आज दुनिया के तमाम देश प्रगति और विकास की ओर तेजी से बढ़ते भारत को एक नई उम्मीद से देख रहे हैं। भारत की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक यात्रा की एक नई शुरुआत हुई है। आज भारत की पहचान बदल रही है और वह एक समर्थ परंपरा का सांस्कृतिक उत्तराधिकारी ही नहीं है, बल्कि तेजी से विकास करता हुआ राष्ट्र है। इसलिए वह उम्मीदें भी जगा रहा है। अनादि काल से भारत में समाज की सामूहिक शक्ति पर भरोसा किया गया है। ये अरसे तक हमारी सामाजिक परंपरा का हिस्सा रहा है। जब समाज मिलकर कुछ करता है, तो इच्छित परिणाम अवश्य मिलते हैं। और हम सबने ये देखा है, कि बीते कुछ वर्षों में जन-भागीदारी भारत का नेशनल कैरेक्टर बनता जा रहा है। पिछले 6-7 वर्षों में जन-भागीदारी की ताकत से भारत में ऐसे-ऐसे कार्य हुए हैं, जिनकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। ऐसे समय में भारतीय मीडिया का आकार, प्रकार और शक्ति भी बढ़ी है। भारत में मीडिया का इस्तेमाल और उपयोग करने वाले लोग भी बढ़े हैं। तमाम संचार माध्यमों से विविध प्रकार की सूचनाएं समाज के सामने उपस्थित हो रही हैं। इसमें सूचनाओं की विविधता भी है और विकृति भी।
मीडिया इस देश की विविधता और बहुलता को व्यक्त करते हुए इसमें एकत्व के सूत्र निकाल सकता है। हमारे देश की ताकत यह है कि हम संकट के समय में जल्दी एकजुट हो जाते हैं। लेकिन संकट टलते ही वह भाव नहीं रहता। हमें इस बात को लोगों के मनों में स्थापित करना है कि वे हर स्थिति में साथ हैं और अच्छे दिनों में साथ मिलकर चल सकते हैं। यही एकात्म भाव है। यही जुड़ाव जिसे जगाने की जरूरत है। यही भारतबोध भी है। बौद्धिकता सिर्फ बुद्धिजीवियों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, उसे आम-आदमी के विचार का हिस्सा बनना चाहिए। मीडिया अपने लोगों का प्रबोधन करने में यह भूमिका निभा सकता है। मीडिया का काम सिर्फ सूचनाएं देना नहीं है, अपने पाठकों को बौद्धिक रूप से उन्नत करना भी है। कोई भी लोकतंत्र ऐसे ही सहभाग से साकार होता है, सार्थक होता है। जनता से जुड़े मुद्दे और देश के सवालों की गंभीर समझ, पाठकों और दर्शकों में पैदा करना मीडिया की जिम्मेदारी है।
भारत जैसे देश में मीडिया का प्रभाव पिछले दो दशकों में बहुत बढ़ा है। वह तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था के साथ कदमताल करता हुआ एक बड़े उद्योग में बदल गया है। लेकिन इसके बावजूद हमें यह मानना पड़ेगा कि मीडिया का व्यवसाय, अन्य व्यवसायों या उद्योगों सरीखा नहीं है। इसके साथ सामाजिक दायित्वबोध गुंथे हुए हैं। सामाजिक उत्तरदायित्व के बिना मीडिया किसी काम का नहीं है। मीडिया के नए बदलावों पर आज सवाल उठने लगे हैं। बाजार के दबावों ने मीडिया प्रबंधकों की रणनीति बदल दी है और बाजार के मूल्यों पर आधारित मीडिया का विकास भी तेजी से हो रहा है। जहां खबरों को बेचने पर जोर है। यहां मूल्य सकुचाए हुए दिखते हैं। समझौते और समर्पण के आधार पर बनने वाला मीडिया किसी भी तरह राष्ट्रीय और सामाजिक संकल्पों का वाहक नहीं बन सकता। हमें अपने मीडिया की जड़ों को देखना होगा। वह अपनी परंपरा से ही सामाजिक मूल्यों का संरक्षक और प्रेरक है। इसलिए हमें यह देखना होगा कि हम अपनी जड़ों से अलग न हों। पत्रकारिता सीधे समाज से जुड़ा, उसके सवालों से रोज मुठभेड़ करने वाला, समाज की पीड़ा, उथलपुथल और चिंताओं को अभिव्यक्त करने वाला व्यवसाय है, इसलिए उसके मूल्यबोध पर प्रश्नवाचक चिह्न पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन जब भी ऐसा वक्त आया है, पत्रकारिता ने अपनी नैतिक ध्वजा को हमेशा ऊपर रखा है। यही वजह है कि व्यापक आलोचनाओं के बाद भी सच्चाई को जानने, तथ्यों को परखने, वैचारिक द्वंद्व में जनपक्ष को समझने, समाज और इतिहास बोध के साथ-साथ वास्तविकता और फेक न्यूज के बीच में भी सही खबर लोगों तक पहुंचाने का व्यापक माध्यम आज भी मीडिया ही है।
पत्रकारिता जैसे पेशे के व्यवसाय का जन्म, समकालीन समाज में घट रही घटनाओं को जानने की जिज्ञासा, उन्हें लोगो तक पहुंचाने के आग्रह और उसके अनुसार समाज का मानस बनाने की इच्छा से हुआ है। जिज्ञासा मनुष्य का स्वभाव है, इसलिए वह अपने घर से लेकर, पास पड़ोस, शहर, अंचल, प्रदेश, देश और दुनिया की हलचल के बारे में जानना चाहता है। जो हो रहा है, वह उसका सही गलत के रूप में आकलन, विश्लेषण करता है। उसका औचित्य-अनौचित्य तय करता है। इसकी बुनियाद में अमूमन निजी से ज्यादा समाज हित और राष्ट्रहित ही होता है। मूल रूप में मीडिया का मूल्यबोध भी वही है, जो समाज का मूल्यबोध है। समाज को भी स्वस्थ, प्रामाणिक और पारदर्शी होने की दरकार है। ऐसा समाज ही मजबूत राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। विश्व का नेतृत्व कर सकता है। स्वस्थ लोकतंत्र में मीडिया की यह पहली जिम्मेदारी है कि किसी खास एजेंडे का भोंपू न बने। मीडिया अगर गलत, अर्द्धसत्य से प्रेरित अथवा एकांगी खबरें देगा, तो समाज में भ्रम फैलेगा, विवाद बढ़ेंगे, उसमें बिखराव होगा। मीडिया का एक और स्थाई मूल्यबोध है मानवीय संवेदना को कायम रखना। यह मूल्य अभी भी बरकरार है। कभी कभी फेक न्यूज की आड़ में एकांगी समाचारकथाएं भी खड़ी की जाती हैं, जिन पर रोक लगनी चाहिए। इसके अलावा महिलाओं का सम्मान, प्रतिभाओं और समाज के कमजोर वर्गों के साथ न्याय, राजनीति अगर पथ भ्रष्ट हो तो उसके कान उमेठने का साहस और मीडिया की भीतरी बुराइयों को बेहिचक स्वीकार के साथ उनमें सुधार की आंतरिक कोशिश भी मीडिया के मूल्यबोध का अहम हिस्सा होनी चाहिए।
मीडिया और समाज के मूल्यबोध का यह द्वंद्व दो दशक पहले तक ज्यादा इसलिए नहीं था, क्योंकि मुख्य धारा का मीडिया प्रिंट मीडिया ही था। उसने अपनी मर्यादाएं और आक्रामकताएं स्वयं निर्धारित की थीं। इसके बावजूद प्रेस कौंसिल जैसी संवैधानिक संस्थाओं का उस पर अंकुश था। प्रिंट मीडिया के अलावा टीवी और रेडियो के रूप में सरकारी उपक्रम थे, जो अधिकृत सूचनाएं ही देते थे। लेकिन आज मीडिया के बहुआयामी होने से यहां कभी कभी अराजकता की स्थिति भी बन रही है। मीडियाकर्मी और मीडिया शिक्षक होने के नाते मेरा मानना है कि एक पत्रकार कोई बिजनेस मैनेजर, प्रकाशक या संस्थान का मालिक नहीं है। पत्रकार राज्यरूपी जहाज पर खड़ा एक पहरेदार है, जो समुद्र में दूर-दूर तक हर संभावित छोटे-बड़े खतरे पर नजर रखता है। वह लहरों में बह रहे उन डूबतों पर भी नजर रखता है, जिन्हें बचाया जा सकता है। वह धुंध और तूफान के परे छिपे खतरों के बारे में भी आगाह करता है। उस समय वह अपनी पगार या अपने मालिकों के मुनाफे के बारे में नहीं सोच रहा होता। वह उस जगह पर उन लोगों की सुरक्षा और भले के लिए होता है, जो उस पर भरोसा करते हैं।
भारतीय संस्कृति में सामाजिक संवाद की अनेक धाराएं है। संवाद की परंपराएं हैं। शास्त्रार्थ हमारे लोकजीवन का हिस्सा है। हमें उनपर ध्यान देने की जरूरत है। सुसंवाद से ही सुंदर समाज की रचना संभव है। भारत की रचना संभव है। मीडिया इसी संवाद का केंद्र है। वह हमें भाषा भी सिखाता है और जीवन शैली को भी प्रभावित करता है। आज टीवी मीडिया पर जैसी भाषा बोली और कही जा रही है, उससे सुसंवाद कायम नहीं होता, बल्कि समाज में तनाव बढ़ता है। इसका भारतीयकरण करने की जरूरत है। हमारे जनमाध्यम ही इस जिम्मेदारी को निभा सकते हैं। वे समाज में मची होड़ और हड़बड़ी को एक सहज संवाद में बदल सकते हैं। कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो ‘लोक’ में ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। लेकिन आज लोकजीवन के तमाम किस्से, गीत-संगीत और प्रदर्शन कलाएं, शिल्प एक नई पैकेजिंग में सामने आ रहे हैं। इनमें बाजार की ताकतों ने घालमेल कर इनका मार्केट बनाना प्रारंभ किया है। इससे इनकी जीवंतता और मौलिकता को भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। जैसे आदिवासी शिल्प को आज एक बड़ा बाजार हासिल है, किंतु उसका कलाकार आज भी फांके की स्थिति में है। जाहिर तौर पर हमें अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा।
हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती हैं, जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी ‘लोक’ का हिस्सा हैं। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह ‘लोक’ को नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है, क्योंकि ‘लोक’ की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है। संस्कृति अलग से कोई चीज नहीं होती, वह हमारे समाज के सालों से अर्जित पुण्य का फल है। इसे बचाने के लिए, संरक्षित करने के लिए और इसके विकास के लिए समाज और मीडिया दोनों को साथ आना होगा। तभी हमारे गांव बचेंगे, लोक बचेगा और लोक बच गया तो संस्कृति बचेगी। इसी से नवभारत का निर्माण होगा।
(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)