श्रीनिवास तिवारी: जिन्होंने राजनीति की एक अलग इबारत रची जो अब नजीर बन गई, विरोधी भी मानते थे लोहा

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Vivek Sharma
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श्रीनिवास तिवारी: जिन्होंने राजनीति की एक अलग इबारत रची जो अब नजीर बन गई, विरोधी भी मानते थे लोहा

अरेरा हिल्स में मध्यप्रदेश विधानसभा की शानदार इमारत देखते ही उसके कंगूरे पर एक व्यक्तित्व की छवि उभरती है उसका नाम है श्री निवास तिवारी जिन्होंने बतौर स्पीकर विधायकी के कीर्तिमान रचे। जिस विधानसभा का हाल यह कि सत्र शुरू हुआ नहीं कि पलभर में खत्म, उस विधानसभा में महीनों लंबे सत्र की कीर्तिमान बैठकें हुईं। 'मुख्यमंत्री प्रहर' जैसा खुले सत्र का नवाचार हुआ और कभी मार्शल की जरूरत नहीं पड़ी। स्वयं विधायक रहते हुए सदन में तिवारी के सात घंटे भाषण का राष्ट्रीय कीर्तिमान आज भी जस का तस है।



लोकनायक बनकर उभरे



श्रीनिवास तिवारी रीवा से लेकर भोपाल दिल्ली तक यथार्थ से ज्यादा किवंदंती के जरिए जाने गए। दंतकथाएं और किवंदंतियां ही साधारण आदमी को लोकनायक बनाती हैं। विंध्य के छोटे दायरे में ही सही तिवारीजी लोकनायक बनकर उभरे और रहे। मैंने अब तक दूसरे ऐसे किसी नेता को नहीं जाना जिनको लेकर इतने नारे,गीत-कविताएं गढ़ी गईं हों। सच्चे-झूठे किस्से चौपालों और चौगड्डों पर चले हों। आज उनके जन्मदिन पर समूचा विंध्य भावुकता के साथ उनको याद कर रहा है।



1985 में अर्जुन सिंह ने टिकट काटा 



 राजनीति उनके रगों में थी या यूं कहें कि उनका राजनीति जुड़ाव जल व मीन की भांति रहा। वे अच्छे से जानते थे कि इसे कैसे प्रवहमान बनाए रखा जाए। वे जितने चुनाव जीते लगभग उतने ही हारे लेकिन उन्होंने खुद को हारजीत के ऊपर बनाए रखा।  कविवर सुमन की ये कविता- क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं, संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही..अटल बिहारी वाजपेयी की जुबान से निकलने के पहले उनकी जुबान से सन 1985 में तब निकली थी जब अर्जुन सिंह ने उनकी टिकट काट दिया था। लोगों को याद होगा, रीवा  के उनके घर अमहिया में 20 से 25 हजार समर्थकों की भीड़ उन पर यह दवाब बनाने के लिए डटी थी कि वे कांग्रेस से बगावत करके न सिर्फ लड़ें अपितु विंध्य की सभी सीटों से अपने उम्मीदवार खड़ा करके कांग्रेस को सबक सिखाएं।



प्रचंड विरोध के बाद भी अर्जुन सिंह से संवाद जारी रहा



 तिवारी जी ने समर्थकों को यह कहते हुए धैर्य रखने को कहा कि कांग्रेस का मतलब अकेले अर्जुन सिंह थोड़ी न है और भी बहुतकुछ है। देखते जाइए.. और फिर 85 में अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के दूसरे दिन जब राजीव गांधी ने उनसे इस्तीफा लेकर पंजाब का राज्यपाल बनाया तब उनके समर्थकों को तिवारी जी के कहे का मतलब समझ में आया और यह वाकया भी दंतकथाओं में चला गया। अर्जुन सिंह के इस्तीफा लिए जाने के पीछे तिवारीजी की कोई भूमिका रही हो या न रही हो पर किसी घटनाक्रम को राजनीति में अपने हिसाब से कैसे मोड़ा जा सकता है तिवारीजी से बेहतर कोई नहीं जानता।  यद्यपि प्रचंड विरोध के बाद भी अर्जुन सिंह से उनके संवाद निरंतर कायम रहे। तिवारीजी कहा करते थे प्रतिद्धवंता में संवादहीनता स्थायी दुश्मन बना देती है और राजनीति में न कोई दोस्त होता और न दुश्मन। समय के साथ भूमिका बदलती रहती है।



समाजवादी नेता माने जाते थे तिवारीजी



 आगे दिग्विजय सिंह के साथ यही हुआ भी। 1993 में तिवारीजी श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री बनाने की मुहिम के अगुआ थे लेकिन बन गए दिग्विजय सिंह और बाद में प्रदेश ने दिग्विजय सिंह तिवारीजी की युति को भी देखा और दोस्ती को भी। तिवारीजी को आमतौर पर समाजवादी नेता के तौर पर देखा जाता था। 72 में कांग्रेस में आने के बाद गांधीवादी भी हो गए ऐसा लोग मानते हैं। हकीकत तो यह है कि तिवारीजी न समाजवादी थे न गांधीवादी। वे यथार्थवादी थे, वे अपने वाद के खुद प्रवर्तक थे उनके आदर्श का खुद का अपना पैमाना था। 



डॉ. लोहिया से हमेशा अनबन रही



कभी भी किसी भी इंटरव्यू में न तो उन्होंने लोहियाजी  को अपना आदर्श माना और न ही गांधीजी को। वे अपने आदर्श की खोज जनता के सैलाब में करते थे। उनका आदर्श कोई व्यक्ति नहीं बल्कि भाव था और वह भाव था जनता-जनार्दन। जनता  जनार्दन कहने वाले तो आज भी बहुतेरे हैं पर उसे वाक्य जनार्दन मानने वाले वे विरले नेता थे। हां वे अपने नेता के रूप में जिंदगी में सिर्फ दो लोगों को स्वीकार किया एक जगदीश जोशी जिनकी बदौलत वे सोशलिस्ट हुए, दूसरा इंदिरा गांधी जिनके भरोसे वे कांग्रेस में शामिल हुए। कांग्रेस में रहते हुए भी सभी समाजवादी उन्हें अपनी बिरादरी का मानते रहे लेकिन ये बात बहुत कम लोगों को ही मालूम होगी कि उनकी डॉ. लोहिया से कभी नहीं पटी। वजह तिवारीजी इतने दुस्साहसी थे कि लोहिया को भी तड़ से जवाब देने से नहीं चूकते थे। 



जवाब देने में कभी पीछे नहीं रहे



दो घटनाएं मुझसे साझा की थी, पहली सन 52 के पहले आम चुनाव की थी। लोकसभा के चुनाव में सीधी संसदीय क्षेत्र से भगवानदत्त शास्त्री को सोशलिस्ट पार्टी से उतारा गया था। शास्त्री जी को सिंबल मिला उन्होंने पर्चा भी दाखिल कर दिया। इसी बीच लोहियाजी को क्या सूझी वे कानपुर के एक उद्योगपति सेठ रामरतन को लेके आ गए, कहा सीधी से सोपा की टिकट पर अब ये लड़ेगे। लोहिया के फैसले को चुनौती देना उन दिनों सोशलिस्टों के लिए भगवान को चुनौती देना था। साथियों की रोकटोक के बाद भी तिवारीजी ने कहा हम डॉ. साहब का फैसला नहीं मानेंगे। ये क्या बात हुई दिनभर सेठ साहूकारों,जमीदारों के खिलाफ बोलो और रात को सेठों से समझौता..नहीं होगा ऐसा। 



राजनीति के मंझे खिलाड़ी



तय हुआ कि शास्त्रीजी पर्चा वापस लें और रामरतन सोपा के उम्मीदवार बनें। सहज शास्त्री तो तैयार बैठे थे। पर जिस दिन परचा खींचने की बात आई तिवारी सीधी पहुंचे एक साइकिल जुगाड़ी, किसी बहाने शास्त्री को साइकिल के डंडे में बैठाया और उन्हें लेकर जंगल भाग गए। जब पर्चा खींचने की मियाद खत्म हुई तभी लेकर लौटे। कल्पना कर सकते हैं कि लोहियाजी का गुस्सा कैसे रहा होगा पर राजनीति में करियर बनाने के दिनों में तिवारीजी के ये तेवर थे। किसी ने पूछा-  ऐसा क्यों किया? तिवारीजी ने जवाब दिया चुनाव जनता जिताती है, लोहिया नहीं। खैर लोकसभा के पहले आमचुनाव में सीधी लोकसभा सीट से भगवानदत्त शास्त्री जीते लोहियाजी के सेठ रामरतन नहीं। जबकि लोहियाजी ने भी सभाएं कीं थीं व शास्त्री से रामरतन को वोट देकर विजयी बनाने की अपील भी करवाई। 



सहयोगियों के पीछे चट्टान की तरह डटे रहे



दूसरा वाक्या था जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ तो विधानसभा में सोपा विधायक दल का नेता कौन हो? लोहिया का विचार था कि पिछड़े वर्ग से आने वाले बृजलाल वर्मा हमारे दल के नेता बनें। तिवारी यद्यपि 56 का चुनाव हार चुके थे फिर भी उन्होंने लोहिया से खुले मुंह कहा नेता तो जगदीश जोशी होंगे हम जाति के सवाल पर योग्यता को बलि नहीं चढ़ने देंगे। डाक्टर लोहिया तुनुककर चले गए इधर जोशीजी को ही सोपा विधायक दल का नेता चुना गया। लोहिया इतने खफा हुए कि तिवारीजी को सभी समितियों से निकाल बाहर किया पर तिवारी तो तिवारी ही थे, दुस्साहसी, निश्चय के पक्के दृढ़ चट्टान की भांति अड़े रहने वाले। 



कई ऐतिहासिक भाषण दिए



राजनीतिक प्रतिबद्धता कोई तिवारीजी से सीखे। जहां रहो आखिरी सांस तक उसी को जियो और यदि त्याग दिया तो- तजौ चौथि के चंद की नाईं। विंध्यप्रदेश की विधानसभा में जमीदारी उन्मूलन, ऑफिस आफ प्राफिट तथा विलीनीकरण के खिलाफ उनके ऐतिहासिक भाषण हुए। बीबीसी तक ने उन भाषणों को कवर किया था ऐसा जोशीजी बताते थे। तिवारीजी के भाषणों में पंडित शंभूनाथ शुक्ल नहीं बल्कि पं जवाहरलाल नेहरू निशाने पर रहते थे। यहां तक कि लोहिया एक बार इस बात से नाराज भी हो गए थे कि अपना स्तर देख के विरोध भी करना चाहिए। नेहरू पर तो लोहिया ही अंगुली उठा सकता है तिवारी को कहो कि वह अपने मुख्यमंत्री तक सीमित रहा करें। पर तिवारी कहां किसी की सुना करते थे। 



कांग्रेस में ही जीना और मरना



उस पचीस साल की उमर में तिवारी जी को 'मेयो की पार्लियामेंट्री प्रैक्टिस' रटी थी। ऑफिस ऑफ प्राफिट वाली बहस में उनका भाषण लाजवाब था। आगे चलकर नजीर भी बना। कुछ साल पहले जब सोनिया गांधी, जया बच्चन व अन्य नेताओं पर ये सवाल पार्लियामेंट में खड़ा हुआ तो विंध्यप्रदेश की ये बहस वहां नजीर के तौरपर पेश की गई। तिवारीजी सन 72 में चंदौली सम्मेलन में जगदीशचंद्र जोशी के कहने पर कांग्रेस में शामिल हुए। तब वे मनगंवा से विधायक थे। इसके बाद वो कांग्रेस में सांस लेने लगे। उन्होंने बताया था कि जब वे कांग्रेसी बनके रीवा लौटे तो साथियों से कह दिया कि सोशलिस्ट पार्टी को वे गंगा में बहा आए हैं अब कांग्रेस में जीना और यहीं मरना। 



जयप्रकाश को जेल भेजने की मांग रखी



तिवारीजी कितने प्रतिबद्ध कांग्रेसी बन गए थे इससे अनूठा उदाहरण राजनीति के इतिहास में कुछ हो ही नहीं सकता जो उन्होंने विधानसभा में अपने भाषण में दिया। सन 74 में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन चरम पर था तिवारीजी ने मध्यप्रदेश की विधानसभा में कांग्रेस की ओर से भाषण देते हुए यहां तक कह डाला- जयप्रकाश नारायण ने सेना और पुलिस को विद्रोह के लिए आह्वान किया है, यह सरासर राष्ट्रद्रोह है उन्हें तत्काल गिरफ्तार कर जेल में डाल देना चाहिए..। ये शब्द उन तिवारीजी के थे जो सोशलिस्ट में रहते हुए डाक्टर लोहिया से ज्यादा जयप्रकाश को मानते थे। 



जोशी-जमुना-श्रीनिवास का नारा 



उन्हीं जयप्रकाश ने 1950 में रीवा में हिंद किसान पंचायत के सम्मेलन में.. जोशी-जमुना-श्रीनिवास का नारा दिया था।  तिवारीजी के लिए राजनीति के अपने नियम थे। वे जुनूनी थे राजनीति में रिश्ते और दिल निकालकर ताक पर रख देते थे। 75 में इमरजेंसी लगी। उनके पुराने समाजवादी साथी जेल में बंद कर दिए गए जोशी जो कि अब कांग्रेस में उनके नेता थे, जब कभी जेल में बंद पुराने समाजवादी साथियों के प्रति सहानुभूति दर्शाते तो तिवारीजी कहते कि हमारी पार्टी(कांग्रेस) और नेता (इंदिरा गांधी) के विरोधी हैं इन लोगों को जेल में ही सड़ना चाहिए।



सोशलिस्ट पार्टी को छोड़ा



 कवि ह्रदय जोशीजी ने अंततः कांग्रेस छोड़ने का मन बना लिया। तिवारीजी और अच्युतानंदजी को बुलाकर कहा चलो अब जनता पार्टी में लौट चलते हैं तिवारी जी ने जवाब दिया-खसम किया बुरा किया, करके छोड़ दिया और बुरा किया। तब तो हम सोपा छोड़ना ही नहीं चाहते थे आपने छुड़वा दी, अब जहां हूं वहीं रहूंगा आपको जाना हो जाइए। तबके इंदिरा गांधी के अत्यंत नजदीक,परमविश्वासी जोशीजी जनता पार्टी में चले गए। तिवारीजी ने एक सभा में संभवतः जोशीजी की शोकसभा में कहा था -जोशी जी तब कांग्रेस नहीं छोड़े होते तो वे 1980 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते। कुछ समय तक इंदिरा के यहां जोशी की वही हैसियत थी जो आज सोनिया गांधी के यहां अहमद पटेल की थी।



अपनी लकीर खींचने में थे माहिर



तिवारीजी राजनीति में बड़ी लकीर खींचने की बजाय उस लकीर को मिटाकर अपनी खींचने पर यकीन करते थे। अल्पकाल के लिए मंत्री और दस वर्ष तक विधानसभाध्यक्ष रहते हुए यही किया। अस्सी की शुरुआत में उनकी अर्जुनसिंह से गाढ़ी छनती थी। वजह 77 में नेता प्रतिपक्ष बनाने में तिवारीजी ने अर्जुनसिंह के लिए लांबिंग की थी। तेजलाल टेंभरे इस पद के बड़े दावेदार थे। समाजवादी पृष्टभूमि होने के नाते वे मानकर चल रहे थे कि तिवारीजी और उनका गुट सपोर्ट करेगा पर तिवरीजी ने कृष्णपाल सिंह व अन्य को अर्जनसिंह के लिए तैयार किया। 



अर्जुनसिंह हमेशा लेते थे सलाह



80 में मुख्यमंत्री बनने के बाद हाल यह था कि अर्जुनसिंह तिवारीजी के बंगले में राय-मशवरा करने जाते थे। तिवारीजी की कई टिप्स उनके काम भी आई। जैसे अर्जुन सिंह मुख्यसचिव को बर्खास्त करने का  साहस ही नहीं जुटा पा रहे थे। तिवारीजी ने अर्जुन सिंह से कहा का ये पुण्यकाम कल करना चाहते हैं तो आज अभी करें तभी प्रदेश चला पाएंगे। फिर जो हुआ प्रदेश जानता है। समस्त नियमों को शिथिल करते हुए की भाषा तिवारीजी ने ही दी। तिवारीजी की तार्किकता का कोई जवाब नहीं। एक बार उन्होंने शिक्षा विभाग की फाइल में टीप लिख दी। हंगामा मच गया। कैबिनेट में तिवारीजी ने कहा कि मैंने मंत्री पद की शपथ ली है विभाग की नहीं। हर फैसले की जब सामूहिक जिम्मेदारी होती है तो मेरे विभाग में भी शिक्षामंत्री का उतना ही अधाकार है जितना मेरा उनके विभाग में। विभाग वितरण तो एक व्यवस्था है।



चारों ओर बोलती थी तूती



 कैबिनेट में मुख्यमंत्री की हैसियत को लेकर 'फर्सट एमंग इक्वल' का सवाल उन्होंने तभी उठा दिया था जो आज सुप्रीम कोर्ट के जज लोग उठा रहे हैं। स्वास्थ्यमंत्री पद से उनका इस्तीफा नितांत वैयक्तिक व पारिवारिक कारणों से हुआ था। अर्जुनसिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए भी तिवारी की दहशत का आलम यह था का कांग्रेस में रहते हुए ही सहकारिता मंत्री राजेन्द्र जैन का ऐसा मसला उठा दिया कि लगा कि सरकार ही गिर जाएगी। उनके हरावल दस्ते में मोतीलाल वोरा, केपी सिंह, शिवकुमार श्रीवास्तव, हजारीलाल रघुवंशी, राणा नटवर सिंह, राजेन्द्रसिंह ग्वालियर जैसे दिग्गज हुआ करते थे। 85 में इन सबकी टिकट कटी।



कई नेताओं को संसदीय ज्ञान में तराशा



विधानसभाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने देश को बताया कि स्पीकर क्या होता है। उनका फार्मूला था- मोटी चमड़ी खुली जुबान। स्पीकर रहते हुए उन्होंने सबसे ज्यादा संरक्षण विपक्ष के विधायकों दिया। वे जिग्यासु विधायकों के सच्चे मायनों में गुरू थे। बीजेपी की दूसरी लाइन के जो नेता आज मप्र, छग में राज कर रहे हैं प्रायः संसदीयज्ञान के मामले में तिवारीजी के ही तराशे हुए हैं चाहे वे नरोत्तम मिश्र हों या छग के रमन सिंह, ब्रजमोहन अग्रवाल। विधानसभा में उन्होंने कई प्रतिमान गढ़े, और संसदीय इतिहास को अविस्मरणीय बनाया। तिवारीजी को महज एक लेख में नहीं समेटा जा सकता वे जिंदगीभर एक खुली किताब रहे वक्त ने उस पर मोटी जिल्द चढ़ाकर सदा के लिए बंद कर दिया। उनकी स्मृतियों को नमन!

 


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