इस पाखंडी दौर में रैदास और उनके गुरू की बात

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इस पाखंडी दौर में रैदास और उनके गुरू की बात

जयराम शुक्ल। देश में धर्म और राजनीति दोनों की मिश्रित बयार चल रही है। रैदास-कबीर के सूबे में चल रहे चुनावों के समानांतर धर्म और मजहब का बाना लिए पंडे और मुल्ले मैदान-ए-जंग पर हैं। हरिद्वार-प्रयाग में धर्म संसदें सजी हैं। घड़ी-घंट, ढोल— ढमाके की ध्वनि गूंज रही है। उधर देवबंदी-बरेलवी मीनारों से फतवों की तकरीरें सुनने को मिल रही हैं। धर्म सभी को व्याप रहा है। इसमें कोई हर्ज भी नहीं। चलो इसी बहाने हम भी पतित से पावन होने का अवसर तजबीज लेते हैं। हो सकता है ये पावन चित्त ही देश की जीडीपी बढ़ाने के काम आए।





आधुनिक धर्मगुरूः धर्मगुरु, जगदगुरु, मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, पीठाधीश, मठाधीश, महंत, काजी, मुल्ला, नमाजी सभी निकल पड़े हैं, अपनी-अपनी ऑडी, मर्सडीज और बीएमडब्लू,फेरारी से। आदिगुरू शंकराचार्य ने तो चार ही पीठ स्थापित की थीं। अब गिनती करिए तो चौदह सौ चौव्वालिस से ज्यादा होंगी। एक दिन अखबार में फोटो देखी, मूड़ मुड़ाए एक संतजी जगदगुरु बनने का वैसा ही प्रमाणपत्र लिए खड़े थे, जैसा कि निर्वाचन के बाद विधायक, सांसद कलेक्टर से सर्टिफिकेट लिए दिखते हैं। पहले हिमालय में कठिन तपस्या के बाद ऋषि मुनि समाज में आते तो उन्हें जगदगुरु की उपाधि मिलती और भक्त लोग उन्हें ईश्वर की भांति पूजते थे। अब तो सर्टिफिकेट दिखाकर बताते हैं कि हम फला मठ के मठाधीश हैं।





सन्यासी बने कॉमेडियनः मठाधीशी तय करने के सैकड़ों मुकदमे छोटी बड़ी अदालतों में पेंडिंग हैं। महंती के कई मामले तो बंदूकों के जरिए तय होते हैं। प्रयाग और चित्रकूट में कई बार साधुओं के गैंगवार हो चुके हैं। महंती के कई प्रत्याशी ऊपर चले गए, कई जेलों में हैं। एक दिन एक साहित्यिक समारोह में एक सन्यासी जी पधारे। जिज्ञासा थी कि इनसे कुछ ज्ञान मिलेगा। पर वे एक घंटे चीख-चीखकर बताते रहे कि सन्यासी बनने के क्या मजे हैं। आर्केस्टा में जैसे कोई कॉमेडियन मजा लगाता है वैसे वे भी मजा लगाते रहे। युवतियां-महिलाएं उनके खास निशाने पर थीं। उन्हें इंगित कर करके वे मसखरी करते रहे। साहित्य और ज्ञान के अलावा उन्होंने सभी कुछ बघारा। यह भी बताया कि उनकी कार किस ब्रांड की है और आश्रम भी हरिद्वार में कितना आलीशान है।





पैकेज में जाते हैं प्रवचनकारः सभा में ही मेरे एक मित्र ने बताया कि ये पहुंचे हुए सन्यासी हैं, इन्हें सुनने हजारों की भीड़ जुटती है। ये भागवत् कथा की आधुनिक संदर्भ में व्याख्या किया करते हैं। इनका पैकेज बीस लाख के आसपास का है। यानी कि आप कथा सुनो तो पहले बीस लाख का इंतजाम करो। लोग करते हैं तभी तो इनकी डिमांड है। अब हर प्रवचनकार पैकेज में जाते हैं। उनके साथ दुकानें भी जाती हैं और नाटक मंडली भी सोशल मीडिया में एक भागवत कथा की झलक किसी ने शेयर की, उसमें कृष्ण का रूप धरे एक युवक व एक अधनंगी लड़की नाच रही थी। भागवत वाचक और भक्तगण मुदित थे कि राधा-कृष्ण का रहस चल रहा है। इन भागवतकथा पंडालों में जो कुछ चल रहा है उसे भगवान वेदव्यास देख लें तो व्यासगादी से तत्काल त्यागपत्र देकर द्वारिका के समुद्र में खुद को विसर्जित कर लें। पर यहाँ तो बस ऐसा भक्तिभाव है कि क्या कहिए। हमारे शहर के प्रायः हर मोहल्ले में छोटी बड़ी कथा-वार्ताएं चल रही हैं। भोपाल गया तो वहां कम से कम दस साईन बोर्ड देखे कि कहां-कहां ऐसी कथाएं चल रही हैं या चलने वाली हैं और कौन महाराज सुना रहे हैं। इंदौर पहुँचा तो वहाँ भी होटल के कमरे के रोशनदान से भक्ति छन के आ रही थी। ऐसा भक्ति का वातावरण कि हर कोई मुदित हो जाए।





सत्संग नया चुनावी प्रचार माध्यमः कहते हैं जब पाप और अत्याचार बढ़ता है तब भगवान याद आते हैं। सब उन्हीं की शरण जाते हैं। क्या वाकई पाप बढ़ रहा है और इससे मुक्ति दिलाने कोई अवतार होने वाला है? मित्र ने बताया नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है। चुनाव आने वाले हैं और हर भागवत कथाओं के पीछे उस इलाके के संभावित प्रत्याशी हैं। राजनीति का ये नया पैंतरा है। नेताओं की झूठ सुनने अब पब्लिक उनके सभाओं में आने से रही। जो सक्षम हुए वो रोजनदारी की मजूरी से बुला लेते हैं। जो सत्ता में हैं उनके लिए भी कार्यक्रम- योजनाओं के नाम पर ढेर सारे प्रपंच हैं। सो दिनभर की मजदूरी देकर भीड़ जोड़ने से बेहतर है कि किसी साधू-बैरागी को ही एक मुश्त दे दो और कथा करवा लो। लोग भी जुटेंगे और अपना नीचे-ऊपर हर जगह भला होगा।





व्यापारी साधुओं का मजबूत तंत्रः सोचता हूँ कि क्या हम उन्हीं आदि शंकराचार्य के महान देश के वासी हैं जो बालपन में ही गृहस्थी, माँ-बाप की ममता को छोड़कर ज्ञान बांटने निकल पड़े।  लँगोटी, कमंडल, मूँज की रस्सी और एक लकुटी लेकर। समूचे भारतवर्ष को अपने कदमों से नापा। देश को सांस्कृतिक रूप से एक किया। वेदांतदर्शन को जन-जन तक पहुंचाया। पांच घर भिक्षा मांगकर क्षुधापूर्ति की, और ये आज के शंकराचार्य हैं, स्वयंभू जगदगुरु हैं जो डेढ़ करोड़ की कारों से चलते हैं। हवाई जहाज से नीचे पाँव नहीं धरते। मणिरत्नजटित सिहासन इनके साथ चलता है। सरकारें इनकी पुण्याई लेने के लिए हर काम छोड़कर इनके आगे बिछी रहती हैं। इन जगदगुरुओं के पास तक पहुंचने के लिए भक्तों को मेटल डिटेक्टर से गुजरना पड़ता है। एक-एक आश्रमों के टर्नओवर पांच से दस हजार करोड़ तक है। ये आज के धर्मध्वजा वाहक हैं। धर्म इन्हीं पर टिका है, देश और पूरा तंत्र इन्हीं के नाम बिका है। कोई कुछ बोलने वाला क्यों नहीं? 





कौन थे रामानंदाचार्यः मध्ययुग में जब ऐसे ही मिथ्याचारी, पाखंडी कर्मकांडियों का बोलबाला हुआ तो संत समाज से ही कई महापुरुष उठ खड़े हुए। उनमें से एक हैं स्वामी रामानंदाचार्य। इसी माघ की सप्तमी के दिन उनकी जयंती पड़ चुकी है। कहीं किसी कोने से ये खबर नहीं मिली कि स्वामी रामानंदाचार्य की जयंती मनाई गई हो। या भक्तों ने साईं बाबा की भाँति कहीं उनकी पालकी उठाई हो। आज उनके चेले संत रविदास की जयंती है, वे जनम भर खुद को रैदासा ही कहते कहवाते रहे। स्वामी रामानंदाचार्य कौन? आदिगुरू शंकराचार्य के बाद यदि किसी ने धर्म की रक्षा की तो ये यही थे, संत कबीर और संत रैदास के गुरू। जिन्होंने सिर्फ एक नारा- 



हरि को भजै तो हरि का होय,



जाति-पाँति पूछे नहिं कोय।



देकर बिखरते हुए विशाल हिंदू समाज को बचा लिया। 





रामानंदाचार्य ने ये कियाः आज से सात सौ साल पहले स्वामी रामानंद का अवतरण तब हुआ जब धर्म धुरंधरों के पाखंड का वही स्वरूप था जो आज आप महसूस कर सकते हैं। मंदिर और मूर्तियाँ पंडों के निगहबानी में थीं। छुआछूत, जातिप्रथा और धर्मांधता चरम पर। मजाल क्या कि कोई छोटी जाति का व्यक्ति मंदिर प्रवेश कर ले। पूजा, जप, तप पर पाबंदी। ऐसे में पाखंडियों के मकड़जाल से धर्म को निकालने स्वामी रामानंद आए। चमड़े का काम करने वाले रैदास को संत रविदास बना दिया। वही रविदास, जिन्होंने मीराबाई को गुरुमंत्र दिया। एक जुलाहे कबीर को संत कबीर बना दिया। बाल काटने का काम करने वाले सेन महात्मा सेन बन गए। कसाई की वृत्ति से जीवन चलाने वाले धना पूज्य हो गए। उन दिनों जिन-जिन जातियों को अछूत और मंदिर तथा पूजा के लिए निसिद्ध माना जाता था, सभी को स्वामी रामानंद ने अपनाया, वैष्णव बनाया। भक्ति की ऐसी अविरल धारा बह पड़ी कि इब्राहिम लोदी जैसे क्रूर शासक के समय भी कबीर की मंडली गली मोहल्ले पाखंड का खंडन करते घूमने लगी और उसका बाल बाँका तक नहीं हुआ। ये वही स्वामी रामानंद हैं जिनके सामने दिल्ली का सिरफिरा शासक मोहम्मद बिन तुगलक शरणागत् हुआ, जजियाकर वापस लिया और उन लाखों-लाख लोगों को पुनः हिंदू धर्म अपनाने की इजाजत दी, जिनका जबरिया मुसलमानीकरण कर दिया गया था। 





पाखंड और पाखंडियों से बचने की जरूरतः स्वामीजी ने रामनाम संकीर्तन और उसके महात्म्य को जनजन तक पहुँचाया। रामकथा के महान प्रवाचक तुलसी स्वामी रामानंदजी के ही वैचारिक वंशधर थे। आज देश को जरूरत है स्वामी रामानंदाचार्य के नए अवतार की, यह अवतार साधुसंत समाज की ओर से आना चाहिए। आज धर्म के ऊपर ऐसा आडंबर, ऐसा पाखंड छाया हुआ है कि धर्म तत्व और ईश्वरत्व उसी तरह ढंक गया है जैसे पुआल से उर्वर धरती। गोस्वामीजी ने ऐसी स्थिति पर लिखा है-



हरित भूमि तृण संकुलित समुझि परहि नहिं पंथ।



जिमि पाखंड पुराण ते लुप्त होहिं सद्ग्रंथ।।



आशा पर विश्व कायम है, मैं भी, अवतारवाद पर मुझे पूरा विश्वास है कि कोई पाखंडखंडक भारतभूमि में अवश्य आएगा। लेकिन उसके आने की भूमिका में हम सब अपने-अपने ग्यानचक्षु खोल के रखें, पाखंडियों को पाखंडी और चोरों को चोर कहने का साहस जुटाएं।



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