भारत में शुद्धिकरण अभियान चला असंख्य लोगों की धर्म वापसी कराई

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भारत में शुद्धिकरण अभियान चला असंख्य लोगों की धर्म वापसी कराई

रमेश शर्मा। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में हमें तीन प्रकार के संघर्ष पढ़ने को मिलते हैं। एक सत्ता के लिये संघर्ष, दूसरा सत्ता में भागीदरी और समाज उत्थान के लिए संघर्ष और तीसरा राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए बलिदान। स्वामी श्रद्धानंद उन बलिदानियों में अग्रणी हैं जिन्होने राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए अपना जीवन और प्राण दोनों का अर्पण किया। स्वामी श्रद्धानंद का जन्म जालंधर में 22 फरवरी 1856 को हुआ था। उनके पिता ने अंग्रेजों का दमन अपनी आंखों से देखा था, वे चाहते  थे कि उनका बालक बड़ा होकर भारतीय परंपराओं के अनुरूप ढले। उन्होंने बालक का नाम मुंशी राम विज रखा। मुंशी राम विज ने हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत तथा उर्दू भाषा का आधिकारिक ज्ञान प्राप्त किया। उनकी यह विशेषता थी कि जब वे जिस भाषा में लिखते या बोलते थे तो केवल उसी भाषा के शब्द उपयोग करते थे । किसी और भाषा का कोई शब्द उपयोग नहीं करते थे।



दयानंद सरस्वती के प्रवचन ने बदली जीवन की राह: एक दिन पिता अपने युवा पुत्र मुंशी राम को स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रवचन सुनने के लिये साथ ले गये।  मुंशी राम का तर्क दिया करते थे कि यदि प्रवचनकर्ता अपना दायित्व निभाते तो शायद देश परतंत्र न होता लेकिन प्रवचन में तर्क सहित भारतीय वैदिक परंपरा सुन बहुत प्रभावित हुये और आर्य समाज से जुड़ गये। स्वामी दयानंद सरस्वती ने उन्हें श्रद्धानंद नाम दिया चूँकि वे श्रद्धा से जुड़े थे। इसके साथ जालंधर में आर्य समाज के जिला अध्यक्ष का भी दायित्व मिला। 1891 में पत्नी की मृत्यु के बाद सन्यास श्रद्धानंद ने अपना पूरा जीवन राष्ट्र और संस्कृति को समर्पित करने के संकल्प के साथ सन्यास ले लिया तब वो 35 साल के थे। इसके बाद उनके जीवन, चिंतन और लेखन की दिशा बदल गई उन्होंने समाज सेवा, वैदिक संस्कृति के प्रचार, कुरीतियों के निवारण और समाज में फैली भ्रांतियों के निवारण का अभियान चलाया। अनेक शिक्षा संस्थान स्थापित किये।  1901 में जब गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष कर रहे थे उस समय स्वामी श्रद्धानंद गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना हरिद्वार में की थी। यह जानकारी में आया कि गाँधी जी को अपने संघर्ष के लिये अर्थाभाव हो रहा था तब स्वामी श्रृद्धानंद जी ने गुरुकुल में पढ़ रहे अपने विद्यार्थी परिवारों से धन संग्रह कर पन्द्रह सौ रुपया गाँधी जी को भेजा। वे कांग्रेस के सदस्य बन संन्यासी वेष में ही कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेते रहे। वे कांग्रेस में कितने महत्वपूर्ण थे इसका संकेत इस बात से मिलता है कि 1919 में काँग्रेस के 34 वें अधिवेशन में स्वामी श्रृद्धानंद स्वागत अध्यक्ष थे। 



जब जामा मस्जिद के प्रांगण में पढ़ी वैदिक ऋचाएं: स्वामी श्रद्धानंद ने सामाजिक समरता का अभियान चलाया था। उनका यह अभियान केवल हिन्दु समाज में कुरीतियों के निवारण, जाति भेद समाप्त करने तक ही सीमित न था। वे हिन्दु और मुसलमानों के बीच भी समरस वातावरण बनाना चाहते थे। इसके लिये उन्होंने मुस्लिम समाज में अनेक सभायें की और समझाया कि पूजा पद्धति बदलने से पूर्वज नहीं बदलते। लोग अपने पंथ में अपनी पद्धति से जियें पर यह ध्यान रखें कि पूजा पद्धति के बदलाव से संस्कृति और राष्ट्र का क्षय नहीं होना चाहिए। उन्होंने तर्कों,  तथ्यों को संदर्भों के साथ प्रमाणित किया कि भारत में निवास करने वाले सभी लोगों के पूर्वज एक हैं। वे अकेले विद्वान थे जिन्होंने 1919 में दिल्ली की जामा मस्जिद प्रांगण में वेद की ऋचाओं से अपना संबोधन प्रारंभ कर समापन अल्लाहु अकबर के उद्घोष से किया। इस उद्बोधन के बाद मलकान राजपूतों ने उनसे संपर्क किया। इस समाज ने समय के साथ इस्लामिक धर्म तो अपनाया पर रूपांतरित न हो सके, उनके आग्रह पर स्वामी ने 1920 से शुद्धिकरण अभियान आरंभ किया। उनके अभियान से उत्तर प्रदेश, गुजरात, पंजाब राजस्थान आदि प्रांतों में असंख्य लोगों की घर वापसी हुई।



धर्मांध युवक ने मारी गोली: 1922 में असहयोग आंदोलन के साथ खिलाफत आँदोलन जुड़ जाने से कांग्रेस में उनके मतभेद हुये। उनका तर्क था खलीफा परंपरा से भारत का कोई संबंध नहीं। उसी समय मालाबार की भयानक हिंसा में मरने वाले अधिकांश हिंदु थे। इस घटना से नाराज स्वामी जी ने मालाबार की यात्रा कर सारे तथ्य सबके सामने रखे पर कांग्रेस में बात न बनी। इस घटना से नाराज स्वामी जी कांग्रेस से दूर हो गए और शुद्धि आंदोलन को तेज किया। शुद्धि आंदोलन से नाराज कूछ कट्टरपंथियों ने स्वामीजी को रास्ते से हटाने का षडयंत्र किया। इसके लिये एक धर्मान्ध युवक अब्दुल रशीद को चुना। उसने स्वामी जी के यहां आना जाना आरंभ किया परिचय बढ़ाया और 27 दिसम्बर 1926 को  गोली मारकर हत्या कर दी। 



स्वामी श्रद्धानन्द की रचनाएं: स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा वैदिक सिद्धांतों से सम्बंधित अनेक आलेख लिखे, व्याख्यान दिये और पुस्तकें लिखीं । उनमें प्रमुख रूप से आर्य संगीतमाला, भारत की वर्ण व्यवस्था, वेदानुकूल संक्षिप्त मनुस्मृति, पारसी मत और वैदिक धर्म, वेद और आर्यसमाज, पंच महायज्ञों की विधि, संध्या विधि, आर्यों की नित्यकर्म विधि, मानव धर्म शास्त्र तथा शासन पद्धति, यज्ञ का पहला अंग आदि हैं। इसके अतिरिक्त उर्दू में  ‘सुबहे उम्मीद’ इसमें स्वामीजी ने मैक्समूलर के वेद मन्त्रों की व्याख्या की तुलना स्वामी दयानन्द के वेद भाष्य से कर महर्षि के भाष्य को श्रेष्ठ सिद्ध किया था। अंग्रेजी  में  द फ्यूचर ऑफ आर्यसमाज - ए फोरकास्ट पुस्तक में स्वामी जी ने आर्यसमाज के भविष्य की योजनाओं पर विचार दिए हैं। स्वामी जी ने उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी में पत्र-पत्रिकाएं निकाली, जिनमें सद्-धर्म प्रचारक, श्रद्धा, तेज, लिबरेटर आदि हैं।


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