गुरुपूर्णिमा के दिन सद्गुरु की तलाश में..!

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गुरुपूर्णिमा के दिन सद्गुरु की तलाश में..!

पूरे देश में गुरुपूर्णिमा की धूम रही। भक्ति-भाव के इस कर्मकांड का प्रदर्शन प्रत्येक वर्ष बढ़ता ही जाता है। इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि अंधेरा जितना घना होता है रोशनी की किरण उतनी ही महत्वपूर्ण होती जाती है। भौतिकवादी दौर ने हमारे सनातनी ज्ञान और मूल संस्कृति को ढाँक लिया है। अवचेतन में हम उसी अंधकार से निकलने की चेष्टा करते हैं, पर सही पथप्रदर्शक न होने की वजह से एक गड्ढे से निकलते हैं तो चोहड़े में गिर पड़ते हैं। ऐसे में सद्गुरू की आवश्यकता और भी प्रबल हो जाती है। गुरू तो गली-गली मिल जाएंगे पर सद्गुरु को विवेक के टार्च से तलाशना पड़ता है। गुरुपूर्णिमा इस विवेक के टार्च को प्रज्ज्वलित करने का अवसर है जो प्रतिवर्ष आता है। जिसे सद्गुरू मिले वे वैसे ही धन्य हो जाते हैं जैसे कि गोस्वामी तुलसीदास..।



ज्ञान शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी के लिए बजरंग बली देवता, ईश्वर नहीं, बल्कि सद्गुरु हैं। गोस्वामी जी कहते हैं-



जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।

जय कपीश तिहुँ लोक उजागर।।

जय जय जय हनुमान गोसाईं।

कृपा करहुँ गुरुदेव की नाईं।।



हनुमानजी से बड़ा सद्गुरु कोई नहीं



महाकवि तुलसीदास ने हनुमान जी को गुरू बनाया और उनकी प्रेरणा से रचित ग्रंथों ने उन्हें अजर-अमर कर दिया, तो मैं मानता हूँ कि हनुमानजी महाराज से बड़ा सद्गुरु इस जगत में कोई नहीं..। महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा- कि पंथाः? जवाब मिला- महाजनों येन गतो सो पंथाः। यानी कि श्रेष्ठ जन जिस मार्ग पर चलें वही अनुकरणीय-अनुशरणीय है। सो इस जगत में मैं हनुमानजी महाराज से श्रेष्ठ गुरु और किसे मानूँ.. सो अपन ने भी बजरंगबली को गुरुदेव मान लिया। सत्य यही है कि हनुमानजी कागज-कलम मसिजीवियों के लिए प्रथमेश हैं। गोसाईं जी जब भी अपने गुरु का बखान करते हैं तो समझिये हनुमान जी का ही करते हैं। हनुमान चालीसा का आरंभ.. श्री गुरु चरण सरोज रज..से करते हुए कामना करते हैं और ऐसी ही कामना की प्रेरणा देते हैं..। सच पूछिये, जिंदगी गुरु बिन व्यर्थ है। अध्यापक, शिक्षक, उपदेशक तो हमको हर मोड़, गली, चौरस्ते में मिल जाते हैं पर गुरू नहीं। बात सिर्फ गुरु भर से नहीं बनती। कबीर-नानक कहते हैं गुरू नहीं ज्ञान व मुक्ति के लिए सद्गुरु चाहिए। क्योंकि सदगुरु दुर्लभ ही मिलते है, गुरू के वेश में घंटाल ज्यादा। कभी कभी लगता है कि राम-कथा सद्गुरु और गुरुघंटाल के बीच का भी संग्राम रहा है। यानी हनुमानजी और रावण के बीच का। पुराणों में रावण को भी तो परमज्ञानी और रक्षसंस्कृति का प्रवर्तक बताया गया है।



जब हनुमानजी ने लंकिनी को बना लिया अपना शिष्य



एक प्रसंग से मैं अपनी बात प्रारंभ करता हूँ। हनुमानजी लंका जाते हैं तो सबसे पहले लंका की कुलरक्षक देवी लंकिनी को अपनी शिष्या बनाने का काम करते हैं। लंकिनी हनुमानजी से कहती है- तू तो मेरा अहार है कैसे चोरी छुपे घुसा जा रहा है। हनुमान जी जवाब देते हैं..जगत का सबसे बड़ा चोर तो लंका में रहता है। पराई नारी को छल से हर लाया। तेरा काम यदि लंका की चोरों से रखवाली करना है तो पहले रावण को ही पकड़, लंकनी भ्रमित हो गई..कि कौन बड़ा चोर, रावण कि हनुमानजी? गोस्वामी जी कहते हैं-



मुटका एक महाकपि हनी।

रुधिर वमत धरती ढनमनी।।



इस चौपाई को संकेतों में समझिए। भला बजरंगबली के एक मुटके से कोई बच सकता है और वह भी जो राक्षस कुल का है। हनुमानजी ने लंकनी को भौतिक रूप से मुष्टिका प्रहार नहीं किया..वह मुटका ज्ञान का मुटका था। उस मुटके ने लंकनी को लंका के पापों से ‘विरक्त’ कर दिया। विरक्त होने के बाद  –



पुनि संभार उठी सो लंका।

जोरि पानि कर विनय सशंका।।



और उसके बाद लंकनी तो मानों परमज्ञानी और भगवद्चरित्र की प्रवाचक ही बन गई। गोसाईं जी ने सुंदरकांड का सबसे खूबसूरत व अर्थवान दोहा लंकनी के खाते में डाल दिया। कौन सा दोहा..



तात स्वर्ग-अपवर्ग हिय धरी तुला एक अंग।



तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग।।



यानी तराजू के पलड़े में सत्संग के सुख के आगे स्वर्ग का सुख पासंग बराबर नहीं है। बजरंगी बली का वह मुटका ज्ञान का मुटका था, जो लंकनी की पीठ पर नहीं मष्तिष्क पर पड़ा और वह लंका में हो रहे अन्याय.. रावण के धतकरमों से ‘वि-रक्त’ हो गई। सद्गुरु का महात्म्य देखिए कि उससे संस्कारित शिष्य तत्काल ही अपने गुरु को उपदेश देने लगता है शुभेच्छा व्यक्त करने लगता है। गोसाईं जी ने एक और खूबसूरत चौपाई लंकनी के खाते में डाल दी..और डालें भी क्यों न, लंकनी को उन्होंने अपनी गुरुबहन जो मान लिया। तो वो चौपाई है-



प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।

ह्रदय राखि कौशलपुर राजा।।



गजब की चौपाई है यह। हनुमानजी तो रामकाज के लिए कौशलाधीश भगवान रामचंद्र को ह्रदय में स्थापित करके ही लंका चले थे..जिस लंकनी को उन्होंने संसारसागर से विरक्त कर दिया वही अब उन्हें उपदेश दे रही है। सद्गुरु की यही असली पहचान है कि उनका शिष्य भी उन्हीं की भाषा बोलने लगे। सो मैंने अपना सद्गुरु हनुमानजी को ही मान लिया। वे मेरे लिए चमत्कारिक देवता या रुद्रांश नहीं हैं मैं उन्हें वैसे ही सद्गुरु के रूप में देखता हूँ जैसे वि-रक्त होने के बाद लंकिनी..।



आज के प्रोपेगंडा वाले गुरू यानी औद्योगिक घरानों के...



बजरंगबली परमप्रभु की प्राप्ति विरक्त होने का ज्ञान देते हैं और इधर मनुष्य है कि उसका हर रिश्ता स्वार्थ की रस्सी से बँधा होता है। अब तो पिता और पुत्र के बीच में भी यही रिश्ता देखने को मिलता है, दूसरों को क्या कहिए। दाढ़ी वाले कनफुकवा तोंदियल अपन की समझ में कभी नहीं आए। एक कान में जो मंत्र फूकते हैं वह दूसरे से निकल जाता है। फिर उनके आशीर्वाद का वजन भी भक्त की आर्थिक हैसियत के हिसाब से होता है। आजकल ऐसे महंत, पंडे भी अपनी महिमा की मार्केटिंग करते हैं। बाकायदा उनकी प्रपोगंडा टीम होती है जो प्रचारित करती है कि ये कितने महान व चमत्कारी हैं। देश और बाजार के कौन-कौन जोधा उनके चेले हैं। ऐसे भी कई गुरू हैं जो औद्योगिक घरानों के बीच अर्बिटेशन का काम करने के लिए जाने जाते हैं।



जितना ज्यादा टर्नओवर उतना बड़ा गुरू



एक बार एक मित्र एक चमत्कारी संत के यहां ले गए। चुनाव का सीजन था। टिकटार्थी लाइन पर लगे थे। मित्र भी लाइन में लग गए। संतजी भगत के चढावा के हिसाब से पार्षदी से लेकर सांसदी तक की टिकट के लिए मैय्या से विनती करते थे। मित्र के लिए मैय्या से विधायकी की सिफारिश की। अब तक मित्र के उम्र की मैय्यत भी निकल गई टिकट नहीं मिली। चमत्कारी संत के लगुआ ने बताया कि मेरे मित्र के प्रतिद्वंद्वी ने ज्यादा भक्ति की सो टिकट उसको मिल गई। सो उसी दिन समझ में आ गया कि ..जो ध्यावे फल पावे..का क्या अर्थ होता है। बहरहाल हर गुरुपूर्णिमा में चाँदी तो इन्हीं की कटती है। ये अपने अपने विश्वास की बात है..विश्वास जिंदा रहे..धर्म के नाम का धंधा फले फूले। इनकम टैक्स, इनफोर्समेंट की काली छाया इनपर कभी न पडे़। जनता टैक्स पर टैक्स दे देकर इनके दर पर जयकारा मारती रहे। सरकारें आती जाती रहें और आश्रमों का टर्नओवर इसी तरह दिनदूना रात चौगुना बढता रहे।



लाखों रुपए लेकर देते हैं मोहमाया छोड़ने का प्रवचन



बचपन में भागवत कथा सुनने जाता था। देवताओं, राक्षसों के बीच ढिसुंग-ढिसुंग की कहानियां सुनकर बड़ा मजा आता था। पर जब गुरू बाबा काम, क्रोध, मद, मोह और माया(धन दौलत) त्यागने का उपदेश देने लगते तो बोरियत होने लगती थी। अपने गांव में देखा गुरू बाबा लालबिम्ब और जजमान मरियल सा। रहस्य था गुरूबाबा दस दिन देशी घी की हलवा पूरी छानते थे और उनके आदेश पर बपुरा जजमान उपासे कथा सुनता था। गए साल मित्र के यहां भागवत हुई। रिश्ता निभाना था सो गया..पता चला मोहमाया, लोभ त्यागने का उपदेश देने वाले पूरे दस लाख के करारनामे में आए थे। सो ऐसे कई वाकये हैं कि न मेरा शिक्षा में कोई गुरू हुआ, न पेशे में और न ही कनफुकवा मंत्र देने वाला। मैं तलाशता रहा कि कोई गुरु मिले स्वामी रामानंद जैसा जो कान में यह फूंकते हुए ह्रदय में उतर जाए ..कि जाति पाँति पूछे नहि कोय,हरि को भजै सो हरि का होय। रैदास जैसा भी कोई नहीँ मिला जिसके मंत्र ने क्षत्राणी मीरा कृष्ण की दीवानी मीरा बन गई।



कबीर, नानक होते तो उनके नाम का भी आ जाता फतवा



कबीर, नानक जैसे सद्गुरु आज के दौर में होते और तकरीर देते तो उनकी मुंडी पर कितने फतवे और धर्मादेश जारी होते हिसाब न लगा पाते। नेकी कर दरिया में डाल.. जैसा उपदेश देने वाले बाबा फरीद होते तो यह देखकर स्वमेव समाधिस्थ हो जाते कि.. नेकी की सिर्फ़ बात कर, विज्ञापन छपा और टीवी में जनसेवा के ढोल बजा। अपन ने बजरंग बली को गुरू इसलिए बनाया कि भक्तों से उनकी कोई डिमांड नहीं। सिंदूर चमेली का चोला व चने की दाल चढाने वाले दोनों पर बराबर कृपा बरसाते हैं। वे सद्बुद्धि के अध्येता हैं। डरपोक सुग्रीव को राज दिलवा दिया। विभीषण को मति देकर राक्षस नगरी से निकाल लाए व लंकाधिपति बनवा दिया। वे गरीब गुरबों के भगवान हैं। वे लिखने पढने वालों के प्रेरक हैं। वे वास्तव में सद्गुरू हैं। हनुमत चरित अपने आप में ज्ञान का महासागर है, सो साल का हर दिन ही मेरे लिए उनका प्रकटोत्सव है, गुरू पूर्णिमा जैसा है। इसलिए हर दिन उन्हें ही स्मरण करता हूँ कि बजरंगबली सदा सहाय करें।


Bajrangbali बजरंगबली Tulsidas तुलसीदास गुरूपूर्णिमा लंकिनी प्रोपेगंडा वाले गुरू टर्नओवर वाले बाबा गुरूओं के फतवे Gurupurnima Lankini Guru with propaganda Baba with turnover Fatwa of Gurus