चुनावी बॉन्ड की गोपनीय प्रणाली से पारदर्शी सरकार केवल ख्याली

author-image
The Sootr CG
एडिट
New Update
चुनावी बॉन्ड की गोपनीय प्रणाली से पारदर्शी सरकार केवल ख्याली

संत शिरोमणि कबीर दास जी का प्रसिद्ध दोहा है..! 



जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन।



जैसा पिये पानी, वैसी बने वाणी।।



जैसा करे संग, वैसा चढ़े रंग।।



इस कहावत में जीवन के लिए तो महान संदेश छिपे ही हैं लेकिन लोकतंत्र के लिए बुनियादी विचार भी समाहित हैं। चाहे इंसान हो या कोई व्यवस्था हो, वह अपने संचालन के लिए जिन चीजों से ऊर्जा प्राप्त करता है, वह शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। भारतीय लोकतंत्र प्रणाली की बुनियाद चुनाव हैं। चुनाव से ही राजनेताओं को सत्ता संचालन की ऊर्जा प्राप्त होती है। यह चुनाव अगर साफ-सुथरे और पारदर्शी नहीं होंगे तो इससे बनी सरकारों को स्वच्छ और पारदर्शी मानना केवल ख्याली पुलाव ही हो सकता है। 



चुनावी बांड की व्यवस्था पारदर्शी नहीं 



आजादी के अमृत काल में भी पॉलीटिकल फंडिंग के लिए कोई साफ-सुथरी और पारदर्शी प्रणाली भारत में स्थापित नहीं हो सकी है। राजनीतिक दलों को चंदा या तो नगद में या चुनावी बांड के रूप में देने की व्यवस्था है लेकिन राजनीतिक दलों का चंदा लोकतंत्र के असली निर्णायक यानी जनता जनार्दन के लिए गोपनीय बनाया गया है। राजनीतिक दल सूचना के अधिकार (आरटीआई) के अंदर आते नहीं हैं, उनको जो नगद रूप से चंदा मिलता है वह सार्वजनिक रूप से नहीं बताया जाता। चुनावी बांड की व्यवस्था भी खुली नहीं रखी गई है। चुनावी बांड पारदर्शी नहीं माने जा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय में चुनावी बांड्स पर विचार किया जा रहा है। लोकतंत्र की मजबूती के लिए पोलिटिकल फंडिंग में सुधार की सर्वाधिक जरुरत है। 



2019 के आम चुनाव में खर्च हुए थे 55 हजार करोड़  



भारत में चुनाव कितना महंगा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में लगभग 55 से 60 हजार करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने इसे अब तक का सबसे महंगा चुनाव बताया है। इतना बड़ा खर्च, साफ सुथरा और पारदर्शी कैसे हो सकता है? इसके बारे में सार्वजनिक रूप से कोई सूचना ही उपलब्ध नहीं है। राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले व्यक्तियों, कंपनियों, समूह के नाम गोपनीय रखे जाते हैं।  



चार साल में जारी हुए 10 हजार करोड़ रुपए के चुनावी बांड 



राजनीतिक दलों द्वारा अपने अधिकांश धन को गुमनाम दान के माध्यम से प्राप्त करना जारी है। साल 2018 में तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा चुनावी बांड पेश किए गए थे। चुनावी बांड की योजना तब से जारी है लेकिन इन बांड की पारदर्शिता और साफ-सुथरेपन पर सवालिया निशान लगा हुआ है। यह बांड्स स्टेट बैंक आफ इंडिया द्वारा बेचे जाते हैं। एक करोड़ रुपए तक के बांड खरीदे जा सकते हैं पिछले 4 वर्षों में लगभग दस हज़ार करोड़ से अधिक मूल्य के बांड जारी किए गए हैं। 



चुनावी बांड की अधिकांश राशि सत्ताधारी पार्टी को मिली 



यह जानकारी भी चौंकाने वाली है कि अधिकांश बांड्स बड़ी रकम की सीमा में खरीदे गए हैं। जो कंपनी समूह एक करोड़ का बांड खरीद कर किसी भी राजनीतिक दल को चंदा दे वह भारत का आम आदमी तो नहीं हो सकता। यह तथ्य भी प्रकाश में आया है कि चुनाव बांड अधिकांश रूप से सत्ताधारी सरकार वाली पार्टी को ही दिए गए हैं। जो इतनी बड़ी रकम चुनावी चंदे के रूप में देने में सक्षम है, उसका व्यवसाय निश्चित रूप से बड़ा होगा। चुनावी बांड किसने खरीदा है यह पब्लिक नहीं जान सकती है। स्टेट बैंक बांड्स बेचता है इसलिए गवर्निंग सरकार तक तो इस जानकारी की पहुंच सकती है लेकिन शेष लोगों के लिए यह जानकारी प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। 



कॉर्पोरेट बड़ी रकम व्हाइट में दान करने का मौका 



पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में इलेक्टोरल बांड के संबंध में विचार हो रहा था। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि पैसा प्राप्त करने के तंत्र के कारण यह संभव हो जाता है। राजनीतिक दलों को बांड के रूप में बेहिसाब या काला धन प्राप्त करना संभव नहीं है। राजनीतिक फंडिंग लोकतंत्र को प्रभावित करती है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म के अनुसार अब तक बांड के अंतर्गत जारी की गई राशि का 90% या अधिक एक करोड़ की स्लेब में हुआ है जो बहुत अमीर व्यक्तियों और कॉर्पोरेट घरानों से ही आ सकता है। ऐसी स्थिति में कुछ व्यक्तियों या कॉर्पोरेट को इन बांड्स के माध्यम से बड़ी रकम व्हाइट में दान करने का मौका मिलता है।



 चंदा देने वालों का सरकार से क्या लेनदेन ? 



इस तरह से कोई भी दान सरकार से छुपाकर नगद मार्ग के माध्यम से करना संभव हो सकता है। भले ही यह अवैध हो, काला धन हो, इस बात का गहराई से परीक्षण किया जाएगा तो पता लग सकता है कि बांड्स के माध्यम से जिन लोगों ने राजनीतिक दलों को चंदा दिया है उनका सरकार के साथ क्या लेनदेन है? यह समझा जा सकता है कि केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से टैरिफ संरक्षण, राज्य सब्सिडी या सार्वजनिक बैंकों के ऋण से लाभान्वित कंपनियों द्वारा अधिक दान दिया जाता होगा। इस तरीके से ऐसी संभावना बनती है कि लाभ का आदान-प्रदान, दान दाता और दान प्राप्त करने वाले के बीच हो रहा हो। 



चंदा हासिल करने की प्रक्रिया पारदर्शी और निष्पक्ष नहीं 



चुनावों के समय प्रत्याशियों और राजनीतिक दलों को विधि संगत तरीके से राशि खर्च करनी पड़ती है और उसका हिसाब चुनाव आयोग को देना पड़ता है। राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता नहीं होने से चंदा पाने की प्रक्रिया भी पारदर्शी नहीं होती। कई दलों को व्हाइट में बड़ी रकम प्राप्त होती है इसके कारण ऐसे दल चुनाव में बड़ी रकम खर्च करने की क्षमता रखते हैं जिन दलों के पास व्हाइट में चंदा नहीं मिलता उनके पास चुनाव में खर्च की क्षमता सीमित होती है। यह भी निष्पक्ष स्थिति नहीं मानी जा सकती है। 



 पॉलीटिकल फंडिंग साफ-सुथरी होना आवश्यक 



पारदर्शी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए जरूरी है कि पॉलीटिकल फंडिंग साफ-सुथरी हो। चुनावों के लिए सरकारी फंड की परिकल्पना पर चर्चा की जाती है। सभी राजनीतिक दलों को पॉलीटिकल फंडिंग के लिए चुनाव में बेतहाशा खर्च पर अंकुश लगाने के लिए नए संकल्प और प्रयास की जरूरत है। चुनाव में बेहिसाब खर्चा कर सत्ता में आने वाले किसी भी दल से लोककल्याणकारी नीतियों को प्रोत्साहन केवल ख्याली ही हो सकता है। राजनीतिक दलों की वित्तीय अनियमितताओं को रोकने के लिए कदम उठाने का वक्त आ गया है। केंद्र में मजबूत सरकार ही ऐसा कदम उठा सकती है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह सुधार का समय है।


चुनावी चंदा चुनावी बांड चुनावी बांड पर सवाल How clean is system of electoral bonds election donation Electoral bond
Advertisment