यों में अब भी सुधार के लिए अधिक ध्यान देने की जरुरत है |



आनंद का संदेश देते हैं भारतीय पर्व  



भारतीय पर्व और संस्कृति आनंद और का संदेश देती है। दीपावली पर छोटा सा घर हो या महल, बही खातों और तिजोरियों पर शुभ लाभ के साथ लिखा जाता है- "लक्ष्मीजी सदा सहाय"। दार्शनिक स्तर पर भारतीय मान्यता रही है कि निराकार ब्रह्म स्वयं निष्क्रिय हैं और इस सृष्टि को उसका स्त्री रूप, उसकी शक्ति ही चलाती है। लक्ष्मी के साथ नारायण, राम के नाम आगे सीता, कृष्ण के आगे राधा, शिव के साथ पार्वती का नाम लिए बिना उनकी महत्ता नहीं स्वीकारी जाती। व्यवहारिक रूप से देखें तो सामान्य स्त्रियां किसी भी मर्द से अधिक कर्मठ और जिम्मेदार होती हैं। कई देशों की सरकारों, मुंबई से न्यूयॉर्क तक कारपोरेट कंपनियों में ही नहीं सुदूर पूर्वोत्तर, कश्मीर से केरल, छतीसगढ़, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब के ग्रामीण और दुर्गम क्षेत्रों में महिलाएं घर और खेत खलिहान का काम बहुत अच्छे ढंग से संभालती हैं।



दूसरे देशों में भारत का बज रहा डंका



मध्यवर्गीय परिवार की शिक्षित स्त्रियां अब कमाऊ बनकर सही अर्थों में लक्ष्मी हो गई हैं। यूरोप, अमेरिका, जापान ही नहीं भारत में महिलाएं सामाजिक राजनैतिक आर्थिक वैज्ञानिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। इसलिए भारत में बहू और बेटी को लक्ष्मी कहा जाना हर दृष्टि से उचित है। अमेरिका जैसे संपन्न देश में आज तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं हुई। पहली बार हाल में उप राष्ट्रपति का चुनाव भारतीय मूल की महिला जीत सकी हैं। जबकि भारत में दूसरी बार महिला राष्ट्रपति बनी हैं। द्रोपदी मुर्मू तो सुदूर आदिवासी ग्रामीण इलाकों में जन्मी और काम करके शीर्ष पद पर पहुंची हैं वित्त मंत्री महिला हैं। पहले भी प्रधान मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष के पदों को महिलाओं ने सम्मानित बनाया और दुनिया को नई राह दिखाई। भारत ही नहीं अंतर राष्ट्रीय सर्वेक्षणों से साबित हुआ है कि बेटियां अपने माता-पिता, घर परिवार की चिंता देखभाल अधिक अच्छे ढंग से करती हैं। अपने देश के कई राज्यों में अनगिनत दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की प्रतिमूर्ति समाज सेविकाएं सामाजिक चेतना, पर्यावरण, साक्षरता, स्व रोजगार के अभियान में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। लाखों आंगनवाड़ियों को महिलाएं चला रही हैं।



भारत चुनौतियों से लड़कर बढ़ रहा आगे



असल में भारत समस्याओं से संघर्ष करते हुए आगे बढ़ रहा है। इसलिए अभी आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न राष्ट्र की श्रेणी में नहीं कहा जा सकता है। लेकिन इन आठ दस सालों में बहुत सुधार और विकास हुआ है। हां, भारत में स्थितियों को सही ढंग से रखने, समझने, समझाने की कोशिश नहीं हुई। कुछ तो विदेशी मानदंड, कुछ बाबूगिरी- अफसरशाही की आंकड़ेबाजी और उस पर राजनीतिक पूर्वाग्रह और स्वार्थ लोगों को आत्म विश्वास देने के बजाय निराश और आक्रोशित करते हैं। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी के मुद्दे को सत्ता के विरोध का एकमात्र तरीका समझ लिया गया है। मजेदार बात यह है कि सरकार, नीति आयोग और अन्य अधिकृत संगठन इस बात के सही आंकड़े नहीं दे पाते कि जो लोग अब भी दैनिक काम के आधार पर नगद कमाई करते हैं। उनकी संख्या कितनी है ?



देश में बेरोजगारी



दुनिया के अधिकांश विकसित देशों में दो चार घंटे काम से होने वाली आमदनी का विवरण भी कहीं दर्ज होता है,कि उनके लिए काम करने का परमिट रिकार्ड में रहता है। आप शहरों- कस्बों में हजारों ऐसे लोग देख सकते हैं, जो किसी न किसी कारीगरी, इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर, मेकेनिक, घर, बजार, दुकान में काम करके रोजाना औसतन पांच सौ से हजार रुपया तक कमा लेते हैं। लेकिन जब सरकारी सर्वे होते हैं तो फॉर्म में काम के बारे में ' नौकरी या व्यवसाय " के कालम में नहीं के साथ यही दर्ज होता है कि वह बेरोजगार है। ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश में हाल ही में सरकारी नौकरियों की प्रारम्भिक परीक्षा के लिए लाखों की भीड़ रेल बस स्टेशनों पर दिखी और ऐसा लगा कि बेरोजगारी की स्थिति भयावह है। बेरोजगारी जरूर है स्नातक या उससे अधिक पढाई कर चुके युवा भी बेरोजगार हैं। लेकिन हमने कुछ इलाकों में पड़ताल की तो पता चला कि इस तरह की परीक्षा देने वालों में हजारों युवा ऐसे भी हैं जो किसी निजी क्षेत्र में दस पंद्रह हजार रुपए की नौकरी या अपनी तकनीकी क्षमता से कमाई कर रहे हैं।



सरकारी नौकरी की लालसा



उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश या अन्य कुछ पिछड़े राज्यों में ब्रिटिश काल से चली आ रही 'सरकारी नौकरी' की लालसा मानसिकता हावी है। सुरक्षित और बंधी आमदनी के साथ नौकरी और कई लोगों को नौकरी के साथ अपने खेत या अन्य धंधे से भी कमाई का शौक होता है। बहरहाल, लोकतंत्र में सबको अपने काम धंधे को चुनने की स्वतंत्रता है। चीन या अन्य देशों की तरह सत्ता व्यवस्था यह तय नहीं करती कि किस क्षेत्र में कितने लोगों को नौकरी मिलेगी या उन्हें देश की जरुरत के हिसाब से शिक्षित प्रशिक्षित होना पड़ेगा। इसीलिए अब सरकार ही नहीं सामाजिक संगठनों के नेता पढाई के साथ कार्य कौशल (स्किल) विकास, अधिकार के साथ कर्तव्य, सरकारी नौकरी पर निर्भरता में कमी पर जोर देने लगे हैं | दीवाली पर लक्ष्मी पूजा के साथ समाज की आत्म निर्भरता और भारत की सही छवि बनाने के लिए भी संकल्प लिया जाना चाहिए।

 


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