अजय बोकिल। भले ही इसके पीछे राजनीतिक आग्रह हो, लेकिन भोपाल के हबीबगंज स्टेशन का नाम बदलकर गोंड शासक रानी कमलापति के नाम पर रखने का फैसला इस मायने में सही है कि कम से कम नामकरण के लिए जरूरी नामों की खोज चंद नेताओं के नामों के आगे तो बढ़ी। वरना इस देश में कांग्रेस के जमाने में गांधी-नेहरू और अब भाजपा के राज में अटल-दीनदयाल-मुखर्जी के अलावा किसी नाम पर अमूमन सोचा ही नहीं जाता। मानकर कि विचार और स्वीकार का कैनवास यही खत्म हो जाता है। यह उक्त नेताओं की महानता पर प्रश्नचिन्ह नहीं है, बल्कि यह उनके अनुगामियों और चाहनेवालों की संकुचित सोच और शायद जान बूझकर अज्ञानी बने रहने का आग्रह भी है। क्योंकि भारत जैसे प्राचीन और विशाल देश के निर्माण में लाखों लोगो ने योगदान और आहुतियां दी हैं। लेकिन जब श्रेय देने की बात आती है तो उसकी स्मृतियों को स्थायी बनाने के लिए वास्तु नामकरण के लिए नामावली चंद नामों के आगे बढ़ने ही नहीं दी जाती।
गंज और हबीबुल्लाह के नाम से मिलकर बना था हबीबगंज
हबीबगंज स्टेशन 1979 से अस्तित्व में है। इसके पहले भोपाल जंक्शन ही भोपाल का रेलवे स्टेशन था, जिसका शुभारंभ नवाब के जमाने में 1910 में हुआ था। हालांकि जब हबीबगंज स्टेशन शुरू हुआ, तब वहां ज्यादा बस्ती नहीं थी। गिनी-चुनी ट्रेनें ही यहां रूकती थीं। लेकिन अरेरा काॅलोनी जैसी उस वक्त की नई बस रही काॅलोनियों में रहने वालों के लिए यह स्टेशन सुविधाजनक था। कहते हैं कि इस इलाके की जमीन भोपाल रियासत के पूर्व नवाब हमीदुल्लाह खां के बड़े भाई नसरुल्लाह खां के बेटे हबीबुल्लाह खां के नाम पर थी। जब हबीबगंज स्टेशन का विस्तार हुआ तो हबीबुल्लाह खां ने अपनी जमीन दी। बदले में इस इलाके का नामकरण उन्हीं के नाम पर कर दिया गया। आज का महाराणा प्रताप नगर इलाका तब गंज कहलाता था। लिहाजा स्टेशन का नामकरण भी ‘हबीब’ और ‘गंज’ मिलाकर हबीबगंज किया गया। वैसे ‘गंज’ शब्द का फारसी में अर्थ होता है बाजार, मंडी या बस्ती। इसीलिए मुगलकाल और बाद में रियासती दौर में भी शहरों में बसाई जाने वाली बस्तियों के नाम के पीछे ‘गंज’ प्रत्यय जरूर जुड़ा होता है, फिर नाम चाहे हिंदू का हो या मुस्लिम का। इस ‘गंज’ शब्द का स्थान आजकल ‘नगर’ शब्द ने ले लिया है।
अपनी तरह का पहला विश्व स्तरीय स्टेशन मध्यप्रदेश में
जाहिर है कि 42 साल बाद छोटा हबीबगंज स्टेशन अब देश के पहले वर्ल्ड क्लास स्टेशन में तब्दील हो गया है। लिहाजा यह रेलवे स्टेशनों के निजीकरण की भी शुरुआत है। यह पहला स्टेशन है, जो पब्लिक प्राइवेट मोड में संचालित होगा। पश्चिम मध्य रेलवे स्टेशन को निजी क्षेत्र के पहले आईएसओ स्टेशन का प्रमाणपत्र भी मिल गया है। ये स्टेशन अनेक विश्वस्तरीय खूबियों और सुविधाओं से सुसज्जित है। इनकी उपयोगिता और टिकाऊपन का पता तो आगे पता चलेगा। बहरहाल गर्व की बात यह है कि इस तरह का पहला स्टेशन मप्र की राजधानी भोपाल में बना है, जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 15 नवंबर को करने जा रहे हैं। यहां सवाल उठता है कि ‘वर्ल्ड क्लास रेलवे स्टेशन’ और ‘आदिवासी गौरव’ का आपस में क्या रिश्ता है? क्या यह महज संयोग है, दो अलग-अलग ध्रुवों को जोड़ने की सुविचारित कोशिश है या फिर समय की राजनीतिक अनिवार्यता है? मप्र में ऐसे कई आदिवासी क्षेत्र भी हैं, जहां आदिवासियों ने आज तक ट्रेन नहीं देखी। फिर भी ‘वर्ल्ड क्लास स्टेशन’ का नामकरण एक आदिवासी रानी के नाम पर किया जा रहा है। यह मुद्दा इसलिए भी अहम है क्योंकि वर्ल्ड क्लास स्टेशन का नामकरण स्व. अटलजी के नाम पर या फिर भोपाल के दिग्गज नेता स्व. कैलाश सारंग के नाम पर करने की बात भी चली थी। जहां तक अटलजी की बात है तो भोपाल में उनके नाम पर पहले ही एक हिंदी विवि, सुशासन संस्थान और एक सुंदर मार्ग है। कैलाश सारंग के नाम पर कोई और वास्तु भी की जा सकती है। वर्ल्ड क्लास स्टेशन के लिए कोई ऐसा नाम उचित होता, जो चौंकाने वाला होने के साथ एक नई आभा और उद्देश्य अपने साथ लिए होता। केवल परंपरा पर जाएं तो नए स्टेशन का नाम भी हबीबगंज ही होना चाहिए था, क्योंकि यह इसी नाम से लोकप्रिय हो चुका है। लेकिन जिन हबीबुल्लाह के नाम पर हबीबगंज बना, उनका न तो भोपाल के इतिहास में कोई विशेष योगदान है और न ही आजादी के आंदोलन में। नवाब खानदान के होने के नाते वो एक बड़ी जमीन के मालिक थे, और उन्होंने रेलवे स्टेशन के विस्तार के लिए अपनी जमीन दी। बस इतना ही। इसके विपरीत रानी कमलापति के चरित्र में का जुझारूपन और स्वाभिमान का भाव दिखाई देता है। भोपाल रियासत के संस्थापक सरदार दोस्त मोहम्मद खान के हाथों पराजित होने के बाद रानी कमलापति का आत्मोसर्ग एक और महान गोंड रानी दुर्गावती की भांति सर्वोच्च बलिदान भले न हो, लेकिन उन्होने पराधीनता स्वीकार करने के बजाए जल समाधि लेना बेहतर समझा।
दो करोड़ आदिवासियों को साधने की राजनीतिक कवायद
भोपाल के छोटे तालाब और जल प्रदाय व्यवस्था का श्रेय रानी कमलापति को जाता है। वैसे भी मध्यप्रदेश में देश की सबसे बड़ी लगभग 2 करोड़ आदिवासी आबादी बसती है, जो अपने आप में भी काफी विविधता लिए हुए है। इस नाते भी किसी अहम वास्तु का का नामकरण किसी आदिवासी विभूति के नाम पर करना उचित ही है। यकीनन भोपाल सहित मध्यभारत का यह इलाका कभी लंबे समय तक गोंड शासकों का राज्य हुआ करता था। लेकिन हमे उसकी जानकारी काफी कम है। वर्ल्ड क्लास स्टेशन के नामकरण के साथ यह भी जरूरी है कि हम इस प्रदेश के मूल निवासी आदिवासियों में एक गोंड जनजाति और उनके शासन की विशेषताअोंको भी जानें, नई पीढ़ी को उसके प्रामाणिक इतिहास से परिचित कराएं। वैसे भी राजा भोज से लेकर रानी कमलपति के दौर के बीच इस समूचे क्षेत्र में क्या-क्या और कब-कब घटा, इसका इतिहास सामने लाना भी रानी कमलापति के सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
चुनौती: क्या इस मेगा इवेंट से बदलेगी आदिवासियों की जिंदगी?
हबीबगंज स्टेशन का नया नामकरण रानी कमलापति के नाम पर करने के पीछे साफ राजनीतिक संदेश भी है। यह मप्र की 22 फीसदी आदिवासी आबादी के महत्व को स्वीकारने का उद्घोष भी है। क्योंकि मध्यप्रदेश में आगामी चुनावों में आदिवासी वोटों की अहम भूमिका रहने वाली है। राज्य में आदिवासियों के लिए विधानसभा की 47 आरक्षित सीटें होने और करीब 89 सीटों पर निर्णायक शक्ति होने के बाद आदिवासी मुख्य धारा के हिसाब से हाशिए पर ही हैं। सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा का मानना है कि वल्डे क्लास स्टेशन के कारण मप्र के आदिवासियों की ख्याति भी पूरी दुनिया में फैलेगी। इसी के साथ सवाल भी जुड़ा है कि क्या केवल नामकरणों से आदिवासियों की जिंदगी बदल सकेगी? उनकी मूल समस्याओं का निदान हो सकेगा? आदिवासी प्रतीकों को व्यापक हिंदुत्व के साथ जोड़ने से आदिवासी स्वयं को हिंदू समाज का अंग सहजता से मान सकेंगे? खुद हिंदू समाज उन्हें कितना अपनाएगा, इन सवालों के उत्तर आने वाले समय में मिलेंगे। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि आदिवासियो का सहज और निकटतम सम्बन्ध जिस धर्म और समाज से है, वह हिंदू ही है।
प्रदेश की बदलती राजनीति का प्रतीक है ये नामकरण
इस मायने में हबीबगंज स्टेशन को रानी कमलापति स्टेशन में तब्दील करने के पीछे एक गहरा संदेश निहित है। यह बदलती राजनीति और सामाजिक समीकरण का भी संकेत है। यह इस बात का प्रतीक भी है कि उपेक्षित समाजों के महत्व को आपको स्वीकार करना ही पड़ेगा, भले ही इसकी शुरूआत प्रतीकात्मक ही क्यों न हो। हमने एकलव्य का स्वीकार भी बड़ी मुश्किल से किया था, लेकिन रानी कमलापति के स्वीकरण को लेकर ज्यादा दुविधा नहीं है। क्या यह भी बदलाव की स्पष्ट आहट नहीं है? (लेखक 'राइट क्लिक' के वरिष्ठ संपादक हैं।)