आलोक मेहता। अब पेंडोरा पेपर्स, पनामा पेपर्स, बोफोर्स पेपर्स, फोडर स्कैम पेपर्स लगातार चर्चा में हैं। लेकिन ऐसी फाइलों और उनसे जुड़े दस्तावेजों की संख्या लाखों में है। सरकारों के नेताओं और अधिकारियों से अधिक मामले अब निजी क्षेत्रों की कारपोरेट कंपनियों, गैर सरकारी संगठनों के सामने आते जा रहे हैं। लोकतांत्रिक पारदर्शिता, सूचना के अधिकार और कुछ हद तक न्यायायिक प्रक्रिया में अति सक्रियता से भ्रष्टाचार, घोटाले, करोड़ों नहीं अरबों रुपयों की धोखाधड़ी सबको चौंकाती जा रही है। एक आशंका यह भी व्यक्त की जाती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद आए दिन छापेमारी और गिरफ्तारी बढ़ती जा रही है। समाज का आम आदमी और ईमानदार वर्ग इससे थोड़ा खुश होता है कि गड़बड़ी करने वाले शिंकजे में आ रहे हैं, तो आर्थिक क्षेत्र में कामकाज करने वालों का एक वर्ग इस बात से विचलित होता है कि समाज में क्या व्यापार धंधा करना- करोड़ों कमाना ईमानदारी से भी होता है? लेकिन गन्दी मछलियों के कारण बदनामी सबकी होती है। सबसे गंभीर और आपत्तिजनक बात यह लगती है कि हमारे समाज में किसी भी पूछताछ, नोटिस या अदालती प्रकरण पर सार्वजनिक मंचों और मीडिया में प्रचारित होने से निर्दोष बदनाम हो जाते हैं और दोषियों को वर्षों बाद कोई दंड मिलता है।
तब सीबीआई से वार्षिक रिपोर्ट ही आती थीं
इस सन्दर्भ में कुछ पुराने तथ्यों का उल्लेख करना आज के पाठकों के लिए दिलचस्प हो सकता है। मैंने एक संवाददाता के रूप में सीबीआई (केन्दीय जांच ब्यूरो) की ख़बरें लिखना 1972 से शुरू किया था। तब उसकी वार्षिक रिपोर्ट से या यदा कदा ही कोई बड़ा प्रकरण सामने आता था। हां! अपने एक साथी पत्रकार के साथ महीने में दो— तीन बार सीबीआई के दफ्तर में पहले सूचना अधिकारी भीष्म पाल या उनके सहयोग से किसी वरिष्ठ अधिकारी से मिलकर कोई खबर निकालना पड़ती थी। तब मैं एक न्यूज़ एजेंसी में काम करता था, लेकिन देश के प्रमख दैनिक या साप्ताहिक पत्रिकाओं में भी लिखता था। इसलिए लगता था कि सीबीआई के बारे में लोगों को पूरी जानकारी ही नहीं है। तब मैंने टाइम्स समूह की प्रमुख साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के लिए सीबीआई पर विस्तार से लिखा और संस्थान के पहले निदेशक देवेंद्र सेन का इंटरव्यू मुंबई स्थित संपादक धर्मवीर भारती को भेजा। उनसे मेरा परिचय केवल लेखन से था। फिर भी उन्होंने मेरी इस विस्तृत रिपोर्ट और इंटरव्यू को 22 सितम्बर 1974 के धर्मयुग के अंक में कवर स्टोरी की तरह छाप दिया। इसकी खूब चर्चा, प्रशंसा हुई और अधिक लाभ यह हुआ कि इससे सीबीआई के अधिकारियों से संपर्क बढ़ा। साथ ही यूरेनियम की तस्करी जैसे कुछ गंभीर मामलों की सबसे पहले जानकारी मिलने और लिखने के अवसर मिले। फिर भी तब सीबीआई के पास रिश्वतखोरी या गंभीर हत्या के छोटे— मोटे प्रकरण आते थे।
पर्याप्त जांच अधिकारी- सहयोगी कर्मचारी ही नहीं
देवेंद्र सेन ने कभी अमेरिका की फेडरल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी एफबीआई की तर्ज पर सीबीआई बनाने की सलाह गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को दी थी। 1963 में इसका गठन हो गया और धीमी गति से 1971 में वह स्वयं इसके निदेशक पद पर पहुंचे। श्री सेन से लेकर आज तक सीबीआई के निदेशक यह मानते हैं कि एफबीआई जितने अधिकार और सुविधाएं तथा बढ़ते आर्थिक और अन्य गंभीर मामलों के लिए पर्याप्त जांच अधिकारी- सहयोगी कर्मचारी हमारे पास नहीं हैं। जबकि अब तो हर गड़बड़ी, घोटाले और हत्या के मामले के राजनीतिकरण के बाद सीबीआई की जांच की मांग होती है, स्वीकारी जाती है और शिकातकर्ता या विरोधी दलों के अनुकूल जांच पड़ताल या रिपोर्ट नहीं होने पर एजेंसी पर पूर्वाग्रह के आरोप लग जाते हैं। महीनों और वर्षों तक अदालतों में सुनवाई चलने से दोषियों को सजा बहुत देर से मिलती है। सबसे बड़ा प्रमाण चारा घोटाले का है। मैंने और मेरे सहयोगियों ने 1990 में इस घोटाले को सबसे पहले नव भारत टाइम्स में में प्रमाण सहित छापा, लेकिन लालू यादव पंद्रह साल बिहार में और केंद्र में भी राज करने के बहुत बाद जेल जा सके।
जोगिन्दर सिंह ने बदली सीबीआई की स्थिति
सीबीआई में पिछले दशकों के दौरान राजनितिक दबाव और भ्रष्टाचार के आरोप भी सामने आते रहे। दूसरी तरफ जोगिन्दर सिंह जैसे निदेशक भी आए, जो अधिक पारदर्शी और हम जैसे पत्रकारों से मित्र की तरह बहुत सी अंतर्कथा बताने लगे थे। रिटायर होने के बाद उन्होंने बोफोर्स, चारा घोटाले जैसे मामलों में प्रधानमंत्रियों और अन्य नेताओं के दबावों का कच्चा चिट्ठा किताब के रूप में लिख दिया। बहरहाल, अब आर्थिक अपराधों की पड़ताल के लिए यह अकेली एजेंसी नहीं है। तभी तो हल्ला होता है कि पता नहीं कौन, कब, किसके हत्थे पड़ जाए! आर्थिक अपराधों के लिए आयकर विभाग, कस्टम, एक्साइज, प्रवर्तन निदेशालय और बहुत कम लोगों की जानकारी वाला सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टीगेशन ऑफिस के अधिकारी लगातार काम करते रहते हैं। समय के साथ अधिकार और जिम्मेदारियां बढ़ती गई हैं, लेकिन नियम— कानून अब भी सीमित हैं। अधिकांश विभागों में शिकायतें और गंभीर प्रकरण बढ़ते गए हैं, फाइलों की संख्या बढ़ती गई है, डिजिटल रिकार्ड अधिक हो रहा है, लेकिन सिस्टम पुराना और जांच अधिकारियों की संख्या बेहद कम है। कई अधिकारी राज्यों की पुलिस सेवा के हैं और उनके पुराने सम्बन्ध प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि जब किसी कारपोरेट या राजनीतिक नेता से जुड़ा मामला सार्वजनिक होता है, तो सवाल उठने लगते हैं कि अचानक यह मामला क्यों आया? जबकि जांच पड़ताल की गति धीमी रहने से कई गंभीर मामले देर से छापेमारी या जेल जाने के लिए देरी से दिखते हैं। फिर अदालती प्रक्रिया तो लम्बी चलती है।
जल्द न्याय के लिए व्यापक बदलाव की जरूरत
पनामा पेपर्स के बाद पेंडोरा पेपर्स में विदेशों में वैध— अवैध तरीकों से जमा करोड़ों रुपयों को लेकर नेताओं और कारपोरेट कंपनियों, धनपतियों और मीडिया मालिकों के नाम आए। यह काम किसी सरकारी एजेंसी का नहीं है, लेकिन पनामा पेपर्स के सार्वजनिक होने पर भारतीय जांच एजेंसियों की सक्रियता से कुछ बड़े लोग और उनकी कंपनियां घेरे में आ गई हैं। जिन लोगों ने नियम— कानूनों के तहत विदेशों में धन रखा है, उनकी परेशानी यह है कि अकारण केवल नाम मीडिया में उछलने से लोगों को भ्रम से बदनामी सी हो जाती है। दूसरी तरफ जो लोग करोड़ों की हेरा फेरी कर चुके, वे क़ानूनी दांव पेंच से वर्षों तक अधिकरियों से आँख— मिचोली करते रहते हैं। इस दृष्टि से कारपोरेट धोखाधड़ी की जांच के लिए केवल बीस साल पहले अटल सरकार द्वारा बनाए गए सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टीगेशन ऑफिस के दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता कार्यालयों और सीबीआई को अधिकाधिक प्राथमिकता देकर समय रहते गड़बड़ी को पकड़ने और दण्डित कराने के लिए व्यापक सुधार, मशीनरी का विस्तार और विशेष अदालतों के गठन से आर्थिक अपराधों को नियंत्रित करने तथा अर्थ व्यवस्था को मजबूत करने का विश्वास बढ़ाया जा सकता है। (लेखक आई टी वी नेटवर्क - इंडिया न्यूज़- आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं)