मुट्ठीभर उग्रवादियों के भरोसे भारत ?

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मुट्ठीभर उग्रवादियों के भरोसे भारत ?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक। रामनवमी और हनुमान जयंती के अवसरों पर देश के कई प्रदेशों में हिंसा और तोड़-फोड़ के दृश्य देखे गए। उत्तर भारत के प्रांतों के अलावा ऐसी घटनाएं दक्षिण और पूर्व के प्रांतों में भी हुईं। हालांकि इनमें सांप्रदायिक दंगों की तरह बहुत खून नहीं बहा लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कि आज़ाद भारत में ऐसी हिंसात्मक घटनाएं कभी कई प्रदेशों में एक साथ हुई हों। ऐसा होना काफी चिंता का विषय है। यह बताता है कि पूरे भारत में सांप्रदायिक विद्वेष की कोई ऐसी अदृश्य धारा बह रही है, जो किसी न किसी बहाने भड़क उठती है। 





राष्ट्र से ज्यादा मजहब को महत्व देते हैं भारतीय 





विरोधी दलों ने संयुक्त बयान देकर पूछा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मुद्दे पर चुप क्यों हैं? वे कुछ बोलते क्यों नहीं हैं? इस प्रश्न का भावार्थ यह है कि इन हिंसात्मक कार्रवाइयों को भाजपा सरकार का आशीर्वाद प्राप्त है। विरोधी दलों के नेता इन कार्रवाइयों के लिए सत्ताधारी भाजपा को जिम्मेदार ठहराना चाहते हैं। यहां यह सवाल भी विचारणीय है कि क्या इस तरह के सांप्रदायिक दंगे और हिंसात्मक घटना-क्रम सिर्फ भाजपा शासन-काल में ही होते हैं? कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और समाजवादियों के शासनकाल में ऐसी घटनाएं क्या बिलकुल नहीं हुई हैं? यह हमारे भारतीय समाज का स्थायी चरित्र बन गया है कि हम अपने राष्ट्र से भी कहीं ज्यादा महत्व अपनी जात और अपने मज़हब को देते हैं। 





ऐसी प्रवृत्ति से भारत भौगोलिक दृष्टी से एक रह सकता है पर मानसिक दृष्टी से टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे 





1947 के बाद जिस नए शक्तिशाली और एकात्म राष्ट्र का हमें निर्माण करना था, उस सपने का थोक वोट की राजनीति ने चूरा-चूरा कर दिया। थोक वोट के लालच में सभी राजनीतिक दल जातिवाद और सांप्रदायिकता का सहारा लेने में जरा भी संकोच नहीं करते। भारत में ऐसे लोग सबसे ज्यादा हैं, जिनका नाम सुनते ही उनमें से उनकी जात और मजहब का नगाड़ा बजने लगता है। जो कोई अपनी जात और मजहब को बनाए रखना चाहते हैं, उन्हें उसकी पूरी आजादी होनी चाहिए लेकिन उनके नाम पर घृणा फैलाना, ऊंच-नीच को बढ़ाना, दंगे और तोड़-फोड़ करना कहां तक उचित है? यही प्रवृत्ति देश में पनपती रही तो भौगोलिक दृष्टि से तो भारत एक ही रहेगा लेकिन मानसिक दृष्टि से उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। यह खंड-खंड में बंटा भारत क्या कभी महाशक्ति बन सकेगा? क्या वह अपनी गरीबी दूर कर सकेगा? मुझे तो डर यह लगता है कि 22 वीं सदी पूरी होते-होते कहीं ऐसा न हो जाए कि भारत के हर प्रांत और हर जिले को सांप्रदायिक और जातिवादी आधार पर बांटने की मांग पनपने लगे। आज भारत की राजनीति में अनेक सक्रिय दल ऐसे हैं, जिनका आधार शुद्ध संप्रदायवाद या शुद्ध जातिवाद है। यह राष्ट्रीय समस्या है। इसका समाधान अकेले प्रधानमंत्री या उनका अकेला राजनीतिक दल कैसे कर सकता है? इस पर तो सभी दलों की एक राय होनी चाहिए। अकेले प्रधानमंत्री ही नहीं, सभी दलों के नेताओं को मिलकर बोलना चाहिए। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं, इसलिए उनकी आवाज सबसे बुलंद होनी चाहिए। किसी भी नेता को वोट बैंक की हानि से डरना नहीं चाहिए। वे अपने वोट बैंक के चक्कर में भारत की एकता बैंक का दिवाला न पीट दें, यह सोच जरुरी है। भारत-जैसा विविधतामय देश दुनिया में कोई और नहीं है। जितने धर्म, जितनी जातियां, जितनी भाषाएं, जितने खान-पान, जितनी वेश-भूषाएं और जितने रंगों के लोग भारत में प्रेम से रहते हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं रहते। क्या ऐसे करोड़ों भारतवासी मुट्ठीभर उग्रवादियों के हाथ के खिलौने बनना पसंद करेंगे?



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